तन मन जन: कोविड-19 से भी बड़ी महामारी का रूप ले सकता है तनाव


दुनिया भर में कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से लोग डरे हुए थे। मौत की दहशत ने उन्हें घरों में ही रहने के विवश कर दिया था। अब लगभग 6 महीने हो चले हैं। लोग डर से बाहर आ चुके हैं लेकिन अब वे तनाव में हैं। तनाव तो भारत चीन सीमा पर भी है। सन् 2017 में यह तनाव डोकलाम को लेकर था, अब लद्दाख के एक इलाके को लेकर है। लद्दाख की गलवान घाटी और पांगोंग झील के फिंगर क्षेत्र में भारत द्वारा बनाए जा रहे सड़क और पुल को लेकर चीन तनाव में है। चीन की वजह से भारत में तनाव है। वायरस-वायरस खेलने वाले अमरीका में तनाव है। अमरीका और चीन में तनाव है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लू.एच.ओ.) में तनाव है। देश में लम्बे समय तक चले लॉकडाउन की वजह से करोड़ों लोगों की नौकरियां चली गई हैं, वे तनाव में हैं। उत्तर प्रदेश में दूबे जी ने पुलिस अमले का ही एनकाउन्टर कर दिया। वहां भी तनाव है।

कोरोना वायरस संक्रमण के इस काल में तनाव सर्वत्र है। व्यक्ति, समाज, राज्य, देश, विदेश सब जगह तनाव है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में कोरोना वायरस संक्रमण के मामले बढ़ने के साथ साथ ज्यादा संख्या में चिकित्सक, पुलिस और अन्य सेवाकर्मी भी संक्रमित हो रहे हैं। इससे इन सभी संगठनों और लोगों में तनाव है। तनाव एक अन्तरर्राष्ट्रीय मर्ज बन गया है। इसलिए इस बार तन मन जन में तनाव पर ही बात करते हैं।

कोरोना वायरस संक्रमण और अचानक किए गए लॉकडाउन ने लोगों का पूरा जीवन ही बदल दिया है। अचानक से स्कूल, ऑफिस, रेल, बस सब बन्द हो गए। लोग घरों में कैद हो गए और टी.वी. मीडिया के झूठ को जबरन देख-सुन कर तनाव और अवसाद में घिरने लगे। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार ऐसे लोगों के तनाव की तीन वजहें हैं। एक कोरोना वायरस से संक्रमित होने का डर, दूसरा नौकरी और कारोबार की अनिश्चितता का डर तथा तीसरा अचानक लॉकडाउन के कारण आया अकेलापन। इन स्थितियों में तनाव का बढ़ना लाज़मी है। लोगों में डर और घबराहट है। उनका अब काम में मन नहीं लग रहा। उनके जीवन में आगे का रास्ता कठिन दिखाई दे रहा। यह तनाव व्यक्ति के शरीर, दिमाग, भावनाओं और व्यवहार पर असर डाल रहा है। शरीर पर इसका असर बार-बार सरदर्द के रूप में, रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होना, थकान और रक्तचाप में उतार-चढ़ाव के रूप में दिखता है और यह चिंता, गुस्सा, डर, चिड़चिड़ापन, उदासी, उलझन आदि के रूप में भावनात्मक स्तर पर दिख रहा है। इसका असर दिमाग पर डर, बुरे सपने, कमजोरी, काम में मन न लगना आदि के रूप में पड़ता है। ऐसी स्थिति में लोग नशा के शिकार हो जाते हैं। ज्यादा टी.वी. देखने की वजह से उनमें चीखने-चिल्लाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, वैसे ही जैसे कि टी.वी. के कुछ एंकर चिल्लाते हैं। कई लोग तो गुम हो जाते हैं। वे कुछ बोलते ही नहीं।

तनाव सचमुच एक अलग प्रकार की आपदा है। कोरोना वायरस संक्रमण, लॉकडाउन और इसकी वजह से देश के लोगों में तनाव- सबने मिलकर एक अजीब स्थिति ला दी है। देश में अचानक उदासी और चुप्पी छा गई है। कुछ अतिसम्पन्न तबकों को छोड़कर ज्यादातर लोग परेशान हैं।

तो आइए समझते हैं कि तनाव है क्या। तनाव दरअसल एक शारीरिक, रासायनिक या भावनात्मक कारक है जो शारीरिक-मानसिक बेचैनी के साथ-साथ रोग निर्माण का प्रमुख स्रोत है। तनाव या स्ट्रेस शब्द हैंस शैले ने खोजा था। मनोवैज्ञानिक शैले के अनुसार तनाव एक दैहिक मामला है और यह एड्रेनिल ग्रन्थि के स्राव की वजह से बढ़ता-घटता है। तनाव के कई कारक हैं, जिसमें जीवन की मुख्य घटनाएं और उसमें बदलाव, रोजमर्रा की परेशानियां, जिन्दगी के झटके आदि कई कारण हैं जो तनाव देते हैं। कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से उत्पन्न हालात में तनाव का बढ़ना एक चिन्ताजनक मामला है क्योंकि मनोवैज्ञानिकों के अनुमान के मुताबिक देश में लगभग 40 फीसद आबादी तनाव में है। देखा यह भी जा रहा है कि तनाव की वजह से ज्यादातर लोग नशे की चपेट में हैं और काफी लोगों में गुस्सा और चिड़चिड़ापन बढ़ गया है। तनाव ने लोगों में कई शारीरिक लक्षण जैसे कब्ज़, दस्त, उच्च रक्तचाप, थकान, त्वचा की खुश्की, कैंसर, मधुमेह, दमा, भूख न लगना, नींद न आना, आदि लक्षणों को बढ़ा दिया है। ज्यादातर लोग गुम रहने लगे हैं। वे कई दिनों तक ठीक से भोजन भी नहीं कर पा रहे, उन्हें भूख नहीं लग रही।

इन दिनों सही सूचना का अकाल है क्योंकि हम फेक न्यूज़ और गोदी मीडिया की गिरफ्त में हैं, फिर भी सोशल मीडिया और सुदूर इलाकों से प्राप्त जानकारियों के आधार पर कहा जा सकता है कि तनाव ने देश में आत्महत्या की घटनाओं को बढ़ा दिया है। विगत वर्षों के आंकड़े सालाना 15 लाख लोगों की आत्महत्या के थे जो वैश्विक स्तर पर थे लेकिन भारत में प्रत्येक घंटे एक व्यक्ति आत्महत्या कर रहा है, जबकि प्रत्येक 10 मिनट पर कोई न कोई आत्महत्या का प्रयास कर रहा है। आत्महत्या करने या इसका प्रयास करने वालों में ज्यादातर युवा, स्त्रियां, बच्चे व बुजुर्ग शामिल हैं। आत्महत्या के ताजा मामले ज्यादातर आर्थिक हैं जबकि पहले के मामलों में आत्महत्या की ज्यादातर घटनाएं उनकी व्यक्तिगत/शारीरिक परेशानियों की वजह से थीं। हाल के दो-तीन महीने में कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से आत्महत्या के कई मामले समाचारपत्रों में पढ़े गए हैं।

अभी हाल में ब्रिटिश अल्जाइमर एसोसिएशन की एक रिपोर्ट आई है। इस रिपोर्ट में 50 वर्ष की उम्र के 1300 लोगों पर उनकी याददाश्त, सोचने की क्षमता को जांचने का परीक्षण किया गया। अध्ययन में पागलपन के खतरे पर हालांकि फोकस नहीं था मगर अध्ययन का निष्कर्ष चौंकाने वाला मिला। यह अध्ययन संकेत दे रहा है कि तनाव से लोगों में पागलपन बढ़ रहा है। तनाव और अन्य मानसिक स्थितियों को लेकर कई अध्ययन हुए हैं। अल्जाइमर एसोसिएशन के रिसर्च डायरेक्टर डॉक्टर  डाउग ब्राउन का कहना है कि ‘‘चिंता और तनाव जैसी स्थितियों को अलग-अलग परखना कठिन है लेकिन ये सभी धीरे-धीरे पागलपन के खतरे को बढ़ाते हैं। ब्रिटेन में लगभग 8 लाख 50 हजार लोग तनाव में हैं जिनमें ज्यादातर 65 वर्ष की उम्र पार कर चुके हैं जबकि भारत में ऐसा कोई प्रामाणिक अध्ययन उपलब्ध नहीं है।

वर्ष 2017 में भारत की कुल आबादी का 14.3 फीसद तनाव व अवसाद से ग्रस्त था। अंकों में यह आंकड़ा 197 मिलियन बैठता है। यह अनुमान लगाया जा रहा है कि कोरोना वायरस संक्रमण के दौर में सरकार के अचानक लॉकडाउन के निर्णय ने देश में 30 से 37 फीसद आबादी को प्रभावित किया है और वे तनाव में जीवन जी रहे हैं। कई अध्ययन यह भी बता रहे हैं कि भारत में मीडिया की एकतरफा रिपोर्टिंग, एंकरों की चिल्लाहट और प्रायोजित जनविरोधी खबरों से भी लोगों में चिड़चिड़ापन, अवसाद और तनाव बढ़ा है।

कोरोना वायरस संक्रमण के दौर में लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर धीरे-धीरे अध्ययन शुरू हो गए हैं। चेन्नै स्थित मानसिक स्वास्थ्य संस्थान में निदेशक डॉक्टर आर. पूर्णा चन्द्रिका के अनुसार अप्रैल में उनके संस्थान के परामर्श केन्द्र को करीब 3,632 कॉल आए जिसमें 2,603 उन व्यक्तियों के थे जो अचानक हुए लॉकडाउन से परेशान थे और उनमें जीवन जीने का उत्साह नहीं था। डॉ. चन्द्रिका कहती हैं कि संक्रमण काल के लॉकडाउन में लोगों में घबराहट, अवसाद, गुस्सा, चिड़चिड़ापन तथा आत्महत्या की प्रवृत्ति की ज्यादा शिकायतें थीं।

उन्होंने संस्थान के कई हेल्पलाइन सेन्टर खोले तथा लोगों को मानसिक उलझनों से निकाला। लॉकडाउन के प्रभाव पर अध्ययन तो हो रहे हैं लेकिन सन्देह है कि जल्द कोई आंकड़ा सामने आए। सरकार की नीति में सच्चाई के आंकड़े सामने लाने के अब तक तो कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं। सरकारी तंत्र अपने ‘‘बॉस’’ को खुश रखने के लिए देश के सभी अप्रिय आंकड़े छिपा लेता है और अपने द्वारा नियंत्रित मीडिया के माध्यम से असफलता को उपलब्धि के रूप में पेश कर वाहवाही लेता रहता है। इधर जनता परेशान और हताश है। सच जानते हुए भी उसे प्रकट न करने की मजबूरी साफ देखी, महसूस की जा सकती है।

तनाव से सम्बन्धित एक थोड़ा पुराना अध्ययन है लेकिन वह बहुत महत्वपूर्ण है। अध्ययन 2014 का है। हावर्ड मेडिकल स्कूल के प्रोफेसर मायियास नारेनबर्ग ने अपने अध्ययन में पाया कि लगातार तनाव से शरीर में रोगों से लड़ने वाली श्वेत रक्त कोशिकाओं का उत्पादन अचानक बढ़ जाता है और यह ज्यादा बढ़ी हुई मात्रा में शरीर को नुकसान पहुंचाती है। दरअसल, यह बढ़ी हुई रक्त कोशिकाएं रक्तनलिकाओं की अन्दरूनी दीवार से चिपककर खून के प्रवाह को रोकती हैं। इससे खून के थक्के बनने लगते हैं और ये थक्के शरीर के कई हिस्सों में चले जाते हैं। हृदय की रक्तसंचार प्रणाली में जाकर ये हार्ट अटैक का कारण बन जाते हैं।

डॉ. नारेनबर्ग कहते हैं कि श्वेत रक्त कोशिकाएं इन्फेक्शन और उपचार के लिए जरूरी हैं लेकिन यदि ये ज्यादा मात्रा में कहीं शरीर के संकीर्ण हिस्से में या हृदय की रक्तवाहिका में इकट्ठा हो जाएं तो जीवन के लिए खतरा बन जाती हैं। वैसे चिकित्सक यह तो जानते हैं कि लम्बे समय से चला आ रहा तनाव विभिन्न हृदय रोगों का कारण है लेकिन तनाव से शरीर में श्वेत रक्त कण के थक्के बन जाते हैं। नारेनवर्ग और उनकी शोध टीम ने अस्पताल इंटेसिव केयर यूनिट में काम करने वाले 29 चिकित्सकों पर यह अध्ययन किया।

बहरहाल, तनाव खतरनाक है और यह भारतीय समाज में तेजी से बढ़ रहा है। आर्थिक मंदी, गलत सरकारी नीतियां और नेताओं द्वारा आत्मप्रशंसा के लिए उठाए गए सरकारी कदमों की वजह से देश में आम लोगों की स्थिति पहले से और बदतर हुई है। नौकरियों तथा पगार में कटौती, आपसी सम्बन्धों में तनाव, जीवन की अनिश्चतता, समाज में वंचितों के लिए संघर्षरत बुद्धिजीवियों के साथ यातना और उत्पीड़न तथा राजनीति में गुण्डों और साम्प्रदायिक सोच वाले लोगों के वर्चस्व ने भी समाज में तनाव को बढ़ा दिया है। मसलन, लोगों में हताशा और आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ी है।

आइआइटी खड़गपुर के डीन प्रो. अमित पात्रा ने कान्फेडरेशन ऑफ इंडियन इन्डस्ट्रीज (सीआइआइ) के एक सम्मेलन में कहा है कि दुनिया भर में बढ़ती प्रतिद्वन्द्विता एवं अपने देश में आर्थिक मंदी के कारण लोगों में तनाव भयंकर रूप से बढ़ा है और ऐसी स्थिति में उत्पादन को बढ़ाना या दुनिया की आर्थिक चुनौतियों का सामना करना लगभग असम्भव है। प्रो. पात्रा कहते हैं कि सरकारी नीतियों में अदूरदर्शिता और स्थायित्व नहीं होने के कारण स्थिति और विकट हुई है। यदि जल्दी ठोस कदम नहीं उठाए गए तो भारत में तनाव महामारी का रूप ले लेगा।

कोरोना वायरस संक्रमण कब तक चलेगा इस बारे में विश्व स्वास्थ्य संगठन भी स्पष्ट नहीं है। इस वायरस संक्रमण को जितनी गम्भीरता से दुनिया के सामने पेश किया गया वह एक अतिशयोक्ति है। धीरे-धीरे अनेक समाज विज्ञानी, चिकित्सा विज्ञानी, मनोवैज्ञानिक एवं बुद्धिजीवी इस बात को मानने लगे हैं कि शुरू में एहतियात के चन्द कदमों से इस वायरल संक्रमण के प्रसार को रोका जा सकता था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यह स्थिति लगभग पूरी दुनिया में ही थी लेकिन कुछ अपवादों को छोड़कर। कई देशों ने तो अपने यहां लॉकडाउन भी नहीं किया और अपने नागरिकों को ज्यादा तकलीफ में भी नहीं डाला फिर भी वे अन्य देशों के मुकाबले कोरोना संक्रमण से अपने देश की आर्थिक क्षति को काफी हद तक नियंत्रित रख सके हैं। बीमारी या महामारी में तनाव का होना वैसे तो आम बात है लेकिन इस बार भारत में इस वैश्विक महामारी ने पूरे देश में तनाव घोल दिया है।

कोरोना वायरस संक्रमण के 200 से ज्यादा पॉजिटिव मामले मेरे पास उपचार के लिए आ चुके हैं जिसमें कोरोना संक्रमण के लक्षणों के साथ-साथ मानसिक तनाव और डर के प्रबल लक्षणों वाले मामले भी काफी थे। मौत का डर, कंगाल हो जाने का डर, परिवार में अकेला रह जाने का डर, जैसे लक्षणों के कोरोना संक्रमित मरीजों की मुख्य चिंता उनके मानसिक लक्षणों की भी थी। खैर, होमियोपैथी में शरीर के साथ ही मन की चिकित्सा के प्रावधान ने मुझे अच्छा अवसर दिया और मेरे मरीजों को बहुत लाभ मिला। इस उपचार प्रक्रिया में मुझे जो सबक मिला और जो अनुभव हुआ वह यह है कि कोरोना वायरस का जब कहर कम होने लगे तो हम सभी संवेदनशील चिकित्सकों, मनोवैज्ञानिकों एवं समाजकर्मियों को लोगों के तनाव व अन्य मनोव्याधियों के उपचार में लगना चाहिए। उपचार यानि दवा ही नहीं, उनके तनाव के कारणों को दूर करना। यह चिकित्सकीय कम, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं विशुद्ध राजनीतिक मामला है। तनाव देने वाली राजनीति को नेस्तनाबूत कीजिए, तभी अमन-चैन और सुकून की जिन्दगी मिल सकती है। लोगों को समझना-समझाना पड़ेगा। सही दवा और सही उपचार से इस तनाव का उपचार सम्भव है।


लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं।

कवर इलस्ट्रैशन हावर्ड गजेट से साभार


About डॉ. ए.के. अरुण

View all posts by डॉ. ए.के. अरुण →

One Comment on “तन मन जन: कोविड-19 से भी बड़ी महामारी का रूप ले सकता है तनाव”

  1. शानदार लेख!
    वास्तव में, तनाव या किसी मनोविकार के समाजशास्त्रीय अथवा राजनीतिक पहलू की चर्चा बहुत कम या बिल्कुल ही नहीं की जाती जो की जानी चाहिए। इसे सिर्फ बीमारी या व्यक्तिगत समस्या मानकर नहीं छोड़ा जा सकता।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *