नेपाल में सत्तारूढ़ नेकपा के दो अध्यक्षों- प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्मकमल दाहाल प्रचंड- की लड़ाई एक निर्णायक मोड़ में पहुंच गई है. पार्टी में ओली तेजी से अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं. दो दिन पहले तक ओली के वफादार माने जा रहे नेता पाला बदल कर प्रचंड खेमे में आ गए हैं. प्रचंड से ओली और फिर ओली से प्रचंड खेमे में आने वाले एक महत्वपूर्ण नेता गृहमंत्री राम बहादुर थापा बादल भी हैं. वह बुधवार की सुबह ओली की बुलाई बैठक में शामिल थे. गुरूवार को प्रचंड की बैठक में शामिल हुए थे. (यहां सिर्फ सहूलियत के लिए प्रचंड खेमा कहा जा रहा है. वास्तव में वह तीन शीर्ष नेताओं- माधव कुमार नेपाल, झलनाथ खनाल और प्रचंड- का खेमा है. ये तीनों नेता नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री हैं. इस खेमे के चौथे नेता हैं वामदेव गौतम. गौतम पूर्व उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री हैं.
इससे पहले मैंने लिखा था कि ओली और प्रचंड की लड़ाई पार्टी के दो नेताओं या दो गुटों की लड़ाई नहीं है बल्कि यह नेपाल में चल रही चीन-अमेरिका खींचतान का राजनीतिक चेहरा है. इस लड़ाई की मूल वजह अमेरिका-नेपाल के बीच प्रस्तावित मिलेनियम चैलेंज कारपोरेशन (एमसीसी) समझौता है जो अमेरिका के नेतृत्व में चीन को घेरने की हिंद-प्रशांत रणनीति का हिस्सा है. ओली खेमा, जिसका हिस्सा नेपाल के विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञवाली भी हैं, एमसीसी को संसद में पारित करवाना चाहते हैं और प्रचंड पक्ष इसका विरोध कर रहा है, हालांकि प्रचंड खेमा ओली के विरोध के पीछे समझौते के अलावा भी कई कारण गिनाता है. मिसाल के लिए, प्रचंड खेमे का आरोप है कि दो पार्टियों के बीच एकता के वक्त जो प्रतिबद्धताएं से ओली ने की थीं वह उनसे पीछे हट गए हैं. इन प्रतिबद्धताओं में से एक थी कि ओली और प्रचंड बारी-बारी से प्रधानमंत्री पद संभालेंगे.
ऐसा नहीं है कि ओली और प्रचंड के बीच हमेशा से ही टकराहट थी. 2014 में केपी शर्मा ओली तत्कालीन नेकपा एमाले के अध्यक्ष बने थे उसके बाद अक्टूबर 2015 में प्रचंड के नेतृत्व वाली एकीकृत नेकपा (माओवादी) के समर्थन से वह पहली बार देश के प्रधानमंत्री बने. दिसंबर 2017 में हुए आम निर्वाचन में ओली और प्रचंड की पार्टियों ने गठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा और दो-तिहाई बहुमत लाकर सरकार बनाई. मई में 2018 में दोनों पार्टियों का विलय हो गया. एकता के बाद एक समय ऐसा भी था जब दोनों नेता एक तरफ होते थे और अन्य नेता दूसरी तरफ, लेकिन जल्द ही ऐसा लगने लगा कि ओली का मकसद प्रचंड को किनारे लगाना है.
मिसाल के लिए, दिसंबर 2018 में ओली की मुख्य भूमिका में नेपाल में एशिया पैसिफिक या एशिया प्रशांत शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया जिसमें 45 देशों ने भाग लिया. इस आयोजन की तैयारी और संबंधित गतिविधियों से प्रचंड को दूर रखा गया. इस कार्यक्रम को सफलता के साथ आयोजित करने के बाद विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञवाली ने अमेरिका का दौरा किया और बिना अन्य नेताओं को विश्वास में लिए एमसीसी को देश में लागू करने का वचन दे आए. यहीं से पार्टी के अंदर शुरू हुआ एमसीसी विवाद. याद रखने वाली एक बात यह है कि एमसीसी को सबसे पहले सितंबर 2017 में नेपाली कांग्रेस की सरकार ने प्रस्तावित किया था और उस सरकार का हिस्सा प्रचंड के नेतृत्व वाली माओवादी पार्टी भी थी.
अब क्रोनोलॉजी…
दिसंबर 2018 को विदेश मंत्री प्रदीप ज्ञवाली ने अमेरिका भ्रमण के अवसर पर कांग्रेस के शासन में प्रस्तावित एमसीसी को आगे ले जाने का वादा अमेरिका के विदेश मंत्री से किया. बताया जाता है कि ऐसा करते वक्त उन्होंने पार्टी के दूसरे अध्यक्ष प्रचंड से परामर्श भी नहीं किया था.
जनवरी 2019 में प्रचंड ने जैसे को तैसा की तर्ज़ पर ओली और ज्ञवाली से चर्चा किए बगैर वेनेजुएला में अमेरिकी हस्तक्षेप के खिलाफ बयान दे डाला. यह बयान प्रचंड और ओली विवाद का पहला सार्वजनिक संकेत था. वेनेजुएला के विद्रोही नेता खुआन गोइदो ने 24 जनवरी को स्वयं को वेनेजुएला का राष्ट्रपति घोषित कर लिया था और अमेरिका ने तुरंत उन्हें मान्यता दे दी थी. नेपाल में प्रचंड ने अमेरिका के इस कृत्य को आंतरिक मामले में हस्तक्षेप बताते हुए एक वक्तव्य जारी कर दिया. पार्टी की ओर से जारी वक्तव्य में उन्होंने अमेरिका के हस्तक्षेप को स्वतंत्र और संप्रभु देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप बताया और कहा कि गोइदो को राष्ट्रपति की मान्यता देना निर्वाचित राष्ट्रपति निकोलस मादूरो के खिलाफ बड़ा षड्यंत्र है. प्रचंड के इस बयान के बाद ओली की सरकार को अमेरिका की डांट सुननी पड़ी. अमेरिका ने नेपाल के राजदूत को तलब कर प्रचंड के बयान के लिए स्पष्टीकरण मांगा. ओली ने बयान को “जीभ का फिसल जाना” कह कर प्रचंड को सार्वजनिक रूप से नीचा दिखाया. लेकिन प्रचंड अपने बयान से पीछे नहीं हटे.
12 जून 2019 को ओली के खिलाफ सार्वजनिक रूप से प्रचंड ने दूसरी बार विद्रोह किया. एक कार्यक्रम में प्रचंड ने मीडिया काउंसिल बिल का यह कह कर विरोध किया कि यह बिल सरकार ने बिना आवश्यक तैयारी के संसद में पेश किया है. उनसे पहले 23 मई को पार्टी के शीर्ष नेता वामदेव गौतम, 31 मई को एशिया मानव अधिकार परिषद और 11 जून को नेपाली पत्रकार परिसंघ ने इस बिल का विरोध किया था. सभी का मानना है कि यह बिल मीडिया पर सेंसरशिप लगाने का प्रयास है.
18 अगस्त को ओली भी खुल कर मैदान में उतर आए और घोषणा कर दी कि वह अगले आम निर्वाचन के बाद ही प्रधानमंत्री पद छोड़ेंगे.
23 अगस्त को एक कार्यक्रम में प्रचंड ने ओली को फिर निशाने पर लिया. इस बात का इशारा करते हुए कि ओली दूसरों की मेंहनत और बलिदान के कारण सत्ता के शीर्ष पर विराजमान हैं, प्रचंड ने एक कार्यक्रम में उनका नाम बिना लिए कहा कि नेपाल के कम्युनिस्ट राजा-महाराजाओं की तरह व्यवहार करते हैं. अन्य देश के कम्युनिस्ट बलिदान देते हैं और जनता के साथ जुड़ते हैं लेकिन नेपाल के कम्युनिस्ट सत्ता में आते ही राजा-महाराजा जैसे हो जाते हैं.
सितंबर 2019 में चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने नेपाल की तीन दिवसीय यात्रा की. उन्होंने सत्तारूढ़ पार्टी के शीर्ष नेताओं से मुलाकात की और इस दौरान चीन ने कई बयान जारी किए जिनमें से एक बयान ने एमसीसी समर्थकों को चौंका दिया. प्रचंड से मुलाकात के बाद जारी उस बयान में चीन के कहा था कि प्रचंड ने आश्वासन दिया है कि “गुट-निरपेक्ष नीति पर नेपाल का मजबूत विश्वास है और वह तथाकथित हिंद-प्रशांत रणनीति को खारिज करता है, वह चीन के विकास में अवरोध डालने वाले प्रयासों का विरोध करता है और उसका हमेशा से मानना रहा है कि चीन का विकास नेपाल के विकास के लिए अवसर है और वह चीन के सफल अनुभव से सीख लेने की इच्छा रखता है.”
इसके बाद के दिनों में पार्टी के अंदर और बाहर एमसीसी का विरोध तीव्र होता चला गया. इसके समर्थन और विपक्ष में, संसद के अंदर और संसद से बाहर के राजनीतिक दल, छात्र और बुद्धीजीवी मैदान में उतर आए.
29 जनवरी से 2 फरवरी के 2020 के बीच चली नेकपा की पूर्ण बैठक में पार्टी में वरिष्ठ नेता और पूर्व प्रधानमंत्री झलनाथ खनाल के नेतृत्व में एमसीसी का अध्ययन करने के लिए तीन सदस्यीय कार्यदल का गठन हुआ. 21 फरवरी को कार्यदल ने अपनी रिपोर्ट केपी ओली और प्रचंड को सौंप दी. रिपोर्ट में सिफारिश की गई है कि सरकार एमसीसी को मंजूर न करे.
फिर क्या था? इसके बाद से आर-पार की लड़ाई शुरू हो गई है. चूंकि इस समझौते को पारित करने की अंतिम तिथि यानी 30 जून नजदीक आ रही थी, ओली और समझौते के पक्षधर डेस्परेट हो गए.
20 अप्रैल को दूसरे दलों से एकता कर पार्टी में खुद की स्थिति मजबूत बनाने के लिए ओली ने राजनीतिक दल कानून को संशोधित करने वाला अध्यादेश जारी कराया. इससे पार्टी तोड़ कर नई पार्टी गठन करना आसान हो जाता, लेकिन विरोध के बाद इसे उन्होंने वापस ले लिया.
30 अप्रैल को ओली ने अपनी पार्टी में सेंधमारी के उद्देश्य से पार्टी सचिवालय की बैठक में यह कहते हुए कि कोरोना महामारी खत्म होते ही वह पद से हट जाएंगे, वरिष्ठ नेता वामदेव गौतम को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव सामने रखा. कुछ देर के लिए लगा कि ओली ने मैदान मार लिया है लेकिन ऐसा नहीं हुआ और जैसे-जैसे एमसीसी पारित करने की अंतिम मियाद पास आने लगी दोनों खेमों के बीच भिड़ंत भी तीव्र होने लगी और ओली पक्ष समर्थन के लिए विपक्ष की तरफ ताकने लगा.
16 मई को कोरोना लॉकडाउन के बीच पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा ने संसदीय दलों की बैठक में एमसीसी को जल्दी से पारित करने की बात कहते हुए ओली को समर्थन देने का इशारा किया. उनकी इस मांग के जवाब में एमसीसी पर बने झलनाथ खनाल वाली तीन सदस्यीय कार्यदाल के सदस्य रहे सत्तारूढ़ पार्टी के सांसद और पूर्व मंत्री भीम रावल ने 18 मई को संसद में आरोप लगाया कि एमसीसी को “चोर बाटो” (चोर दरवाजे) से पारित करने की कोशिश हो रही है यानी विपक्ष से चोरी छिपे गठबंधन करके, जिसके जवाब में ओली ने कहा कि ऐसा करने की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि वह “मूल बाटो” (मुख्य दरवाजे) से पारित होगा.
इस बीच 8 मई को भारत के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने पिथौरागढ़ जिले में बनी एक नई सड़क का उद्घाटन किया. जिस जमीन पर यह सड़क बनी है उस पर वर्षों से नेपाल अपना दावा करता रहा है. (इस विवाद को समझने के लिए वरिष्ठ पत्रकार और नेपाल के मामलों के जानकार आनंद स्वरूप वर्मा का जनपथ में हाल में प्रकाशित लेख पढ़ना अच्छा होगा.) भारत का यह कदम ओली के लिए वरदान बन कर आया और एमसीसी से गिर रही अपनी राष्ट्रवादी छवि को भारत विरोधी हुंकार लगाकर फिर संभालने की कोशिश की. भारतीय मीडिया ने उनको जितना कोसा नेपाल में वह उतने फूलते गए. संसद में विवादित भूभाग को नेपाल का हिस्सा दिखाने वाला नक्शा पारित हुआ तो एक पल के लिए नेपाल ओलीमय हो गया, लेकिन फिर शोर थम गया, ओली की हवा निकल गई और लोग एमसीसी का विरोध करने सड़कों और सोशल मीडिया पर लौट आए.