तन मन जन: आत्महत्या दरअसल ‘सांस्थानिक हत्या’ है!


सुशान्त सिंह राजपूत एक अच्छे एक्टर थे, मैं उनकी एक्टिंग से प्रभावित रहा लेकिन मैं सुशान्त की आत्महत्या के साथ खड़ा नहीं हूं। दरअसल, मैं हर आत्महत्या के विरुद्ध हूं।

वैसे तो हम जीवित व्यक्ति के साथ कभी भी समय पर खड़े नहीं होते, लेकिन मातम के वक्त समय पर पहुंच जाते हैं। आपने गौर किया होगा कि फिल्म नगरी मुम्बई सम्भवतः देश में इकलौती ऐसी जगह है जहां मातम के वक्त एक जैसे कपड़े में सभी तथाकथित लोग बड़ी संख्या में दिख जाते हैं। बाहर से देखने में सब कुछ संवेदनयुक्त लगता है मगर यदि सचमुच इन कलाकारों में संवेदना होती तो शायद इस तरह के कई संकटों से बचा जा सकता था। ऐसे माहौल में सुशान्त के साथ पूरी हमदर्दी रखते हुए भी उनके साथ खड़ा नहीं हुआ जा सकता। उनके साथ खड़ा होने का मतलब है आत्महत्या को समर्थन देना। आत्महत्या मनुष्यता की अवहेलना है।

याद कीजिए, पिछले महीने का देशव्यापी लॉकडाउन। लाखों लोग बच्चे, बीवी, सामान सहित महीनों सड़क पर चलकर अपने गांव के सफर में थे। भूखे बच्चे, गर्भवती महिलाएं, अपंग बूढ़े सब चल रहे थे, कोई जीवन से थका नहीं था। ये सब अपने संघर्ष के साथ जिन्दा रहे। रोते रहे, गुस्से में भी, लेकिन जीवन से हारे नहीं। देश को बनाने वाले मजदूरों ने सियासत की औकात नाप ली मगर आत्महत्या नहीं की। कहीं रेल ने काट दिया तो कहीं सड़क ने कुचल डाला मगर मेहनतकश रुके नहीं, चलते रहे। गाते गुनगुनाते रहे – जीवन चलने का नाम…। इन मजदूरों का रोजगार और उनके शहर का अस्थायी ठिकाना छीन लिया गया। वे कुछ नहीं बोले। पेट की आग ने उन्हें जला दिया मगर पलट कर इन मजदूरों ने किसी नेता का घर नहीं जलाया! जीवन सहने से बनता है, खोने से नहीं। इसलिए जीवन सीखना है तो इन अप्रवासी मजदूरों से सीखिए, सुशान्त राजपूत से नहीं। इसलिए मैं सुशान्त के प्रति सहानुभूति रखते हुए उनके आत्महत्या के खिलाफ हूं। यदि आप मुझसे सहमत नहीं हैं तो मुझे माफ़ कर दीजिए।

हत्या और आत्महत्या में कितना फ़र्क है? आप कहेंगे हत्या कोई और करता है जबकि आत्महत्या व्यक्ति स्वयं करता है! मैं कहता हूं कि आत्महत्या भी कोई और करवाता है। इसे आप जाल बिछाकर की गयी हत्या भी कह सकते हैं। आत्महत्या की खबरों का सच जानिए। उसके पीछे कोई न कोई हत्यारा छिपा मिल जाएगा। व्यक्ति, परिवार समाज या सरकार। आत्महत्या में कोई न कोई हत्यारा तो होता ही है। अवसाद, निराशा, बाइपोलर डिसार्डर बहाने कुछ भी हो सकते हैं लेकिन हर आत्महत्या दरअसल एक हत्या ही है। हत्या जघन्य अपराध है तो आत्महत्या भी अपराध ही है, हालांकि कई देश अब आत्महत्या को अपराध नहीं मानते। वे कानून बनाकर आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से बाहर कर चुके हैं। इंग्लैंड और वेल्स ने 1961 में तथा आयरलैंड ने 1993 में आत्महत्या को गैर-आपराधिक घोषित कर दिया था लेकिन इससे आत्महत्या के पीछे की हत्या छुप थोड़े ही न जाएगी?

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सामूहिक आत्महत्या के भी कुछ उदाहरण मौजूद हैं। सन् 1978 में ‘‘जान्सटाउन कल्ट सुसाइड’’ जिसमें जिम जोन्स के नेतृत्व वाले एक अमरीकी पंथ पीपल्स टेम्पल के 918 सदस्यों ने साइनाइड जहर से एक साथ अपना जीवन समाप्त कर लिया था। ऐसे ही 1944 में साइपान युद्ध के अन्तिम दिनों में 10 हजार से ज्यादा जापानी नागरिकों ने बान्जाई चोटी से कूदकर आत्महत्या कर ली थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में इरविन टोमेल के पास हिटलर के आत्महत्या की आशंका से सम्बन्धित जानकारी थी। बहरहाल, कुछ अपवादों को छोड़़कर ज्यादातर आत्महत्याएं अब हत्या का पर्याय लगती हैं।

आत्महत्या की चर्चा में किसानों द्वारा की गयी आत्महत्या के मामले को देखें तो हैरानी होती है कि मामले रोज-ब-रोज बढ़ते ही जा रहे हैं और आम लोग कह रहे हैं कि फलां किसान जिन्दगी से परेशान था और वह जहर खाकर मर गया। नेताओं के बोल तो शर्म को भी मात दे देंगे। किसानों की आत्महत्या में 42 प्रतिशत की बढ़ोतरी स्पष्ट देखी जा सकती है। पी. साइनाथ कहते हैं कि यह किसानों द्वारा की गयी आत्महत्या नही बल्कि ‘‘जाल बिछाकर उनकी की गयी हत्या’ ’है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़ों में किसानों में आत्महत्या के मामले बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ गये हैं और इसमें महाराष्ट्र सबसे आगे है। किसान आत्महत्या से जुड़ी वजहों की पड़ताल करें तो उसमें फसल खराब होना और कर्ज का बोझ- ये दो कारण ही प्रमुख हैं। एनसीआरबी के अनुसार आत्महत्या करने वाले किसानों में 80 फीसद किसान तो ऐसे थे जिन्होंने बैंक के कर्ज की वजह से जान दी। इसी दौरान अनेक ऐसे भी किसान थे जिन्होंने खेती-किसानी ही छोड़ दी।

अभी 2019 में लम्बे अन्तराल और जद्दोजहद के बाद एनसीआरबी ने एक्सीडेन्टल डेथ्स और सुसाइड नामक रिपोर्ट में 2016 तक के आंकड़े जारी किये हैं। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2016 में 11 हजार 379 किसानों ने आत्महत्या की। यानि हर महीने 248 और हर दिन 31 किसानों ने अपनी जान दी। इसमें ध्यान देने वाली बात यह है कि आत्महत्या करने वालों में 6 हजार 270 किसान तथा 5 हजार 109 खेतिहर मजदूर हैं।

चौंकाने वाली बात तो यह है कि किसानों में 5,995 तो महिलाएं हैं जिन्होंने आत्महत्या की। ऐसे ही खेतिहर मजदूरों में 4476 पुरुष और 631 महिलाओं ने आत्महत्या की।

सुशान्त सिंह राजपूत की आत्महत्या से लेकर देश में किसानों की आत्महत्याओं के बहाने मैंने आत्महत्या के नाम पर की जा रही परोक्ष हत्या की चर्चा तो की लेकिन मैं आश्वस्त नहीं हूं कि सांस्थानिक और गुम हत्याओं से हमारा समाज चिन्तित है और इससे सबक लेगा।

अभी हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लू.एच.ओ.) ने दुनिया भर में होने वाली आत्महत्याओं को लेकर एक रिपोर्ट जारी की है, जिसके मुताबिक दुनिया में सालाना कोई आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं जिनमें 21 फीसद मामले भारत के हैं। यहां डब्लू.एच.ओ. ने अपनी रिपोर्ट में यह भी चिन्ता व्यक्त की है कि भारत में आत्महत्या के इतने ज्यादा केस के बावजूद यहां समाज और सरकार इस मामले में गम्भीर नहीं है। इस कड़वी हकीकत के बावजूद गांवों में 26 रु. और शहरों में 33 रुपये रोज की दर पर जीवनयापन करने वालों को गरीब न मानने वाली निष्ठुर भारतीय राज्य व्यवस्था अब अपने लोगों के लिए आत्महत्या की राह और भी आसान करने जा रही है। खबर है कि केन्द्र सरकार जल्द ही भारतीय कानून की आइपीसी, सीआरपीसी, साक्ष्य अधिनियम आदि में संशोधन कर आत्महत्या के प्रयास को अपराध की श्रेणी से बाहर कर देगी।

हैरान करने वाली बात यह है कि आत्महत्या के कारणों पर विमर्श की जगह आत्महत्या को ‘व्यक्तिगत मामला’ मानकर हम एक ज्वलंत समस्या से मुंह मोड़ रहे हैं। आंकड़े देखें तो आत्महत्या करने वालों में स्त्री और पुरुष का अनुपात लगभग बराबर है। एनसीआरबी के तुलनात्मक आंकड़े बताते हैं कि भारत में 37.8 फीसद आत्महत्या करने वाले लोग 30 वर्ष से भी कम उम्र हैं, दूसरी ओर 44 वर्ष तक के लोगों में आत्महत्या की दर 7 फीसद तक बढ़ी है। हाल के दिनों की घटनाओं के परिपेक्ष्य में देखें तो आत्महत्या के मामलों में वृद्धि की आशंका मुझे ज्यादा दिख रही है। दरअसल, आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति विशुद्ध रूप से एक समाजशास्त्रीय परिघटना है।

आज व्यक्ति को समाज और सरकार की नीतियों ने आर्थिक संकट में डालकर हताश और असंतोष से भर दिया है। आत्महत्या का समाजशास्त्र बताता है कि व्यक्ति में हताशा की शुरूआत तनाव से होती है जो उसे खुदकुशी तक ले जाती है। यह हैरान करने वाली बात है कि समाजशास्त्र की पारम्परिक मान्यता के अनुसार आत्महत्या के लिए जिम्मेवार पहलुओं से अलग अब सरकारी नीतियों और सरकारी उपेक्षाओं की वजह से आत्महत्या के बड़े मामलों ने एक नये पक्ष को उद्घाटित किया है। केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ही एक रिपोर्ट के अनुसार बीमारी, अवसाद या तनाव के कारण की जाने वाली आत्महत्याओं की तुलना में संस्थागत कारणों से की जाने वाली आत्महत्याएं कई गुना बढ़ गई हैं।

कोरोना वायरस संक्रमण के बहाने सरकार द्वारा बिना किसी ठोस तैयारी के लिए गए लॉकडाउन की वजह से उत्पन्न आर्थिक संकट के कारण आत्महत्या की घटनाएं बढ़ सकती हैं। आंकड़ों से मुंह चुराने वाली मौजूदा बीजेपी या एनडीए की सरकार को इस बात की परवाह भी नहीं है कि उसकी घोषणा से जनता को कितनी दिक्कतें उठानी पड़ सकती हैं। विगत छः वर्षों के एनडीए के शासन में नोटबन्दी से लेकर जीएसटी की अचानक घोषणाओं ने कितने मजबूर लोगों की जान ली, इसका अधिकारी आंकड़ा एनसीआरबी के पास भी नहीं है। हां, एनसीआरबी के आंकड़ों ने यह तो मान लिया है कि हाल के वर्षों में देश के उच्च अध्ययन संस्थानों जैसे आइआइटी/आइआइएम या केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में प्रतिभाशाली छात्रों में बढ़ी आत्महत्या के पीछे उसके रोग या व्यक्तिगत तनाव की जगह सांस्थानिक कारक ज्यादा जिम्मेवार हैं।

आत्महत्या का एक दूसरा संस्थागत आपराधिक पहलू यह भी है कि कई हत्या के मामले पुलिस आत्महत्या के रूप में दर्ज करती है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ से कई ऐसे मामले मानवाधिकार आयोग के संज्ञान में हैं, जिसमें अपराधियों ने तो व्यक्ति की हत्या की लेकिन पुलिस ने उसे आत्महत्या का मामला दर्ज किया। पति-पत्नी विवाद में पत्नी या पति की हत्या के कई मामले आत्महत्या बताकर लम्बे समय तक अदालती कार्यवाही में चलते देखे जा सकते हैं। पुलिस में ही कई मामले हत्या के बाद आत्महत्या का बता कर दर्ज हैं। ऐसे ही सेना के कई मामलों में आत्महत्या की मूल वजह में हत्या की साजिश का जिक्र कई बार देखने को मिला है।

आत्महत्या के नाम पर की गई या की जा रही हत्या की चर्चा में मैं रोहित वेमुला का मामला भी दर्ज करना चाहूंगा। रोहित वेमुला की आत्महत्यानुमा हत्या पर तात्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी की प्रतिक्रिया ने स्पष्ट कर दिया था हैदराबाद विश्वविद्यालय में लगातार दलित छात्रों के उत्पीड़न में साम्प्रदायिक और सवर्ण जातिवादी वर्चस्व ने बड़ी भूमिका निभाई थी। श्रीमती ईरानी ने बतौर मंत्री सराकर का बचाव करते हुए सारा ठीकरा उस केन्द्रीय विश्वविद्यालय के स्वायत्त प्रशासन पर फोड़कर यह भी जाहिर कर दिया कि पर्दे के पीछे खेल में सरकार को बचाने के उनके हथकंडे अपनी जगह हैं लेकिन आत्महत्या के रूप में युवाओं-छात्रों की हो रही हत्या के मामले को ऐसे ही खारिज नहीं किया जा सकता।

आत्महत्या की चर्चा में मैं मीडिया को शामिल किए बगैर अपना लेख पूरा नहीं मानूंगा। मीडिया जिसमें इन्टरनेट भी शामिल है, आत्महत्या का कवरेज ऐसे करता है मानो यह कोई सनसनीखेज या व्यापारिक घटना हो। मीडिया द्वारा किसी भी आत्महत्या की घटना का विस्तृत वर्णन या व्याख्या इतनी खौफनाक होती है कि आप समझ ही नहीं पाते कि इस आत्महत्या में कोई हत्या छिपी है। अकसर आत्महत्या के किसी भी मामले को मीडिया में आप एक जजमेन्ट की तरह देखते हैं। मीडिया आपको बताने की कोशिश करता है कि यह आत्महत्या तर्कसंगत है या परार्थवादी। मीडिया ने आत्महत्या के रूप में की गई हत्या को पर्दे में ढंकने के जितने प्रयास किए उससे साफ है कि मीडिया उस हत्या का एक पक्षकार ही है। खैर, अब तो मौजूदा हालात ने पत्रकारों को भी नहीं छोड़ा। वे आत्महत्या के आंकड़ों में लगातार वृद्धि कर रहे हैं। कारण भी वही आम हैं जो अन्य वर्ग के लोगों की आत्महत्या में दिख जाते हैं।

अन्त में बेहतर है रघुवीर सहाय के रामदास को याद कर लूं। रामदास एक आम आदमी है जिसकी हत्या केवल व्यक्ति की हत्या नहीं है। यह हमारी सोच, लोकतंत्र व न्याय के प्रति आस्था की हत्या है। कानून एक है लेकिन कहने को। यह व्यक्ति के वर्ग और पहुंच के अनुसार तय होते कानून का सर्वाधिक दुरुपयोग पैसे वाले, पदवाले राजनीतिक संरक्षण प्राप्त लोगों ने ही किया है। हम जिस समाज में रहते हैं वहां अपराध खुले में किया जाता है। रामदास उदास था क्योंकि उसे हत्या की धमकी मिली हुई थी। लोगों ने भी उस हत्या को रोकना नहीं, बल्कि उन लोगों ने तो हत्या का एक-एक क्षण अपनी आंखों से देखना चाहा।

धीरे-धीरे चला अकेले
सोचा साथ किसी को ले ले
फिर रह गया, सड़क पर सब थे
सभी मौन थे सभी निहत्थे
सभी जानते थे यह, उस दिन उसकी हत्या होगी

रामदास, रघुवीर सहाय

बहरहाल, आत्महत्या भी ‘रामदास की हत्या’ ही है। सुशान्त राजपूत या देश के किसान या विश्वविद्यालय के छात्र या कोई प्रोफेशनल- यदि आप आत्महत्या के लिए मजबूर हैं तो समझिए कि आपकी हत्या की सुपारी व्यवस्था ने पहले ही दे रखी है।


लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं।


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10 Comments on “तन मन जन: आत्महत्या दरअसल ‘सांस्थानिक हत्या’ है!”

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