कैलेंडर में तारीख बदले बस 42 मिनट हुए हैं। 2020 के जून की 19वीं तारीख शुरु ही हुई है। दिल्ली में गर्मी बहुत पड़ रही है। बाहर का अंधेरा दुष्यंत के उस कोहरे से कहीं ज्यादा घना है जिसके बारे में उन्होंने कहा था- “मत कहो आकाश में कोहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है”।
भारत-चीन सरहद पर गैलवन घाटी में जो घटा है उससे पैदा हुई कोफ्त भांय-भांय कर रही है। इस बेबसी के बरअक्स सरकार की तरफ उठने वाले तमाम सवालों को स्थगित कर देने के लिए झुमरी तिलैया, झंझारपुर से लेकर 6अ, दीन दयाल उपाध्याय मार्ग तक के भगवा प्रवक्ताओं ने अपनी सारी अदृश्य बौद्धिकता झोंक दी है। कोरोना को मात देने के उपाय खोजने में दुनिया भर के वैज्ञानिकों की नींद उड़ी हुई है। इधर योग शिक्षक रामदेव के अधिकार और प्रचार से संचालित कंपनी पतंजलि ने नेपाली मूल के बालकृष्ण के नेतृत्व में कोरोना को हराने की बूटी खोजने का दावा किया है। इतिहास में नेपाल-भारत सीमा विवाद का जन्म हो चुका है। काठमांडो भारत के एक बड़े भू-भाग को अपने नक्शे में शामिल करके संसद की मंजूरी ले चुका है और देश में कोरोना के मरीजों की संख्या पौने चार लाख को पार कर चुकी है।
यह भूमिका इसलिए कि समझा जा सके कि किन परिस्थितियों में यह आलेख लिखा जा रहा है। तवारीख के इस दौर में अभिव्यक्ति की आजादी सरकारी अपराध में तब्दील की जा चुकी है। स्वतंत्रता और बंधुत्व की अवधारणाएं चुनावी जीत पर कुर्बान की जा चुकी हैं। दो दिन पहले ही हिंदी पट्टी के सबसे तेज चैनल वाले विज्ञापन की एक एंकर ने सरकार के बचाव की हुलस वेदना में चीन सीमा पर सेना की वीरता और सैनिकों की शहादत की तौहीन की है। एक दूसरा राष्ट्रवादी एंकर प्रसिद्ध सूफी संत हज़रत ख्वाजा मोइनउद्दीन चिश्ती उर्फ गरीब नवाज़ को लुटेरा बताकर आर-पार की जंग छेड़ चुका है।
इसके दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में लॉकडाउन के असर पर रिपोर्ट को लेकर स्क्रॉल की कार्यकारी संपादक सुप्रिया शर्मा के खिलाफ मामला दर्ज करा दिया गया है। उनके खिलाफ लगाई गई तमाम धाराओं में सूचनाओं का गलत निरूपण, मानहानि और महामारी कानून समेत दलित-आदिवासी उत्पीड़न कानून 1989 भी शामिल है। हाल में लगभग ऐसे ही मामलों में एचडब्ल्यू न्यूज के संपादक विनोद दुआ के खिलाफ कायम मुकदमे से सब वाकिफ़ हैं। अब इस तरह के मुकदमों से न तो हैरानी होती है और न ही इसमें कहीं विद्रूप नज़र आता है। यही नया सामान्य है। अंग्रेजी में कहें तो “न्यू नॉर्मल”।
इस वक्त का सबसे बड़ा सवाल यह है कि अब क्या होगा? क्योंकि आपदा को अवसर में बदलने की दुर्लभ योग्यताओँ की खोज में टेलीविजन के पर्दे पर हिलने वाले विवेकविहीन भित्तिचित्रों ने नेहरू-इंदिरा-राजीव वगैरह के काल की यात्राएं आदतन शुरू कर दी हैं। बार-बार 1962 के युद्ध और च्यांग काई शेक के साथ नेहरू की मित्रता और फिर हिंदी-चीनी भाई-भाई के नारे के बावजूद उनके विश्वासघात के पन्ने पलटे जा रहे हैं। यह अलग बात है कि 1959 में तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा के भारत आने के बाद से ही नेहरू चीन पर भरोसा नहीं कर पा रहे थे। चीन पहला देश था जिसने कश्मीर की स्वायत्तता का मुद्दा उठाया था। इस बात का ज़िक्र उस दौर में चीन के राजदूत रहे और पूर्व विदेश सचिव त्रिलोकी नाथ कौल ने अपनी किताब डिप्लोमेसी इन पीस एंड वार में विस्तार से किया है।
यहां मुद्दा इतिहास नहीं है। वह तो टेलीविजन के गूगलप्रेमी एंकर उखाड़ ही लाएंगे। यहां जो मुद्दा है वो यह कि इन सब परिस्थितिजन्य साक्ष्यों की पृष्ठभूमि मे चीनी माल के बहिष्कार का जो शुभारंभ भारत सरकार ने किया है उसकी पूर्णाहुति क्या होगी? इसने मेरे सामने व्यक्तिगत तौर पर भारी दुविधा खड़ी कर दी है।
घर में एक डेस्कटॉप लगाने के यत्न में हार्डवेयर इंजीनियर जो डिब्बा लेकर आया था उसमें मदर बोर्ड, हार्ड डिस्क, ग्राफिक्स कार्ड, मॉनिटर से लेकर कैबिनेट तक हर चीज़ चीन निर्मित थी। मैंने उससे बहुत मासूम सवाल किया– अगर लिखने-पढ़ने भर के लिए एक विशुद्ध भारतीय कंप्यूटर लगाना हो तो क्या करना होगा? उसका जवाब इससे ज्यादा मासूम था– मोदी जी को ही वोट दिया था सर, लेकिन अब क्या जान ले लोगे? उसने हाथ खड़े कर दिए।
जेब्रॉनिक्स का डिब्बा अभी वैसे का वैसा ही बंद पड़ा हुआ है जिस पर मोटा-मोटा लिखा हुआ है “मेड इन चाइना”। मेरे पिता बिहार के छोटे से कस्बे औरंगाबाद में रहते हैं। वे भौतिक विज्ञान के रिटायर प्रोफेसर हैं। उनका पुराना फोन खराब हो गया है और वे चाहते हैं कि मैं उन्हें एक नया फोन भेज दूं। मैंने कहा फोन तो वहीं मिल जाएगा। उन्होंने जवाब दिया- “पता किया था लेकिन सब चाइना का है, तुम्हें तो दिल्ली में शुद्ध मेड इन इंडिया फोन मिल जाएगा।“ मैंने झुंझलाते हुए बस इतना कहा कि पापा, यहां शुद्ध दूध नहीं मिलता शुद्ध फोन कहां से मिलेगा?
इन दो घटनाओं का ज़िक्र इसलिए करना पड़ा ताकि समझा जा सके कि चीन से सरहद पर जारी तनाव को चीनी सामान के बहिष्कार की राष्ट्रवादी जनभावनाओं में बदलना वैसे ही है जैसे पांचवीं का छात्र भूगोल की किताब से ई बराबर एमसी स्क्वायर का मतलब समझने की कोशिश कर रहा हो। यह कोशिश कोई बच्चा करे तो उसे दरकिनार किया जा सकता है लेकिन अगर यह कोशिश दुनिया के विशालतम लोकतंत्र की सरकार करे तो यह बात सरेआम हो जाती है कि वह वैश्विक परिस्थितियों और देश की जनता दोनों को मज़ाक समझती है।
स्वनामधन्य संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद के दिपदिपाते नेतृत्व में अस्त हो चुके बीएसएनएल ने 4जी अपग्रेडेशन प्रोजेक्ट में चीनी कंपनी को दिया गया ठेका रद्द कर दिया है। रेलवे ने सिग्नलिंग और टेलीकम्यूनिकेशन प्रोजेक्ट में चीनी कंपनी को दिया गया 471 करोड़ का ठेका रद्द कर दिया है। इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन ने खिलाड़ियों के लिए जूते-मोजे, किट मुहैया कराने वाली चीनी कंपनी ली निंग को दिया ठेका रद्द कर दिया है। मतलब गड्ढा खोदने से लेकर रेड लाइट लगाने, ऑप्टिकल फाइबर बिछाने और हमारे जूते-मोजे-बनियान तक में चीन भीतर तक घुसा हुआ है। और ये अंदर की बात नहीं है।
तो क्या चीनी सामान का बहिष्कार किया जा सकता है? इसका जवाब नहीं में देना इस समय बहुत जोखिम भरा काम है, लेकिन क्रिकेट को धर्म बनाने का धंधा करने वाली कंपनी बीसीसीआइ को ये जोखिम लेने में न डर लगता है और न ही गला सूखता है। इसके खजांची अरुण कुमार धूमल ने चीनी मोबाइल कंपनी वीवो के साथ आइपीएल का प्रायोजन करार खत्म करने से साफ इंकार कर दिया है। वीवो बीसीसीआइ को सालाना 440 करोड़ रुपए देती है। धूमल ने दो टूक कह दिया है कि वीवो के साथ बीसीसीआइ का करार 2022 तक है और ये जैसे था वैसे ही चलता रहेगा। उनकी दलील है कि अगर चीन का पैसा भारतीय क्रिकेट की मदद कर रहा है तो हमें इससे कोई दिक्कत नहीं।
कुछ और पीछे चलते हैं। एक और चीनी मोबाइल कंपनी ओप्पो पिछले साल सितंबर तक टीम इंडिया को स्पॉन्सर कर रही थी। मार्च 2017 में ओप्पो ने वीवो को पीछे छोड़कर 768 करोड़ में टीम इंडिया की जर्सी के अधिकार खरीदे थे। उस सौदे के मुताबिक ओप्पो को बायलैटरल सीरीज के एक मैच में बीसीसीआइ को 4.61 करोड़ रुपए देने थे, जबकि आइसीसी टूर्नामेंट में हर मैच के लिए उसे 1.56 करोड़ रुपए चुकाने थे। इसके बाद से बेंगलुरु की ऐप बेस्ड एजुकेशन कंपनी बायजू भारतीय टीम को स्पॉन्सर कर रही है। बीसीसीआइ ने बायजू से जो करार किया है वह 5 सितंबर 2019 से 31 मार्च 2022 तक लागू रहेगा।
अब ज़रा बायजू में पैसा लगाने वाले लोगों और कंपनियों की लिस्ट देख लीजिए, जिसकी घोषणा उसने पूरे गर्व के साथ अपनी वेबसाइट पर खुद की है। इसमें एक नाम है टेनसेंट होल्डिंग लिमिटेड का। टेनसेंट का मुख्यालय है शेनजेन और इसके निदेशक हैं हांगवेई चेन। टेनसेंट बायजू में अभी तक लगभग 350 करोड़ रुपए का निवेश कर चुकी है। बायजू के विज्ञापनों से देश के तमाम अखबार और टीवी चैनल धन्य-धन्य उपकृत हैं। बायजू क्लास दिलवाना बच्चों के लिए स्टेटस सिंबल बन चुका है। आप चाहें तो इसका भुगतान पेटीएम से कर सकते हैं। अगर आपको याद हो तो नोटबंदी के ठीक अगले दिन यानि 9 नवंबर 2016 को पेटीएम के विज्ञापनों में पीएम मोदी खुद नजर आए थे। यह है पेटीएम की ताकत और पहुंच। इसके कारण भी चाइना में ही मौजूद हैं।
दस अरब डॉलर की कंपनी पेटीएम किसकी है? आप कहेंगे विजय शेखर शर्मा की। नहीं। पेटीएम में सबसे बड़ी हिस्सेदारी है चीन वाले अली बाबा की कंपनी एएनटी फिनांशियल की, जिसे पहले अली पे के नाम से जानते थे। 29.71 फीसद। दूसरी बड़ी हिस्सेदारी है चीन की ही दूसरी कंपनी सैफ पार्टनर्स की। 18.56 फीसद। मतलब दोनों कंपनियों को मिला दें तो लगभग आधा पेटीएम चीन के कब्जे में है, लेकिन मसला इससे कहीं ज्यादा बड़ा है। डिजिटल इंडिया के नाम पर इस देश के हर चौथे आदमी ने अपना बैंक खाता, लेन-देन, जमा-निकासी का हिसाब-किताब पेटीएम के हवाले कर दिया है। यह संख्या 25 करोड़ से ज्यादा है। सब्जी बेचने वाले, दूध बेचने वाले, फल बेचने वाले, चाय-खोमचे वाले समेत 70 लाख से ज्यादा छोटे कारोबारियों की कमाई पेटीएम के पास रखी हुई है।
जुमला गढ़ा जा रहा है कि चाइनीज माल का बहिष्कार करना है। किया जा भी सकता है, लेकिन क्या भारत के लोग इसके लिए तैयार हैं? या और परिष्कृत तरीके से पूछा जाए तो क्या तैयार होंगे? क्या वाकई इस देश का सुविधाभोगी शहरी मध्यवर्ग बिग बास्केट, स्विगी, फ्लिपकार्ट, हाइक, मेक माई ट्रिप, ओला, पॉलिसी बाजार, स्नैप डील जैसे प्लेटफॉर्म्स से नफरत करने लगा है और वह इन कंपनियों के प्रति अपना लॉयलिटी बोनस छोड़ने के लिए मन पक्का कर चुका है? इसका जवाब सब समझते हैं।
2017 में चीन की फोसुन फार्मा ने हैदराबाद की ग्लैंड फार्मा नाम की फार्मास्यूटिकल कंपनी को 1.1 अरब डॉलर में खरीद लिया था। क्या भारत के लोग चीन को उसके निवेश और ब्याज का भुगतान करके अपनी देशी कंपनी वापस हासिल करना चाहेंगे? ऊर्जा मंत्री आरके सिंह ने 5 मार्च 2020 को संसद को लिखित जवाब में बताया था कि अप्रैल 2017 से दिसंबर 2019 तक भारत, चीन से 911 करोड़ डॉलर का सोलर उपकरण मंगवा चुका था। इन उपकरणों से हजारों गांवों में मुफ्त की बत्ती जलाने वाले लोग क्या ‘राष्ट्रवाद’ का अंधकार स्वीकार करने को तैयार हैं?
ये वे सवाल हैं जिसके जवाब की खोज में जनता बीसीसीआइ की ओर ताक रही है। इसके कोषाध्यक्ष अरुण कुमार धूमल चीनी कंपनियों के साथ बीसीसीआइ के प्रायोजन करार का फायदा गिनाते हुए कहते हैं कि बोर्ड उस कमाई पर केंद्र सरकार को 42 फीसद टैक्स देता है। और फिर पैसा आ रहा है, जा नहीं रहा है। ऐसे में यह करार तो भारत के फायदे में है, इसे क्यों छोड़ा जाए। इस कहानी को रहने देते हैं कि चीन क्या बेचने के लिए बीसीसीआइ को इतनी मोटी रकम दे रहा है और वो पैसा कहां जा रहा है।
2013 में एक फिल्म आई थी मिक्की वायरस। उस फिल्म में हनीफ़ शेख का लिखा एक गाना था जिसके बोल थे- प्यार चाइना का माल है। अब बात आगे बढ़ गई है। सिर्फ प्यार ही चाइना का माल नहीं है। राष्ट्रवादी आख्यान रचने वाले बीसीसीआइ के लिए बहिष्कार भी चाइना का माल है और मुनाफा सौ टका मेक इन इंडिया। जाहिर सी बात है कि इस ‘राष्ट्रवादी’ फैसले में बोर्ड के सचिव जय शाह की अनिवार्य मंजूरी रही होगी। यह उस दौर का सच है जब उनके पिता और देश के गृह मंत्री अमित शाह गलवान घाटी से सरकार के खिलाफ उठी हवाओं का रुख मोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
चाइनीज़ माल के बहिष्कार की लंतरानी यह कहानी गढ़ने की कोशिश कर रही है कि चाइना का माल मतलब दीवाली की लड़ी है, लक्ष्मी-गणेश की सस्ती मूर्ति है, पन्नी वाला झंडा है, प्लास्टिक की झाड़ू, बच्चों का खिलौना, फुटपाथ पर बिकने वाला ताला या सतरंगी लाइट है। सच यह है कि इन सबसे ज्यादा, बहिष्कार चाइना का माल है। इसे आंदोलन में बदल देने की नैतिकता गांधी के साथ ही इतिहास के पन्नों का सामान हो चुकी है।
मेरी समस्या अब भी जस की तस है। मैं अपने लिए एक विशुद्ध भारतीय डेस्कटॉप की तलाश कर रहा हूं और मेरे पिता एक विशुद्ध भारतीय फोन के इंतजार में हैं। भारतीय राष्ट्रवाद में पगे हुए लोग कह रहे हैं ‘जिओ।’ राष्ट्रवादी कहलाने की सारी कृपा इसी ‘अ’ और ‘य’ के बीच में कहीं अटकी हुई है।
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