पिछले दो महीने से धूप में तपी हुई सड़कों पर हमने देश के लाखों श्रमिक नागरिकों को अपनी गृहस्थी ढोते हुए देखा है। इनकी संख्या बहुत ज़्यादा थी, तकलीफ़ें बेइंतिहां थीं और देश के राजनैतिक तंत्र की घनघोर विफलताएं भी इनके साथ चल रही थीं।
तमाम ‘सकारात्मक’ और ‘सरकारात्मक’ मीडिया को इन्हें दिखाना पड़ा। ढेर राजनीति हुई। इसने उसके सिर पर ठीकरा फोड़ा। उसने किसी और के सिर पर तोहमत मढ़ दी। किसी ने खाना खिला दिया, वो वो ‘दयालु’ साबित हो गया। किसी ने चप्पलें पहना दीं, तो उसे ‘धर्मात्मा’ कह दिया गया।
किसी ने बसों का इंतजाम कर दिया। जिसे ऐसा ‘करने दिया गया’, उसे देश का हीरो बना दिया गया। जिसे ऐसा नहीं करने दिया गया उस पर तमाम तोहमतें लगा दी गयीं। बहरहाल, दर्द और तकलीफ़ों के हज़ार अफसाने हवा में तैर रहे हैं। सामूहिक स्मृति ने यदि साथ दिया और जल्दी-जल्दी राष्ट्रीय महत्व की कुछ बड़ी सनसनीखेज घटनाएं देश में न घटीं, तो त्रासदी के ये दृश्य लंबे समय तक लोगों के ज़ेहन में बने रहेंगे।
निस्संदेह, यह एक ऐतिहासिक मानवीय त्रासदी रही जो अमानुषिक राजनैतिक ‘दर्प’ और ‘अहंकार’ से पैदा की गयी। इसे लेकर उन्हें कभी कोई अफ़सोस नहीं होगा जिन्होंने इसे पैदा किया। इसमें अफ़सोस जैसा कुछ है भी नहीं।
ये कौन लोग थे जो सड़कों पर पैदल चलते हुए खबरों में नमूदार हो रहे थे? आधुनिक दुनिया में गरीबी एक अवस्था है और इसमें एक आंतरिक गति है यानी इसे बदला जा सकता है। इसक उलट ‘आर्यावर्त’ में गरीबी एक जड़ता है जिसे इसलिए नहीं बदला जा सकता है क्योंकि ये शास्त्रानुमोदित है, शास्त्रसम्मत है।
तथाकथित नीची कही जाने वाली जातियां, जिन्हें शूद्र नामक वर्ण प्राप्त है, उन्हें धन संचय का अधिकार मनुस्मृति जैसा शास्त्र वर्जित मानता है।
यह शास्त्र उन्हें अपना पेशा बदलने का अधिकार भी नहीं देता। भूमि का स्वामी होने जैसा अधिकार तो इनके लिए कतई आपराधिक है। इसलिए गरीबी की जो अर्थशास्त्रीय परिभाषा है, जिसमें भोजन में प्राप्त कैलोरीज़ को पैमाना बनाया गया है या उसकी क्रय शक्ति को आधार माना गया है, वो ठीक तरह से यहां की गरीबी को व्याख्यायित नहीं कर सकती।
यहां की गरीबी पुश्तैनी है। सनातन है। पुरानी पीढ़ी, नयी पीढ़ी को यह पुश्तैनी विरासत में देकर जाती है। फिर नयी पीढ़ी अपनी अगली पीढ़ी को इसे आगे बढ़ाती है। सामान्य जीवन स्तर ठीक हो जाये, भोजन में कैलोरीज़ भी ठीक हो जाएं, लेकिन यहां गरीबी और गरीब अब भी उस शास्त्रानुमोदित परंपरागत नज़रिये से ही देखे जाएंगे।
इसीलिए जब खाते-पीते समाज की संवेदनशीलता पर सवाल उठाये गये, तब वह दूरदर्शन पर प्रसारित महाभारत और रामायण देखने में मुब्तिला रहा। यहां याद रखना चाहिए कि प्रसार भारती एक धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक गणराज्य के अधीन एक प्रसारण संस्थान है। इस संस्थान ने इस खाते-पीते समाज की बोरियत को मिटाने की दिशा में अच्छा काम किया जो लॉकडाउन की वजह से उपजी थी।
दरअसल, यह समाज सिर्फ अपनी बोरियत नहीं मिटा रहा था। भारतीय गणराज्य- जो अभी समुचित रूप से सामाजिक–सांस्कृतिक मायने में आधुनिक राष्ट्र में परिवर्तित नहीं हो सका है- इस समाज को अपने परंपरागत मूल्य-बोध का एक रिफ्रेशर कोर्स करवा रहा था। वह इन्हें सिखा रहा था कि ‘वत्स, तुम्हें ये दृश्य देखकर विचलित नहीं होना है। इस वक्त मानवीय मूल्यों से ज़्यादा धर्म के मूल्यों का पालन करना श्रेयस्कर है। तुम धर्म की थाती हो’।
रामायण और महाभारत के माध्यम से यह बताया जा रहा था कि धर्म टिकेगा तभी मनुष्य भी टिकेगा; जब-जब धर्म पर हमला होगा तब-तब इसके रक्षार्थ कोई जन्म लेगा; अभी धर्म की हानि नहीं हो रही है, मनुष्यता की हो रही है इसलिए तुम स्थितप्रज्ञ हो जाओ!
हिंदुस्तान में ये दृश्य सामान्य हैं। इनसे विचलित न होने का लंबा और संहिताबद्ध प्रशिक्षण हमारी परवरिश का सबसे ज़रूरी हिस्सा है। हमें असंवेदनशील होना सिखाया जाता है। हमें ऐसा ही बनाया जाता है। अगर आप अपनी संवेदना के वशीभूत, मानवीय प्रेरणाओं से संचालित होकर इन मज़लूमों के कष्ट कम करने, उनकी इस स्थिति पर सवाल करने जैसा कोई हस्तक्षेप करते हों तो आप उस ‘डिवाइन ऑर्डर’ में नाकाबिल-ए-बर्दाश्त दखलंदाज़ी कर रहे होंगे।
इन्हें कष्ट सहना होगा। ये कर्ज़ है इन पर पिछले जन्म का। इस जनम में चुकाएंगे तो अगला जनम सुधरेगा। सो, इन्हें कष्ट सहने दो। अगर पूरा नहीं चुकाया तो अगला जनम भी ऐसा ही कटेगा। एक औसत भारतीय को यही प्रशिक्षण तो मिला है!
जो कष्ट भोग रहे हैं उन्हें भी यह पता है और उनका इस पर पुख्ता भरोसा है कि अगर इस जनम में कष्ट न भोगे तो अगला जनम तो गया। वे नियति से निराश हो सकते हैं, लेकिन सरकार से नहीं। जो आज राज-काज में सर्वेसर्वा हैं वह उनके पिछले जन्मों के संचित अच्छे कर्मों का फल है। उनसे कैसी शिकायत?
मैंने स्वयं बचपन से अपने गांव में यह देखा है कि जब कोई तथाकथित नीची जाति का व्यक्ति मेरे घर के अहाते से गुज़रता था तो अपनी चप्पलें हाथ में उठा लेता था। धरती तब भी तपती थी, पांव तब भी जलते थे और अपमान तब भी होता था। इस एक व्यवहार में उन्हें अगर यह सीख मिलती थी कि ‘बड़े घरों’ के सामने से गुज़रने पर चप्पलें हाथ में लेना है, तो मुझे भी इस बात के लिए प्रशिक्षित किया गया कि वत्स, तुम्हें विचलित नहीं होना है।
इस सीख और परवरिश को अन-लर्न (सीखा हुआ भुला देने) करने का प्रशिक्षण प्राय: भारत के औपचारिक शिक्षा संस्थानों से गायब है। कानून नाम से थोड़ा डर ज़रूर पैदा हुआ, लेकिन कानून किसी से यह तो कह नहीं सकता कि कौन सा दृश्य देखकर मुझे दुखी होना चाहिए? किस दृश्य पर मुझे हंसना चाहिए?
अगर इस बड़ी मानवीय त्रासदी से लोग विचलित नहीं हुए और खुलकर राजनैतिक तंत्र के खिलाफ मुखर नहीं हुए, तो क्या यह मान लेना चाहिए कि हमारा प्यारा भारतवर्ष अब भी उन शास्त्रों और शास्त्रों से अनुमोदित सामाजिक संस्थाओं की आचार संहिताओं से संचालित है, जिसके बारे में कालजयी उपन्यास गोरा में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा था, “भारतीय समाज में जितनी भी सामाजिक संस्थाएं मसलन परिवार, कुटुंब, पड़ोस, नातेदार, जाति, धर्म, क्षेत्रीयताएं या भ्रामक राष्ट्रीयता बोध पैदा करने वाली हैं, वे केवल मनुष्य का दुख बढ़ाती हैं। हमारी परंपरागत सामाजिक संस्थाएं एक परेशान हाल व्यक्ति की पीड़ा को न केवल बढ़ाती हैं बल्कि अन्यों को परपीड़क होते जाने में आनंद की अनुभूति देने लगती हैं।”
अगर ऐसा है, तो फिर इस त्रासदी से निकले सबक कम से कम हमारे लिए तो नहीं हैं। दरअसल, यह अपने आप में कोई त्रासदी ही नहीं है। इसमें सबक कहां है? यह तो शास्त्रानुमोदित आचार संहिताओं का पालन मात्र है!
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं
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