गांधी की धरती पर सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी और गांधी के विचारों का विस्मरण


2 अक्टूबर 2019 को भारत सरकार ने तमाम ताम-झाम के साथ गांधी की डेढ़ सौवीं वर्षगाँठ मनाने का ऐलान किया। पूरे साल भर की एक विस्तृत कार्ययोजना तैयार की गयी जिसमे गांधी दर्शन के प्रचार सहित तमाम ऐसे आयोजन करने की योजना तैयार की गयी जिसमे गाँधी के विचारों को जन-जन तक पहुँचाया जा सके। सिनेमावालों को, देश के अन्य प्रख्यात कलाकारों को गांधी पर वृत्तचित्र और संगीत सहित फिल्म आदि बनाने का भार सौंपा गया। देश के तमाम सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों ने भी इस दिशा में तमाम योजनाएं बनानी शुरू कर दीं।

प्रधानमन्त्री जी जिस विचारधारा को मानते हैं या कहें कि जिस विचारधारा के संस्कार उन्हें बचपन से मिले हैं, कायदे से उस विचाधारा में गांधी कहीं फिट तो नहीं होते (यह बात गाहे-बगाहे नजर आ ही जाती है) पर गांधी की जनस्वीकार्यता इतनी है कि उन्हें अनदेखा करने का दिखावा भी नहीं किया जा सकता है। ऐसे में प्रधानमन्त्री को जब-तब गांधी को याद करना ही पड़ता है। प्रधानमन्त्री समेत देश के तमाम नेताओं को ऐसा लगता है कि गांधी का नाम लेकर, उन्हें जानने और मानने का दिखावा करके अपने तमाम ऐसे कामों को भी छिपाया जा सकता है जो कुत्सित कहे जाते हैं।

गांधी नाम की पतवार लेकर पूरी सरकार स्वार्थ की नदी में सत्ता की डोंगी लेकर चली ही थी कि मार्च में भारत में कोरोना का संक्रमण शुरू हो गया। जैसे-जैसे कोरोना बढ़ता गया, गाँधी से जुड़े आयोजन कम होते गये, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के साबरमती आश्रम दौरे के बाद शायद ही कोई बड़ा आयोजन गाँधी को लेकर हुआ हो।

आयोजन कम हुए यह कोई बड़ी बात नहीं, ऐसे त्रासद समय में ऐसे बड़े आयोजनों की जरूरत भी नहीं पर हैरानी यह देखकर हुई कि जिस समय गांधी के विचारों को जमीन पर सबसे ज्यादा उतारे जाने की जरूरत थी ठीक उसी समय सरकार ने गांधी के विचारों का दिखावा करना भी बंद कर दिया।

सरकार के तमाम प्रमुख लोग (हालाँकि तमाम प्रमुख लोग कहना भी सही नहीं है, चलाते तो दो ही लोग हैं) गांधी के सहयोग, सहकारिता, सेवा भावना को तिलांजलि देकर नफ़रत की राजनीति करने लगे। 25 मार्च को जब पहला लॉकडाउन हुआ था तब से लेकर आज तक जितने बेतुके और असंवेदनशील निर्णय इस सरकार ने लिए हैं उसकी बानगी शायद ही निकट के इतिहास में कहीं और मिल पाये।

बीमारी के इस त्रासद समय में जब सरकार को सबसे ज्यादा मानवीय होने की जरूरत थी ठीक उसी समय यह नफरतों का व्यापार करते हुए मानवीय जीवन और गरिमा से खेलने लगी। बीमारी के कठिन समय में भी अल्पसंख्यकों, विरोधी विचार वालों, मजदूरों के साथ लगातार अन्याय जारी रहा। सरकार की नीतियों का विरोध करने वाले तमाम आंदोलनकारी जेल भेजे जाने लगे और  मजदूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया।

विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी, जो इस देश की सबसे पुरानी राजनैतिक पार्टी होने का ख़म ठोकती हैं और गांधी के विचारों का असली वारिस होने का दावा करती है, उसने भी वही किया जो सत्ता पक्ष के लोग कर रहे हैं अर्थात तुच्छ राजनीति।

चाहे कांग्रेस के भूतपूर्व अध्यक्ष और सदाबहार स्ट्रगलर राहुल गांधी की बात हो या फिर उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी जमीन की तलाश में लगी प्रियंका गांधी, दोनों ने मौके का फायदा उठाते हुए केवल और केवल राजनीति की रोटियां ही सेंकी हैं। कथनी और करनी में अंतर कुछ ऐसा है कि एकतरफ तो वे देशभर के मजदूरों की घर वापसी के लिए पार्टी फंड से पैसे देने की बात करते हैं वही दूसरी तरफ कांग्रेस शासित राज्यों से मजदूरों से पैसे वसूलने की खबरें आती हैं। आम चुनावों में बुरी तरह हार का सामना करने वाले विपक्षी दल इसमें भी वोट बैंक की राजनीति ही कर रहे हैं।

सन 2022 में हम अपनी आजादी का हीरक जयंती वर्ष भी मनाने वाले हैं। तब तक सब ठीक रहा तो नया संसद भवन भी बनकर तैयार हो जाएगा। हजारों करोड़ रुपये की लागत से तैयार होने वाला यह भवन भी हमारे देश की दशा-दिशा बयां करता है। एकतरफ देश के बड़े तबके के पास रहने लायक घर नहीं है, खाने के लिए खाना नहीं है, सम्मान की जिन्दगी जीने का कोई अवसर नहीं है वहीं हुक्मरान नयी विलासिता की तैयारी कर रहे हैं। देश की आजादी की लड़ाई के दौरान तमाम स्वप्न देखने वालों ने देश के भविष्य का जो स्वप्न देखा था जिसकी झलक हमें नेहरू के ट्रिस्ट विद डेस्टिनी में दिखती है, वह अब तक केवल जबानी लफ्फाजी ही सिद्ध हुई है।

एक अदने से वायरस ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की पोल खोल दी है। हुक्मरानों के मन का सारा कलुष पानी के ऊपर छितरायी विष्ठा सा हो चला है जो सर्वत्र गंदगी फैला रहा है। इसी बीच जो सबसे ज्यादा दुखद बात देखने में आ रही वह यह है कि एक बड़ा नागरिक समूह भी ऐसे व्यवहार करने लगा है जिसे किसी भी तरह से सहज और संवेदनशील नागरिक बोध के तहत उचित नहीं ठहराया जा सकता है।

सोशल मीडिया पर अगर हम गौर करें तो मिलेगा कि देश का तथाकथित मध्यम वर्ग खुलकर मजदूरों और निम्न तबके के खिलाफ आ गया है। मजदूरों के पलायन को सरकार के खिलाफ साजिश बताया जा रहा है। जिनके हाथों से शहर चमके उन्हीं को देशद्रोही और कोरोना बम के नाम से पुकारा जा रहा है और जुमले उछाले जा रहे हैं कि आखिर ये गाँव में आकर भला कौन सा तीर मार लेंगे। पेट भरे लोग खुलकर हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर एक पार्टी और नेता की चरण-चम्पुता करने में व्यस्त हो गये हैं और देश को असमंजस के मोड़ पर खड़ा कर दिया गया है।

गांधी की डेढ़ सौवीं जयंती का यह साल  भी गुजर जाएगा और आने वाला हीरक जयंती समारोह भी मना लिया जाएगा, पर इन सारे आयोजनों के बीच रोजी-रोटी, समता-समानता, गरिमापूर्ण जीवन के सपने शायद और दुष्कर होते जाएंगे क्योंकि एक समाज के तौर पर हम एक ऐसे वैचारिक वायरस का शिकार हो चुके हैं जिसका फिलहाल कोई इलाज नज़र नहीं आता।


About बिपिन पांडेय

पढ़ाई लिखाई गोरखपुर विश्वविद्यालय से, देश के अलग-अलग शैक्षिक संगठनों के साथ काम करने का अनुभव, यायावरी का शौक, देखना,समझना,लिखना-पढ़ना मुख्य काम । रहनवारी लखनऊ में...

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12 Comments on “गांधी की धरती पर सबसे बड़ी मानवीय त्रासदी और गांधी के विचारों का विस्मरण”

  1. सरकार की नीतियों पर करारा प्रहार करके आईना दिखाया है । बहुत खूब

  2. उम्दा लेखनी , पढ़ते वक्त कही भी बोरियत और बोझिल महसूस नहीं होता है, महात्मा गांधी जी के दत्तक और हस्तगत पुत्रो ने जी भर के उनके विचारों को मरघट तक पहुचाने का प्रयास किया, धन्यवाद बिपिन जी❤

  3. वर्तमान परिस्थितियों पर प्रकाश डालता यह आलेख बहुत अच्छा है।एक ओर तो गांधी की 150 वीं जयंती व गांधी के विचारों के वर्तमान समय में प्रासंगिकता की बात करते है वहीं तस्वीर कुछ अलग ही सामने आ रही है।

  4. आपके विचारों से सहमत हुआ जा सकता हैं गांधीवाद को धरातल पर लाने की महत्ति आवस्यता है

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