हिंदुत्व के एक अग्रणी विचारक के अनुसार भारतीय इतिहास के बौद्ध-काल ने इस देश और संस्कृति को कमज़ोर बनाया था, अहिंसा के विचारों के कारण। देश की सीमाओं की रक्षा के लिएजिस शूरवीरता और आक्रामकता की आवश्यकता थी, उसमें क्षीणता आ गयी थी – उनका यह मानना था। वे इस बात को अपनी सुविधा से भूल जाते हैं की अहिंसा की बात बुद्ध से पहले भी इस सभ्यता में हुई थी, उसी हिन्दू सभ्यता में जिसके गुणगान और सुरक्षा के लिए उनके सारे प्रयास हैं।
जिसे हम उपनिषद-काल कहते हैं, और जो बौद्ध-काल से पहले माना जाता है, उसमें वैदिक-काल के व्यापक-रूप के यज्ञों – यानी कर्म-योग – से परे हट केवल ज्ञान-योग के माध्यम से परम ज्ञान प्राप्ति की बात की जाने लगी। वैदिक ऋषि याज्ञवल्क्य का आत्मा-ज्ञान हेतु मंत्र था, “आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्य:” – यानी मुख्यत: प्रवचन सुनकर, और उस पर मनन-चिंतन एवं ध्यान लगा कर ही परम-ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। किसी युद्ध की, किसी दिग्विजय की, किसी अश्वमेध यज्ञ की आवश्यकता नहीं – केवल एक ज्ञानार्जन का मार्ग।
क्यों कर्म-काण्ड की विस्तृत प्रणालियों और पद्धतियों से एक संपूर्णतः अलग रास्ता सिखाया जाने लगा, इसके कारण इतिहास की परतों में छुपे हैं।
जो विशेष बात है बुद्ध-धम्म की है वह उसके मूलभूत अहिंसक आधार की है (जैन धर्म की तरह)। सर्वांगीण अहिंसा बौद्ध-मार्ग का अनिवार्य नियम था और है। जातक-कथाओं में राजा शिबि के परम-त्याग की कहानी अवश्य ही अतिशयोक्ति प्रतीत हो सकती है, लेकिन वह बुद्ध की देशना, उसके उपदेश से भिन्न नहीं है। कहते हैं कि तिब्बती बौद्ध बन्दियों ने प्रचंड यातना के बावजूद अपने अत्याचारियों के प्रति कोई भी नकारात्मक या हिंसक भावना न रखने की कोशिश करी।
इसकी तुलना में जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं, उसमें अहिंसा एक आदर्श-मात्र है, एक धर्म-निर्देश है – और वहीं तक अक्सर रह जाता है। अगर अहिंसा एक अडिग, अनिवार्य सिद्धांत होता तो शायद भगवद गीता में श्रीकृष्ण को अर्जुन से “तस्माद्युध्यस्व भारत” – हे भारतवंशी, युद्ध के लिए बढ़ो – न कहना पड़ता।
युद्ध में लड़ने के लिए किसी तर्क की आवश्यकता नहीं होती। उस स्थिति में अर्जुन के मन में कोई दुविधा नहीं होती की उसका धर्म क्या है। अगर अहिंसा ही परम-धर्म था तो मामला साफ़ था, पर श्रीकृष्ण को समझाना पड़ा कि जिसे अर्जुन हिंसा समझ रहे हैं, खासकर अपनों के प्रति, वह हिंसा है ही नहीं। तो प्रतीत होने वाली हिंसा वास्तव में अहिंसा ही है। और यह भी एक तथ्य था कि क्षत्रिय वर्ण चाहे युद्ध द्वारा ही क्यों नहीं, धर्म के पुनर्स्थापन के लिए स्वधर्मबद्ध है।
इसलिए जिस युद्ध में अर्जुन भाग लेने वाले हैं वह एक धर्म-युद्ध के रूप में ही देखा जाना चाहिए – किसी और तरह से उसका तात्पर्य और अर्थ नहीं ढूंढना चाहिए। इस तर्क को आत्म-तत्व के गूढ़ ज्ञान के माध्यम से उपदेशित किया जाता है, श्रीकृष्ण द्वारा बाकी गीता में। और इसी में धर्म-युद्ध का अंतर-विरोध है।
धर्म-स्थापना या कायम रखने के लिए एक ऐसे युद्ध में भाग लेना जो वास्तव में हिंसक नहीं है, ऐसा दावा करना – यही धर्म-युद्ध का औचित्य है, उसकी प्रामाणिकता है । अन्यथा युद्ध हिंसक होता ही है। महाराज अशोक ने अपने शिलालेखों में युद्ध से प्रभावित लोगों की गिनती करवा ही दी थी। इस प्रकार महाभारत के अंत में युद्ध-स्थल की मार्मिक छवि दर्शायी जाती है।
महात्मा गांधी ने भी गीता के धर्म-युद्ध को खुद के नज़रिये से देख कर इसे हरेक मनुष्य के अंतर-द्वन्द के रूप में समझा। नहीं तो महाभारत की जघन्य हिंसा का कोई सरल स्पष्टीकरण नहीं है। महाभारत की कहानी एक सूचक बन जाती है, एक स्व-शिक्षा और निजी-विकास की नीतिकथा, गांधीजी की व्याख्या में। इसी प्रकार की कहानियां वेद-साहित्य और पुराणों में भी हैं, देवासुर स्पर्धा के रूप में। किस प्रकार से देव – यानी सुर – और असुर दोनों हमारी ही प्रवृत्तियाँ हैं और अपनी आसुरी प्रवृत्तियों पर हमें जय पानी है – यह संदेश मिलता है। यहाँ भी एक हिंसक और कटु मुकाबले को सांकेतिक रूप से ही देखने को कहा जाता है।
पर जब तक अहिंसा का स्पष्ट और निरंतर कथन या व्याख्यान न हो, जब तक अहिंसा की सैद्धांतिक रूप से अडिग समझ न हो, तब तक हमें हिंसा में अहिंसा को ढूंढने का पेचीदा प्रयास होता दिखाई देगा।
आधुनिक समय में हमारे नेताओं ने बौद्ध-धर्म की वैश्विक आस्था और अनुसरण को अचम्भे और ईर्ष्या से देखा। उस जगत में भारत का स्थान पुनर्स्थापित करने के लिए गौतम बुद्ध और उनके उपदेश का पुनर-आविष्कार किया गया। यह उसी विचारधारा के अनुयायी नेता हैं जिसकी सोच रही है कि बौद्ध धर्म भारत के शौर्य में दुर्बलता का कारण था और बाद में उस दुर्बलता के फलस्वरूप देश को विदेशियों की गुलामी सहनी पड़ी।
इन नेताओं ने राजनीतिक कथन जारी किया की “भारत ने विश्व को बुद्ध दिया, युद्ध नहीं”। यह अपने आप में एक भ्रामक कथन है। संभव है की विश्व में भारत ने ऐतिहासिक रूप से हिंसा का कोई बहुत बड़ा प्रसंग न प्रदर्शित किया हो, पर यह कहना कि भारत ने हमेशा बुद्ध के अहिंसक रूप से अपने समाज और जीवन को नियंत्रित किया है, यह तो सरासर गलत होगा। एक ऐसा समाज जो वर्गीकरण, जाति-प्रथा और शोषण से ग्रस्त हो, जिसमें उसके संत-कवि एक बिना-ग़म के “बेगमपुरा” की कल्पना करें, वह समाज और सभ्यता कभी भी संपूर्ण रूप से अहिंसक नहीं कहलायी जा सकती।
हाल ही की खबर के मुताबिक, हमारे देश के सर्वोच्च नेता ने पाकिस्तान से युद्ध-विराम के वार्ता के दौरान कहा, “अगर बॉर्डर पार से गोली आएगी, तो भारत की तरफ से गोला प्रक्षेपित किया जायेगा।” ज़ाहिर है इस रुख में एक धर्म-युद्ध में शामिल होने की भावना है, एक धर्म-सांगत कर्त्तव्य की भावना है। इसमें सहिष्णुता, शांतिप्रियता से लबालब कोई विचार नहीं हैं।
कहते हैं महाभारत में भी संधि-सुझाव की चेष्टा पहले की गयी थी। उस चेष्टा की विफलता के उपरांत ही दोनों सेनाएं मैदान में उतरी थीं। लेकिन जिनके लिए अहिंसा केवल एक बहाना है या फिर उनकी समझ छिछली है, वह धर्म-युद्ध के दम्भ में लापरवाही से आगे की ओर बढ़ जाते हैं। और एक मुकाबले में भिड़ जाते हैं, बिना शांति, समझ या स्पष्टीकरण के न्यूनतम प्रयासों के।
परन्तु ऐसे युद्ध में सेना के मेहनतकश तबके से आये सैनिक ही शहीद होते हैं, सीमावर्ती इलाकों में रोज़मर्रा के व्यवसायी निशाना बनते हैं, और दैनिक मज़दूरों का जीवन अस्त-व्यस्त होता है। जो लोग यह बताना चाहते हैं कि वे धर्म की रक्षा के लिए कदम उठा रहे हैं, वह ही आम लोगों का नुकसान कर मानव-धर्म की अवहेलना करते हैं।