भारत में पिछले तीन दशक में कम से कम प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में लैंगिक समानता की बात लगातार देखने को मिलती रही है। इसके बावजूद यह कहते हुए दुख हो रहा है कि भारत पर प्यू रिसर्च सेंटर के द्वारा किये गए सर्वेक्षण के अनुसार ज्यादातर भारतीय लैंगिक असमानता को पहचानते हैं लेकिन इसे समस्या के रूप में नहीं देखते। जैसे 87 प्रतिशत (35 वर्ष से अधिक आयु की) महिलाओं का मानना है कि पत्नी को अपने पति की बात माननी चाहिए। 35 साल से कम उम्र की महिलाओं में यह प्रतिशत 84 है, हालांकि 19 प्रतिशत उम्रदराज महिलाएं इस बात से सहमत हैं कि परिवार में पुरुषों को खर्च के बारे में निर्णय लेने की मुख्य जिम्मेदारी होनी चाहिए। केवल 23 प्रतिशत महिलाएं सोचती हैं कि पुरुष तुलना में बेहतर राजनेता हो सकते हैं और बेटों को विरासत में ज्यादा हक़ की हिमायत करने वाली महिलाओं का प्रतिशत 34 रहा। लैंगिक नजरिये की बात पर आने पर उत्तर और दक्षिण भारत में लगभग समान स्थिति है।
कॉलेज में पढ़े लिखे 80 प्रतिशत भारतीय इस विचार से सहमत हैं कि पत्नियों को पतियों की आज्ञा माननी चाहिए और बेटों को बेटियों पर वरीयता देने में कोई दिक्कत नहीं है। इस रिपोर्ट से पितृसत्तात्मक व्यवहार के बारे में पता चलता है कि अभी लंबी लड़ाई लड़नी होगी। श्रमिकों के रूप में अर्थव्यवस्था में भागीदारी की महिलाओं की क्षमता में वृद्धि और सरकारी एवं निजी क्षेत्रों में निर्णायक भूमिका में महिलाओं की अधिक भागीदारी महिला स्वतंत्रता को अपने मुकाम पर पहुंचाएगी।
सवाल यह है कि यह करेगा कौन? एक एक्टिविस्ट के रूप में मुझे इस बात की खुशी है कि इलाहाबाद में- जो जनवादी कार्यकर्ताओं का मुख्य केन्द्र है- वहां पर ऐसी कई महिला एक्टिविस्ट हैं जिन्होंने सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में अपना एक अलग मुकाम बनाया है। उनके लिए शिक्षा केवल आर्थिक आत्मनिर्भरता का जरिया न रहकर ज्ञान प्राप्ति और समाज परिवर्तन का भी माध्यम बना। अपने ज्ञान का उपयोग उन्होंने नये समाज निर्माण और महिला स्वतंत्रता के कार्यों के लिए किया। ऐसी कुछ सम्माननीया महिला साथियों के साथ मुझे काम करने का मौका मिला है। आज उनके संघर्षों को सलाम करते हुए उनके कार्यों में कुछ संक्षिप्त जानकारी मैं आप लोगों के साथ साझा करना चाहूंगा।
सबसे पहले मैं गायत्री गांगुली जी का जिक्र करूंगा। वे हमारी वरिष्ठतम महिला साथी हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई तथा छात्र जीवन में ही सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों से जुड़ाव हो गया। 19 साल की अवस्था में ही पहली बार एसएफआइ की ओर से गायत्री गांगुली ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ का प्रकाशन मंत्री के रूप में चुनाव लड़ा, हालांकि 80 वोट से पराजित हो गयीं लेकिन नये जीवन की शुरुआत हो चुकी थी। एसएफआइ की लगातार तीन बार प्रदेश अध्यक्ष रहकर छात्र आंदोलनों के मोर्चे पर लगातार सक्रिय रहीं। तानाशाही और फासीवाद विरोधी मुद्दे पर पटना की तारकेश्वरी सिन्हा ने जब लखनऊ में कार्यक्रम रखा गायत्री गांगुली जी ने वहां प्रतिनिधित्व किया। 1985 में जब 500 भारतीयों का जत्था रूस में युवा महोत्सव के लिए गया तो आप 20 महिला सदस्यों में से एक थीं।
अन्य महिलाओं में प्रमुख तौर पर जिनका नाम लिया जा सकता है उनमें से एक बिछेन्द्री पाल और दूसरी पश्चिम बंगाल की वर्तमान मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी थीं। कांग्रेसी नेता आनंद शर्मा के नेतृत्व में इस प्रतिनिधिमंडल में गायत्री गांगुली जी ने वूमेंस मूवमेंट पर पांच पेपर का प्रजेंटेशन भी रूस में दिया था। छात्र आंदोलनकारी के रूप में फीस वृद्धि के मुद्दे पर आपने इलाहाबाद में जबरदस्त आंदोलन चलाया था। एक ऐसे समय में जब महिलाओं का घर से निकलना अपने आप में ‘आंदोलन’ था उस जमाने में आप एक साइकिल से घूम-घूमकर अपनी पार्टी का प्रचार करती थीं। इससे उनके जुझारूपन का पता चलता है। 1987 में कॉमरेड गांगुली ने ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक विमेंस एसोसिएशन के साथ काम करना शुरू किया। अंग्रेजी की शिक्षिका गायत्री गांगुली, जिनकी पहली नियुक्ति केपी इंटर कॉलेज, इलाहाबाद में हुई थी और बाद में अपनी मर्जी से दूसरी नौकरी केंद्रीय विद्यालय में शुरू की और चंद साल पहले रिटायर्ड हो चुकी हैं। उम्र के छठे दशक के पड़ाव पर स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझने के बावजूद गायत्री गांगुली जी उसी ऊर्जा के साथ आज भी सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे पर उसी ढंग से सक्रिय हैं जैसी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में छात्र नेता के तौर पर थीं।
इसके उदाहरण के तौर पर डेढ़ साल पहले इलाहाबाद के मंसूर अली पार्क में 100 दिन से अधिक सीएए-एनआरसी के खिलाफ चले आंदोलन का नाम लिया जा सकता है, जहां पर आप की सक्रियता लगातार बनी रही। विभिन्न मुद्दों पर लगातार चिंतन-मनन करना, चर्चा करना और फिर उसे जमीन पर उतारने की कोशिश करने वाली कॉमरेड गायत्री गागुंली कई युवाओं की प्रेरणा स्रोत हैं।
अब मैं एक ऐसी महिला का जिक्र करूंगा जिनसे आप सहमत हों या न हों। इलाहाबाद के सामाजिक कार्यकर्ताओं की आप बात करेंगे तो उनकी चर्चा किए बगैर नहीं रह सकते। डॉ. पद्मा सिंह का परिचय कई तरह से दिया जा सकता है। महिला आंदोलनकारी के रूप में पिछले चार दशक से सक्रिय सामाजिक तथा राजनीतिक कार्यकर्ता, हमीदिया मजीदिया कॉलेज, इलाहाबाद में रसायन शास्त्र की शिक्षिका के रूप में साथ ही एक ऐसे इंसान के रूप में जिनमे आप दोस्त से लेकर अभिभावक तक का रूप देख सकते हैं।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक तथा परास्नातक की डिग्री लेने वाली पद्मा दीदी ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से अपना शोध पूरा किया। अस्सी के दशक से कुछ पहले ही छात्रसंघ के चुनाव में आपने वाम राजनीति को समझा। आइसा (तत्कालीन PSO) से जुड़कर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में विभिन्न छात्र आंदोलन में भाग लेने वाली डॉ. पद्मा सिंह ‘स्त्री मुक्ति संगठन’ से जुड़कर अपने व्यक्तित्व को नया आयाम दिया और आज महिलाओं से जुड़े मुद्दे और डॉ. पद्मा सिंह एक-दूसरे के इतने करीबी पर्यायवाची हो चुके हैं कि उनकी अन्य सामाजिक राजनीतिक योग्यता कभी-कभी छिप सी जाती है। चौक चौराहे पर स्वाभाविक रूप से महिलाएं भी राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में जाने लगें, ऐसा सपना देखने वाली डॉ. सिंह इन सभी मुद्दों पर हमेशा सक्रिय रहती हैं। उम्र के छठे दशक में प्रवेश करने के बावजूद आप उनमें हमेशा युवा जोश देख सकते हैं। लैंगिक असमानता के मुद्दे को लगातार उठाने वाली डॉ. पद्मा सिंह की मुखरता से शुरूआत में मुझे उनसे बात करने में भी डर लगता था। करीब आने पर ऐसा महसूस हुआ कि वह अपने सहयोगी के साथ-साथ समाज के हर तबके के प्रति संवेदनशील रहती हैं। सांप्रदायिकता और फासीवाद की कट्टर विरोधी डॉ. पद्मा सिंह को कभी भी सामाजिक और राजनीतिक मुद्दे उठाने में किसी ‘हिचक’ के साथ नहीं देखा गया। यश-अपयश से परे डॉ. सिंह वैचारिक मतभेद होने पर भी कभी भी किसी से मनभेद नहीं रखा और आनेवाला अपना संपूर्ण जीवन समाज को देने के लिए इन्होंने समय से पहले रिटायर होने की योजना बनाई है।
महिला आंदोलनकारी को प्रगतिशील होना चाहिए और इसका उदाहरण प्रस्तुत करते हुए इन्होंने अंतर्जातीय विवाह किया जो अस्सी के दशक में एक महत्वपूर्ण बात थी। अक्सर ऐसा देखा जाता है कि सामाजिक कार्यकर्ता अपने बच्चों को इस तरह के संघर्षशील मानसिकता के प्रति सचेत नहीं रखते हैं और अपने कैरियर के प्रति ध्यान देने को कहते हैं, लेकिन एक बेटे तथा एक बेटी की मां डॉक्टर पद्मा सिंह ने इस धारणा को तोड़ते हुए अपने बच्चों को भी न्याय के लिए आवाज़ उठाने की सीख दी तथा दोनों बच्चे भी समाज के लिए मददगार साबित होते रहे हैं। इस सबका श्रेय वह स्त्री मुक्ति संगठन को देती हैं।
2007 में जब इलाहाबाद के एक मदरसे में मुस्लिम लड़कियों के साथ बलात्कार हुआ। उसके बाद उन्होंने दोषियों को सजा दिलाने की अतुलनीय लड़ाई लड़ी तथा उसके लिए स्थानीय दबंग नेताओं से भी टकराने में हिचक नहीं दिखाई। सड़क पर अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध सभा हो, फासीवाद के खिलाफ पर्चा बांटना हो या थाने में किसी मुद्दे पर आरोपियों के खिलाफ एफआइआर दर्ज कराना हो हम एक्टिविस्ट साथियों को फासीवादी भीड़ या पुलिस से बचाने का काम और ढाल के रूप सामने आकर अपने साहस का परिचय समय-समय पर वे देती रही हैं।
मैं जब आजादी बचाओ आंदोलन के महानायक डॉ. बनवारी लाल शर्मा को भारत को कॉरपोरेट्स से आजादी दिलाने के लिए किये गये संघर्ष को याद करता हूं तब मुझे अपनी जानकारी के अनुसार पद्माजी द्वारा जिस तरह महिलाओं को पितृसत्ता से आजादी दिलाने के लिए संघर्ष करती हैं, मुझे उनमें डॉ. शर्मा का अक्स दिखता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि समाज के लिए आपका योगदान अभी लगातार जारी रहेगा।
अब मैं हमारी तीसरी महिला साथी के रूप में उत्पला शुक्ला जी का जिक्र करूंगा। एक इंसान का इस तरह की गतिविधियों में लगातार सक्रिय रहना श्रमसाध्य माना जाता रहा है। उस पर भी अगर आप किसी अन्य जगह से पढ़ाई करने आए हों तो और मुश्किल होता है। बिहार के समस्तीपुर जिले की उत्पला जी 90 के दशक में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई करने आयीं तथा यहीं पर महिला हॉस्टल में रहने लगी और इनमें कुछ ऐसी चेतना जगी कि आज उन्हें एक महिला तथा सामाजिक कार्यकर्ता का जीवन बिताते हुए ढाई दशक से ऊपर हो चुके हैं। इन्होंने महिला कार्यकर्ता के रूप में शुरुआत ‘उम्मीद महिला मंच’ के माध्यम से किया। इस तरह के जीवन में इनका निखार तब हुआ, जब आप इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर इतिहासकार स्वर्गीय लाल बहादुर वर्मा के सानिध्य में आईं तथा ‘इतिहासबोध मंच’ के माध्यम से विभिन्न तरह के सांस्कृतिक तथा बौद्धिक गतिविधियों को अंजाम दिया। बाद में आपका जुड़ाव ‘महिला समाख्या’ नामक संगठन से भी हुआ। स्त्री मुक्ति संगठन के बैनर तले भी आपने कुछ काम किये और चंद दशक से इलाहाबाद के झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले समाज के अंतिम वर्ग की परेशानियों को अपनी परेशानी मानकर उनके सुख दुख में लगातार भागीदार रही हैं।
एक चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता (श्री अंशु मालवीय) की पत्नी होने के बावजूद आपने समाज में एक अलग मुकाम बनाया है। अपनी टीम के साथ झुग्गी झोपड़ी में रहने वाली महिलाओं के साथ अगर कहीं अन्याय हुआ तो उसके खिलाफ अंतिम क्षण तक लड़ाई लड़ी है। इस तरह के परिवार में प्रताड़ित पत्नी को न्याय दिलाने का काम अक्सर समय-समय पर आता रहा है और उसमें आप कभी पीछे नहीं हटीं।
पिछले एक दशक से आपकी टीम के द्वारा इलाहाबाद के संगम तट पर ‘सिरजन महोत्सव’ आयोजन किया जाता है तथा वहां पर बच्चों का एक ऐसा वर्ग जो समाज के अंतिम पायदान से आते हैं उन सभी बच्चों के साथ पांच दिन एक परिवार की तरह समय बिताया जाता है और वह बच्चे रचनात्मक गतिविधियों में भाग लेते हैं, उनमें से कुछ बच्चे अब जवान भी हो चुके हैं जिनकी रचनात्मकता एक मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चों से कम नहीं है। इस सांस्कृतिक चेतना को अपने अंतर्मन में बसा लेने का ही नतीजा है कि आप इनके घर में अपनत्व और लोकतांत्रिक व्यवहार देख सकते हैं।
अपने व्यवहार तथा सड़क पर संघर्ष कर समाज में चेतना जगाने वाली उत्पला जी इलाहाबाद जिले के एनटीपीसी पावर प्लांट के लिए भूमि अधिग्रहण के खिलाफ काफी लंबी लड़ाई अपनी टीम के साथ लड़ी। इस लड़ाई को मैंने भी एक सहयोगी साथी के रूप में नजदीक से देखा। धर्मनिरपेक्षता तथा साझी विरासत के पहरेदार के रूप में आपके प्रयासों की प्रासंगिकता निरंतर बढ़ती जा रही है।
मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल से आप लंबे समय से जुड़ी रही हैं। इलाहाबाद पीयूसीएल सचिव तथा उत्तर प्रदेश पीयूसीएल अध्यक्ष के तौर पर मानव के अधिकारों के प्रति आप हमेशा सचेत रही हैं। सीएए-एनआरसी प्रोटेस्ट के खिलाफ मंसूर अली पार्क, इलाहाबाद में किए गए लंबे आंदोलन को उपरोक्त दोनों साथियों की तरह आपने भी सक्रिय भूमिका निभाई।
उत्पला जी ने दो बच्चियों को गोद लिया और अपनी दोनों बेटियों को अभी कच्ची उम्र से ही रचनात्मकता और अंतर्मन में इस तरह की गतिविधियों को भरकर आप ने साबित कर दिया है कि बेटियां किसी से कम नहीं और लड़की हूं तो लड़ भी सकती हूं।
इनके अलावा मैं सुनीता शाह जी का जिक्र करूंगा। युवा अवस्था में ही सीपीआइ(एमएल) से जुड़कर आपने राजनीति का ककहरा सीखा और लगातार छोटे-बड़े आंदोलनों में भाग लेती रहीं। वाम राजनीति की समर्थक सुनीता जी जनपक्षधर मुद्दों को लेकर 2001 में जेल भी गईं। बाद में आपका जुड़ाव आइपीएफ से हो गया और आइपीएफ के बैनर तले आपने समाज को नई दिशा देने का प्रयास किया। वैचारिक प्रतिबद्धता को लेकर आप लगातार सचेत रहती है।
इनका एक अतुलनीय योगदान जो समाज की बौद्धिकता और समझ को बढ़ाने को लेकर है वह है ‘सबद’। आप प्रतियोगी परीक्षाओं के शहर में रहकर और उस क्षेत्र में रहकर जहां पर आप कमर्शियल दृष्टिकोण से प्रतियोगिता परीक्षाओं की किताबों की बिक्री करके लाभ कमा सकती हैं, लेकिन आपने सिद्धांत से समझौता करने से इंकार कर दिया और सबद में प्रतियोगी परीक्षा की किताब को रखना गवारा नहीं समझा।
अपने आप में एक ऐसी अनूठी जगह है जहां पर आप विभिन्न तरह की साहित्यिक, वैचारिक किताबें, पत्र-पत्रिकाएं प्राप्त कर सकते हैं। सबद का उद्देश्य केवल लोगों को बौद्धिक बनाना नहीं है बल्कि उससे भी आगे है क्योंकि संचालनकर्ता आंदोलनकारी है। लीक से हटकर जीवन जीने के अगर आप हिमायती हैं, तो वहां से आपको बौद्धिक खुराक और प्रेरणा अवश्य मिल सकती है। रोचक बात यह भी है कि आप अगर नए समाज के स्वप्नद्रष्टा हैं और उस तरह का साहित्य रखने के हिमायती हैं और अगर आपकी दुकान के बगल में इसी समाज को चलाने के लिए एलआइयू का ऑफिस भी बगल में हो, यह आपके नैतिक साहस और इच्छाशक्ति को दर्शाता है। दुनिया के विभिन्न देशों में जब लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन किया जाता है तो बचपन में सुना करता था कि फलां दंपत्ति को देश से निष्कासित कर दिया गया है और वह विदेश में शरण पाकर अपने देश में लोकतांत्रिक अधिकार की रक्षा के लिए लगातार प्रयासरत हैं। सुनीता शाह दंपत्ति या इस तरह के सपना देखने वाले लाखों लोग भले इस देश में रह रहे हैं लेकिन मुख्यधारा के समाज की जीवन शैली और मानसिकता से अपने अंतर्मन से निष्कासित होकर यह दंपत्ति जिस तरह कलम-किताब तथा सड़क पर अहिंसक लड़ाई लड़ रहा है यह देख कर क्रांति के प्रति आकर्षण होना स्वभाविक है। सांप्रदायिकता और फासीवाद के कट्टर विरोधी सुनीता जी को एवं हमारी अन्य महिला साथियों को महिला दिवस की शुभकामनाएं।