क्रिकेट की बदलती रीत या कॉर्पोरेट की पिच पर राष्ट्रवाद की जीत?


मैं सात-आठ साल का रहा होऊंगा जब से क्रिकेट में रुचि लेना शुरू कर दिया था। उस समय टेस्ट क्रिकेट में तीन दिन बाद रेस्‍ट डे हुआ करता था और फिर खिलाड़ी तरोताजा होकर दो दिन मैच खेलते थे। वन डे क्रिकेट में भी 250 रन का स्कोर विनिंग टोटल माना जाता था। हिंदुस्तान के लोगों की दिनचर्या भी उसी तरह मंथर गति से चलती थी। तब नब्‍बे का दशक लगभग आ चुका था। इस दशक में प्रवेश करने के साथ ही क्रिकेट में रेस्‍ट डे समाप्त कर दिया गया।

जैसे-जैसे उदारीकरण का दौर आया, लोगों की दिनचर्या बदलने लगी और वनडे क्रिकेट में भी पिच ऐसी बनायी जाने लगी जहां पर गेंदबाजों की भूमिका चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी वाली हो गयी। भागदौड़ की जिंदगी में क्रिकेट को भी रोमांचित करने के लिए बल्लेबाजों के मुफीद पिच बनायी गयी, नियम भी उसी हिसाब से बदले गए। परंपरागत समाज जिस तरीके से बदलने लगा ठीक उसी प्रकार क्रिकेट में भी अपरंपरागत खिलाड़ियों का जलवा दिखने लगा, जैसे मार्क ग्रेटबैच, सनत जयसूर्या, शाहिद अफरीदी, आदि। समाज में पैसा पहले से भी महत्वपूर्ण था, लेकिन अब पैसा कमाने के लिए नैतिकता को ताक पर रखा जाने लगा। ठीक उसी प्रकार क्रिकेट में भी वैसे प्लेयर को तरजीह दी जाने लगी जिसकी मास अपील थी। जो परंपरागत क्रिकेटर माने जाते थे उन्‍हें विज्ञापन कम मिलता था। फिर मैच फिक्सिंग होने लगी। कुछ खिलाड़ियों को सजा भी मिली, जैसे मोहम्मद अजहरुद्दीन, मनोज प्रभाकर, अजय जडेजा, हैंसी क्रोनिये, सलीम मलिक, अताउल रहमान आदि। पाकिस्तान के कुछ खिलाड़ी मैच फिक्स करने के बावजूद सजा की जद में नहीं आए, जैसे वसीम अकरम और वकार यूनुस।

कम समय में मौज मस्ती की चाहत वाले समाज के लिए इंग्लैंड द्वारा टी-20 क्रिकेट का ईजाद किया गया, लेकिन उसे कैश भारत ने किया।

भारतीय समाज का शहरीकरण होता जा रहा था, समय किसी के पास नहीं था और सभी को चकाचौंध भरा जीवन चाहिए था। उपभोक्ता बनने को सब आतुर थे। इस बीच वनडे क्रिकेट केवल रात में खेला जाने लगा। भारत में पहले क्रिकेट सर्दियों के मौसम में होता था और गर्मी के दिनों में खिलाड़ी या तो विदेश के दौरे पर होते थे या आराम करते थे। अब चिलचिलाती गर्मी में भी क्रिकेट होने लगा। कम समय में मौज मस्ती की चाहत वाले समाज के लिए इंग्लैंड द्वारा टी-20 क्रिकेट का ईजाद किया गया, लेकिन उसे कैश भारत ने किया। जिस तरह बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत की विशाल जनसंख्या को देखते हुए यहां के लोगों को केवल “उपभोक्ता” समझा ठीक उसी प्रकार आइसीसी और बीसीसीआइ ने टेस्ट क्रिकेट को बर्बाद और बदनाम कर भारत में आइपीएल रूपी 20-20 क्रिकेट को जन्म दिया। भारतीय जनमानस का मानसिक और आर्थिक शोषण कर बीसीसीआइ कॉरपोरेट बन गया और खिलाड़ी को भी पूंजी का पर्याप्त हिस्सा मिलने लगा। क्रिकेट कॉरपोरेट की चेरी बन गया।

जिस तरह उदारीकरण के बाद अमीरी और गरीबी के बीच खाई बढ़ती गई, ठीक उसी प्रकार से खिलाड़ी नीता अंबानी और शाहरुख खान के सामने हाथ बांधे खड़े नजर आए और ऐसा करने वाले भारत रत्न सचिन तेंदुलकर भी थे। जिस तरह भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में कोचिंग कल्चर के द्वारा गुरु शिष्य के संबंध को ग्राहक और दुकानदार में तब्दील कर दिया गया, ठीक उसी प्रकार आइपीएल ने टीम के मालिक और खिलाड़ी के संबंध को वैसा ही बना दिया। पैसे और चकाचौंध ने खिलाड़ी को अपने कब्जे में इस हद तक ले लिया कि विभिन्न देशों के स्थापित खिलाड़ी अपनी राष्ट्रीय टीम से संन्यास लेकर आइपीएल को तरजीह देने लगे, जैसे ब्रैंडम मैकुलम, एबी डी विलियर्स, लसिथ मलिंगा, डेल स्टेन, केविन पीटरसन, शेन वाटसन, आदि। क्रिस गेल ने तो खुलेआम टेस्ट क्रिकेट और वनडे क्रिकेट में राष्ट्रीय टीम का प्रतिनिधित्व करने से इंकार कर दिया। जिस तरह उदारीकरण के बाद भारतीय युवाओं का नैतिक और चारित्रिक पतन हुआ ठीक उसी प्रकार आइपीएल में भी मैच फिक्सिंग से लेकर शराब और शबाब के कॉकटेल देखने को मिले। भारत का ऐसा स्वरूप बन गया है जहां थोड़े से लोग संपन्न हों और बहुत बड़ी आबादी अभावग्रस्त जीवन व्यतीत कर रही हो। इसमें क्रिकेट ने अपनी भूमिका निभायी है। आइपीएल और वनडे क्रिकेट के नाम पर (अब तो टेस्ट क्रिकेट में भी) जिस तरह डे नाइट मैच में ऊर्जा खपत होती है उतनी ऊर्जा से किसानों की खेती-बाड़ी को सुविधा मुहैया करायी जा सकती थी।

जिस प्रकार इस बाजारवादी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के खिलाफ जनवादी सामाजिक संगठन संघर्ष कर रहे हैं ठीक उसी प्रकार इस बाजारू क्रिकेट के खिलाफ कुछ क्रिकेटर सामने आए हैं, जैसे अर्जुन राणातुंगा, स्टीव वा, सर गैरी सोबर्स आदि लेकिन जिस तरह भारत के दूषित होते लोकतंत्र के खिलाफ संघर्ष करने पर विभिन्न धाराओं में मुकदमे दर्ज होते हैं, कई तरह की प्रताड़ना झेलनी पड़ती है ठीक उसी प्रकार अर्जुन राणातुंगा को भी श्रीलंका क्रिकेट बोर्ड ने पद से हटा दिया।

आइपीएल ने टीम के मालिक और खिलाड़ी के संबंध को ग्राहक और दुकानदार में बदल दिया है

जिस प्रकार भारतीय राज व्यवस्था अपनी आर्मी, पुलिस, न्यायपालिका आदि के बल पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्रश्रय देते हुए नये समाज के निर्माण के प्रयासों को विफल करती रही है और विभिन्न सामाजिक संगठनों में समग्रता के अभाव, वैचारिक मतभेद और मनभेद के कारण भी यह काम करने में हम अब तक असफल रहे हैं, बावजूद इसके डॉ. बनवारी लाल शर्मा, कामरेड जिया भाई, धीरेंद्र मजुमदार आदि के सपनों का भारत बनाने के लिए अंतिम समय तक संघर्ष किया जाना चाहिए; ठीक उसी प्रकार सुनील गावस्कर, सौरव गांगुली, सचिन तेंदुलकर और महेंद्र सिंह धोनी जैसे महान क्रिकेटरों के बीसीसीआइ की गलत नीतियों के पक्ष में रहने के कारण क्रिकेट गंदगी से मुक्त नहीं हो पा रहा है और बिशन सिंह बेदी जैसे ईमानदार और स्पष्टवादी क्रिकेटर का क्रिकेट को शुचितापूर्ण बनाने का प्रयास असफल हो रहा है।

वैसे तो भारत में राष्ट्रवाद हमेशा क्रिकेट और युद्ध के ही मैदान में दिखता है और पिछले सात-आठ साल से जिस तरह भारत में तथाकथित राष्ट्रवादी सरकार आयी है इस जमाने में विरोधी टीम के क्रिकेटर का पक्ष लेना देशद्रोही माना जाने लगा है। यह बात सही है कि पाकिस्तान की जीत पर भारत में पहले भी पटाखे फूटते रहे हैं और जब हम पाते हैं कि दो राष्ट्र का बंटवारा होने के बावजूद एक दूसरे की रिश्तेदारी आज भी दोनों देशों में है और धर्म के नाम पर राजनीति करना, उनको बरगलाना और अपनी सियासी रोटियां सेंकना- यह सब आजादी के बाद से ही लगातार होता आया है तो हमें कोई आश्चर्य नहीं लगता। दूसरी बात, अगर इस तरह की गतिविधि हाल के दिनों में बढ़ी है तो हमें यह भी देखना होगा कि किस तरह एक धर्म विशेष को भारत में लगातार टारगेट किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में “चिढ़ाने वाले मोड” में आकर भी पटाखे फोड़े जाते हैं!

मेरी नजर में राष्ट्रवाद का पैमाना यह है कि आपके आसपास के समाज और पड़ोस में शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, भूख और भ्रष्टाचार से आम जनता को कितनी निजात मिली है! हमें हिंदू फासीवाद के साथ-साथ मुस्लिम कट्टरपंथ के खिलाफ भी लड़ाई लड़नी है। पटाखे फोड़ने के मूल जड़ में जाने से समस्या को निजात मिलेगा वरना भारतीय हुकूमत जर्मनी के 1930 के दशक की राष्ट्रवादी अवधारणा पर लगातार बल दे ही रही है।

उम्मीद की जानी चाहिए कि जिस प्रकार भारत की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक व्यवस्था कॉरपोरेट के चंगुल से मुक्त होगी, गांधी और नंबूदरीपाद के सपनों का भारत बनेगा, ठीक उसी प्रकार क्रिकेट में भी बल्लेबाज, तेज और स्पिनर गेंदबाज तीनों के लिए पि‍च में सब कुछ होगा और क्रिकेट बीसीसीआइ और आइसीसी के लिए “सोने का अंडा” देने वाली मुर्गी नहीं रह जाएगा; खिलाड़ी हार कर भी जब स्टेडियम से बाहर आएंगे, उनके लिए भी उतनी ही ताली पीटी जाएगी जितनी जीतने वाले खिलाड़ी के लिए। आज हकीकत ये है कि क्रिकेट में कोई भी देश हारे, जीतता केवल कॉरपोरेट है।


लेखक जिला सचिव, पीयूसीएल, इलाहाबाद हैं


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