हिन्दी दिवस के मौके पर अपने इस स्तंभ में इतिहास के कुछ ऐसे हर्फों का जिक्र जरूरी समझता हूं जिससे हिन्दी के विकास पर कुछ चर्चा हो जाए। जानकार शोधार्थी हिन्दी को हजार साल पुरानी भाषा बताते हैं। 1300 ईस्वी के आसपास जब दिल्ली सल्तनत की नींव पड़ी, इसे हिन्दी का प्राचीन युग या पूर्व भारतेन्दु युग कहते हैं। तुर्की हमलावरों की फौजें जब हिंदुस्तान पर हमला करते हुए आगे बढ़ती थीं तब उनके खाने-पीने और जरूरी सामान के लिए बाजार लगते थे। इन्हें उर्दू बाजार कहा जाता था। तुर्की में फौज को ओर्दू कहा जाता है, इसी ओर्दू से उर्दू बना। इन्हीं बाजारों में स्थानीय भाषा बोलने वाले व्यापारियों की तुर्की-अरबी सैनिकों के साथ बातचीत से हिन्दी के शब्द बनते चलते गए जिन्हें आज हम बोलते हैं।
कुछ अरबी-फारसी-संस्कृत और स्थानीय शब्दों से मिलकर हिन्दी तैयार हुई जिसका उत्तरोत्तर विकास हुआ। दिल्ली सल्तनत के बाद मुगलों की सत्ता कायम होते-होते हिन्दुस्तान, खासकर उत्तर भारत में हिन्दी बतौर भाषा स्वीकार्य हो गयी थी लेकिन शासन में अरबी-फारसी लिपि ही रही, सो दरबार-ए-खास की भाषा को उर्दू कहा गया जिसमें स्थानीय बोली के शब्द कम थे और आमफहम की भाषा हिन्दी बनी जिसमें बोलचाल के शब्द ज्यादा रहे। बाबर और हुमायूं की भाषा तुर्क थी लेकिन अकबर ने अपने शासनकाल में फारसी को महत्व दिया।
चूंकि दिल्ली सल्तनत और मुगल सल्तनत दशकों तक हिन्दुस्तानी राजाओं और उनकी अवाम पर हावी रही इसलिए देवनागरी पीछे चली गयी और फारसी काबिज हो गयी। भाषा के मामले में अरबी-फारसी से बनी उर्दू और अरबी लिपि ही सत्ता शासन और इलीट यानी भद्र लोगों की भाषा थी जबकि हिन्दी गंवारों और जनता की भाषा थी। अलबत्ता अकबर के काल में हिन्दुओं को मकतबों में प्रवेश मिला जिससे हिन्दू भी अरबी फारसी तुर्की सीख गए।
सल्तनते तैमूरिया में जिस तरह से देवनागरी को दबाया गया उसकी प्रतिक्रिया होनी ही थी। मुर्शिदाबाद के नवाब और फिर अवध के नवाबों के दरबार उखड़ने के साथ उर्दू से हिसाब-किताब बराबर करने के लिए हिन्दी मैदान में उतरने लगी। गदर के बाद 1860 में इंडिया एक्ट लागू हुआ और भारत में शासन सत्ता का वर्चस्व मुस्लिम शासकों के हाथों से निकलकर क्वीन विक्टोरिया के हाथों में चला गया। ऐसे में इस्लामिक शासन में भाषा के आधार पर बने इलीट क्लास की सबसे ज्यादा आफत थी। अंग्रेजों ने उन हिन्दुओं को अपनी तरफ करना शुरू कर दिया जो अरबी फारसी हिन्दी के साथ अंग्रेजी सीखने में भी आगे निकले।
इससे पहले 1833 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने कंपनी के कार्य के लिए फारसी भाषा को ही अपनाया था। जाहिर है तब फारसी ही शासकीय भाषा थी। 1837 में फारसी को हटाकर उर्दू को अपना लिया गया क्योंकि फारसी-अरबी स्थानीय भाषा से मिलकर हिन्दी हो गयी थी। हिन्दी-उर्दू बोलचाल की भाषा थी और अंग्रेज इससे आम लोगों से जुड़ने में सहज थे। अंग्रेजों ने भी एकतरफा कुछ नहीं किया- हिन्दुओं और मुसलमानों में जबरदस्त प्रतिस्पर्धा को बनाए रखा। अंग्रेजों ने सैयद अहमद को सर के खिताब से नवाजा तो बनारस के मीर मुंशी शिवप्रसाद को राजा की पदवी दी। दोनों ने मुसलमानों और हिंदुओं को अंग्रेजी शिक्षा की तरफ प्रेरित किया लेकिन सर सैयद अहमद हर मामले में आगे रहे क्योंकि उन्हें तब के अभिजात्य वर्ग का समर्थन प्राप्त था।
शिवप्रसाद बाबू सामाजिक तौर पर बहिष्कृत किए जाते रहे क्योंकि वे अंग्रेजों के पक्षधर थे। यहां तक कि उनके शिष्य़ भारतेन्दु हरिश्चंद्र का गुट भी उन्हें सरकारी मुलाजिम कहकर खारिज करता रहा। मीर मुंशी शिवप्रसाद अंग्रेजों के स्कूल इंस्पेक्टर के तौर पर काम करते रहे और हिन्दी देवनागरी को उर्दू के खिलाफ शासन सत्ता के लिए सहज बनाते रहे, इधर भारतेन्दु साहित्यिक चर्चा में हिन्दी देवनागरी के विकास पर मंडली जुटाते रहे। मुस्लिम वर्ग ने नयी शिक्षा पद्धति में हिन्दी की पढाई का घोर विरोध किया। उनका तर्क था कि जब अदालती कामकाज उर्दू में ही हो रहा है तो एक और भाषा का बोझ डालने से क्या लाभ (हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल)।
राजा शिवप्रसाद को काफी संघर्ष करना पड़ा, लेकिन जल्दी ही उन्हें राजा लक्ष्मण सिंह का साथ मिला। राजा साहब हिन्दी को आसान बनाने के लिए मैदान में उतरे- पं. श्रीलाल, पं. वंशीधर, राजा लक्ष्मण सिंह जैसे बहुत से मित्रों को सरल और सहज बोलचाल की हिन्दी में किताबें लेख लिखने को उन्होंने प्रेरित किया। अंग्रेजी शिक्षा की पाठ्यपुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद किया ताकी हिन्दू छात्रों को हिन्दी में पढ़ाने की व्यवस्था हो। राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द की हिन्दी ठीक वही है जो आज हम लोग प्रयोग में लाते हैं। शुद्ध हिन्दी को उन्होंने 1860 में ही खारिज कर दिया था।
आखिर में उस घटना का जिक्र जिसका इतिहास में कोई महत्व नहीं लेकिन आचार्य रामचंद्र शुक्ल जिसकी भीनी-भीनी तारीफ करते हैं। 1868 में अंग्रेजों को शिवप्रसाद बाबू ने पहला मेमोरेंडम दिया था कि अदालती कामकाज में फारसी लिपि की जगह देवनागरी लिपि को स्वीकार किया जाए। सात पेज में लिखा ”कोर्ट कैरेक्टर इन दी अपर प्रोविंस ऑफ इंडिया” मेमोरेंडम हिन्दी और देवनागरी के वर्तमान की बुनियाद है। इस मेमोरेंडम में लिखा है:
सरकार की इस नीति को विवेकपूर्ण नहीं माना जा सकता जिसने हिंदुओं के बीच सामी तत्वों को खड़ा कर उन्हें अपनी आर्यभाषा से वंचित कर दिया है; न सिर्फ आर्यभाषा से बल्कि उन सभी चीजों से जो आर्य हैं क्योंकि भाषा से ही विचारों का निर्माण होता है और विचारों से प्रथाओं तथा दूसरे तौर-तरीकों का। फारसी पढ़ने से लोग फारसीदाँ बनते हैं। इससे हमारे सभी विचार दूषित हो जाते हैं और हमारी जातीयता की भावना खत्म हो जाती है। पटवारी आज भी अपने कागज हिंदी में ही रखता है। महाजन, व्यापारी और कस्बों के लोग अब भी अपना सारा कारोबार हिंदी में ही करते हैं। कुछ लोग मुसलमानों की कृपा पाने के वास्ते अगर पूरे नहीं, तो आधे मुसलमान जरूर हो गए हैं लेकिन जिन्होंने ऐसा नहीं किया, वे अब भी तुलसीदास, सूरदास, कबीर, बिहारी इत्यादि की रचनाओं का आदर करते हैं। इसमें कोई शक नहीं कि हर जगह, हिंदी की सभी बोलियों में फारसी के शब्द काफी पाए जाते हैं। बाजार से लेकर हमारे जनाने तक में, वे घर-घर में बोले जाते हैं। भाषा का यह नया मिला-जुला रूप ही उर्दू कहलाता है। मेरा निवेदन है कि अदालतों की भाषा से फारसी लिपि को हटा दिया जाए और उसकी जगह हिंदी लिपि को लागू किया जाए।
इसके बाद 1897 में मदन मोहन मालवीय के नेतृत्व में ब्रिटिश सरकार को एक और मेमोरेंडम ”कोर्ट कैरेक्टर्स एंड द प्राइमरी एजुकेशन इन द नॉर्थ वेस्ट प्रॉविंस एंड औध” दिया गया। यह 165 पेज का था जिसमें राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द के मेमोरेंडम को पूरी तरह से कोट किया गया था। 1 जनवरी 1900 को अंग्रेजी हुकूमत ने अदालती कामकाज में हिन्दी देवनागरी को भाषा के तौर पर स्वीकार्य कर लिया।
शिवप्रसाद बाबू ने हिन्दी को फारसी के ऊपर स्थापित करने के लिए बड़ा त्याग किया। उस वक्त जब मुस्लिम हिन्दी के खिलाफ थे और हिन्दू-मुसलमान अंग्रेजों के खिलाफ, तब 1883 में उन्होंने अंग्रेज अधिकारियों का समर्थन प्राप्त करने के उद्देश्य से अलबर्ट बिल का विरोध तक किया जिसके बाद उन्हें प्रगतिशील हिंदुओं और मुसलमानों की तरफ से काफी बुरा भला भी कहा गया लेकिन शिवप्रसाद बाबू को पता था कि वह खुद अपयश लेकर एक बड़े परिवर्तन की नींव रख रहे हैं।
1887 में लार्ड मेयो ने उन्होंने इंपीरियल काउंसिल का सदस्य मनोनीत कर दिया। मुस्लिम अभिजात्य वर्ग के खिलाफ हिंदुओं की प्रतिक्रिया भारत का सामूहिक इतिहास भले ना हो लेकिन हिन्दी का विकास फारसी उर्दू की प्रतिक्रियास्वरूप जरूर है। इससे इंकार करना इतिहास की सही व्याख्या के साथ बेईमानी होगी।