कोई तीन साल पहले हरियाणा में दिये योगेंद्र यादव के एक भाषण को कुछ दिनों पहले पत्रकार अजय कुमार ने फेसबुक पर साझा किया था। संस्कृति की राजनीति पर केंद्रित यह भाषण यादव ने हरियाणा सृजन उत्सव में 23-25 फरवरी, 2018 के बीच दिया था। इसे बाद में देस हरियाणा नाम की वेबसाइट ने प्रकाशित किया। प्रासंगिकता और महत्व के आलोक में यह भाषण थोड़े संपादन के साथ जनपथ पर साभार दोबारा प्रकाशित किया जा रहा है।
संपादक
पिछले कई साल से मैं राजनीति की सांस्कृतिक जमीन के बारे में सोचता रहा हूँ। और सीधे-सीधे कहूँ तो मैं समतामूलक, प्रगतिशील या जनपक्षीय राजनीति के सांस्कृतिक पहलू के बारे में सोचता रहा हूँ। उससे जो कुछ मन में आया वो आपके सामने रखना चाहता हूँ। इन्हें आप सुझाव भी कह सकते हैं या आत्मालोचना भी।
सृजन और सांस्कृतिक कर्म एक व्यापक सामाजिक संदर्भ में होता है जिसका धरातल राजनीति तय करती है। आज इस देश में यह संदर्भ बहुत भयावह है। मेरी चिंता यह है कि आज भारत का स्वधर्म खतरे में है। जिसे भारत का सपना कहा जाता है, और बहुत से मित्र जिसे अंग्रेजी में “आइडिया ऑफ इंडिया” कहते हैं, उसे मैं अपने शब्दों में भारत का स्वधर्म कहता हूँ। आज हम जिस जमीन पर खड़े होकर ये बातें कर रहे हैं, आज यह जमीन हिलती दिखाई दे रही है। यह खतरा किसी एक सरकार से नहीं है और न ही किसी एक पार्टी से। यह खतरा बहुत गहरा है।
एक जमाने में जब मैं पॉलिटिकल थ्योरी पढ़ता था, तो इटली के मार्क्सिस्ट एंटोनियो ग्राम्शी को बहुत चाव से पढ़ता था। ग्राम्शी कहते थे कि पूंजीवादी सत्ता की ताकत केवल राजसत्ता के डंडे के बल पर नहीं चलती है। उसकी असली ताकत है सांस्कृतिक वैधता। पूंजीवाद जिन पर राज कर रहा है उनको यह समझा देता है कि तुम्हारे साथ जो कुछ हो रहा है, वह सब जायज हो रहा है, कुछ गलत नहीं हो रहा है। ग्राम्शी ने बताया कि जो शोषक है वो शोषित पर सिर्फ बलप्रयोग से राज नहीं करता, वह उसके मन पर भी राज करता है, उसके दिलो-दिमाग पर भी राज करता है। उन्होंने इस प्रक्रिया को “हेजेमनी” का नाम दिया है, जिसे हम हिंदी में “वर्चस्व” कहते हैं, हालांकि वर्चस्व उसका सही अनुवाद नहीं है। यह शब्द जोर-जबरदस्ती और हिंसा का ही आभास देता है। आम जनता के दिलो-दिमाग पर गहरी जकड़ का भाव इसमें नहीं आता है।
आज भारत पर जो खतरा है, भारत के स्वधर्म पर जो खतरा है, वह कुछ “हेजेमनी” वाला मामला है। वह खतरा सिर्फ एक सत्ताधारी पार्टी का खतरा नहीं है, सिर्फ एक सरकार का खतरा नहीं है। बेशक, जो लोग इस देश की बुनियाद को हिलाना चाहते हैं वे गुंडागर्दी भी कर रहे हैं, वर्दीधारियों की हिंसा का भी सहारा ले लेते हैं, लेकिन असली ख़तरा यह है कि वे जनमानस के ज़ेहन का हिस्सा बनते जा रहे हैं। ख़तरा इस बात का है कि जो संस्कृति की बुनियाद है, जिसे हम लोक संस्कृति कहते हैं, उसमें ज़हर घोलने की साजिश की जा रही है। ख़तरा इस बात का है कि जनमानस में कई ऐसे विचार अपनी जड़ बना रहे हैं जो भारत के स्वधर्म के उलट हैं, लोकतंत्र की बुनियाद को लोकमत के उखाड़ा जा रहा है।
मुझे ये खतरा कोई पच्चीस साल पहले समझ आया था। मैं उन दिनों (1992) पंजाब यूनिवर्सिटी में पढ़ाता था और चण्डीगढ़ के किनारे डड्डूमाज़रा नामक बस्ती में रहता था। उस वक़्त वहाँ कोई संभ्रांत व्यक्ति तो छोड़िए, निम्न-मध्यम वर्ग भी रहना पसंद नहीं करता था। मेरे ऑफिस के क्लर्क भी वहाँ नहीं रहना चाहते थे। हाँ, यूनिवर्सिटी के सफ़ाई कर्मचारी वहां जरूर रहते थे। बस्ती के लोग बड़े खुश होते थे कि एक पढ़े-लिखे प्रोफेसर साहब हमारे पड़ोस में रहते हैं। छह दिसंबर को बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना हुई। पाँच दिसंबर तक मैं भी उन मूर्ख लोगों में शामिल था जो यह मानते थे कि कुछ नहीं होना है, यह भी एक नाटक है। मेरा तो यहाँ तक सोचना था कि छह दिसंबर को संघ परिवार वालों ने अगर सचमुच विध्वंस कर दिया तो इनकी दुकान ही बंद हो जाएगी। इसलिए मैं निश्चिंत था कि एक और ड्रामा करके ये अपने घर चले जाएंगे, लेकिन जब देखा कि सचमुच उन्होंने बाबरी मस्जिद को तोड़ दिया है तो मुझे डर लगा कि अब तो देश में आग लग जाएगी और हमारे सपनों का भारत बिखर जाएगा।
मैं आमतौर पर भावुक नहीं होता, लेकिन उस दिन मैं फूट-फूट कर रोया। शहर में कर्फ्यू था, लेकिन नाममात्र का। मेरे पड़ोस में एक तरफ तांगेवाला परिवार रहता था और एक घर छोड़कर दूसरी तरफ़ का परिवार सूअर पालने का काम करता था। मैं उनके पास गया और बोला कि देखिए देश में क्या हो रहा है। उन्होंने मेरी बात सुनी और बोले कि प्रोफेसर साहब बात तो आपकी ठीक है, लेकिन एक बात बताओ, अगर रामजी का मंदिर अयोध्या में नहीं बनेगा तो क्या इंग्लैंड में बनेगा? मेरे दिमाग में संविधान, सुप्रीम कोर्ट, लिबरलिज्म की शब्दावली झनझना रही थी। और उन्होंने सहज ही कह दिया कि रामजी का मंदिर यहां नहीं बनेगा तो कहाँ बनेगा? तब मुझे समझ आया कि मेरी भाषा, मेरे मुहावरे, मेरे तर्क यहाँ काम नहीं करेंगे।
उन दिनों मैं जनसत्ता पढ़ता था। अगले दिन उसके मुखपृष्ठ पर प्रभाष जोशी जी का सम्पादकीय आया, जिसका शीर्षक कुछ यूं था “मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नाम पर कलंक”। वह आधे पेज का संपादकीय था जिसमें उन्होंने एक सामान्य धर्मपरायण हिन्दू से संवाद करते हुए लिखा था कि भगवान राम ने क्या किया और उनके नाम पर यह संघ वाले क्या कर रहे हैं। जहाँ तक याद पड़ता है, पूरा लेख मर्यादापुरुषोत्तम भगवान राम की बात करता था और बताया था कि कल जो हुआ वह भगवान राम के आदर्शों के अनुसार नहीं था बल्कि भगवान राम के नाम पर छल-कपट की गई। उस लेख को पढ़कर मुझे जैसे वाणी मिल गई। मैंने उस लेख की डेढ़ सौ जेरोक्स कॉपी कराई और लोगों में बांटी। ऐसा तो नहीं कि अचानक सब कुछ बदल गया, लेकिन मुझे अपनी बात कहने की भाषा मिल गयी, एक संवाद का रास्ता खुल गया।
तब मैंने सोचना शुरू किया कि हम लोग जो अपने आप को प्रगतिशील कहते हैं, सेकुलर कहते हैं, उदारवादी कहते हैं या वामपंथी कहते हैं, हम जिस भाषा में बात करते हैं, जिस मुहावरे में बात करते हैं, उसमें कहीं न कहीं गड़बड़ है। हमारी भाषा हमें जनमानस से जोड़ने का काम नहीं कर पा रही है। और सोचने पर महसूस हुआ कि मामला सिर्फ भाषा और मुहावरे का नहीं है, हमारी बुनियादी सोच में खोट है। हमारी सोच, हमारी अवधारणाएं और हमारे सिद्धांत सब एक यूरोपीय अनुभव की पैदाइश हैं और कहीं न कहीं उसी खांचे में कैद हैं। समतामूलक राजनीति को एक देशज विचार की जरूरत है। इसी सोच के साथ मैंने 1993 में इकनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली में एक लेख लिखा था ‘टुवर्ड्स एन इंडियन एजेंडा फॉर द इंडियन लेफ़्ट’ यानि ‘भारत का वामपंथ भारतीय कैसे बने’। आज के संदर्भ में जब मैं देखता हूँ तो मुझे लगता है कि 25 साल पहले अगर हमने ये बात समझ ली होती कि भारत की जनता से उसकी भाषा में संवाद कैसे करना है तो आज स्थिति ऐसी ना होती जैसी अब है।
हमारी इस विफलता का परिणाम यह है कि भारतीयता, संस्कृति और हिंदुत्व के नाम पर आज भारत के स्वधर्म की हत्या हो रही है। हमारी ऐतिहासिक लापरवाही है जिसके चलते गुंडई का साम्राज्य है, जिसके चलते आये दिन सड़क पर हत्या हो रही है और सारा देश टुकुर-टुकुर देख रहा है। मैं इस स्थिति के लिए उन लोगों को दोष नहीं देता जो बड़ी-बड़ी कुर्सियों पर बैठे इस हमले को शह दे रहे हैं। एक दुकानदार को क्या दोष दें कि उसने मुनाफा कमाया, एक पॉकेटमार की क्या शिकायत करें कि उसने पॉकेट पर हाथ मारा। दोष तो अपने आपको ही देना होगा। सवाल तो अपने आप से पूछना होगा, हम पिछले 25 साल से क्या कर रहे हैं? जिन्हे नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं?
मैं समझता हूं कि हम सब लोग अपराधी हैं क्योंकि 1992 में खतरे की घंटी बजने के बाद भी हमने वह काम नहीं किया जो हमें करना चाहिए था। ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वाले लोग जो नफ़रत का व्यापार करते हैं वे 92 साल से जनता के बीच जा रहे हैं, उनके बीच काम कर रहे हैं, ज़हर फैला रहे हैं, लेकिन देखिए तो कितनी शिद्दत से फैला रहे हैं। कुछ तो उनसे सीख लें हम। हम नब्बे साल छोड़िए नब्बे महीने तो लगाएं, जनता के बीच जाएँ, सर झुका के गालियां सुने, फिर प्यार से कुछ अपनी बात भी सुनाएँ, कुछ सीखें, कुछ सिखाएं। हम अपराधी हैं कि हमने जनमानस के धरातल पर वो काम नहीं किया जो हमें करना था। अगर हम वो काम आज भी शुरू कर दें तो हमें जनमानस को जीतने में उतना समय नहीं लगेगा जितना संघ वालों को लगा। वजह ये है कि नफरत का बीज यूरोप का इम्पोर्टेड माल है, इस देश की मिट्टी के लिए बना नहीं है। हमें तो फिर उस पौधे को रोपना है जो गंगा-जमुना के मैदान में पांच हज़ार साल से उगता रहा है।
हमारे तीन बड़े अपराध हैं जिन पर मुझे कुछ कहना है। पहला अपराध है राष्ट्रवाद की विरासत की उपेक्षा। भारतीय राष्ट्रवाद की सच्चाई और गहराई को समझे बिना हमने आज़ादी के बाद राष्ट्रवाद के मुहावरे से कन्नी काटनी शुरू कर दी। ये एक ऐतिहासिक भूल थी। दुनिया में दो तरह के राष्ट्रवाद हुए हैं— एक यूरोपीय महाद्वीप को जातीय, नस्ली और भाषायी आधार पर बांटने और राष्ट्र-राज्यों में पुनर्गठित करने वाला राष्ट्रवाद और दूसरा औपनिवेशिक सत्ता से संघर्ष कर आज़ादी हासिल करने वाला राष्ट्रवाद। पहला राष्ट्रवाद तोड़क है— यह ठहराव में पैदा होता है, अंतर्मुखी और संकीर्ण भाव रखता है और उसकी ऊर्जा विदेशी शक्ति और घर के ‘बाहरी’ लोगों से लड़ने में खर्च होती है। दूसरा राष्ट्रवाद जोड़क है— आंदोलन से पैदा हुआ, सतत आंदोलित करता रहा, औपनिवेशिक सत्ता से लड़ते हुए दुनिया भर के साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलनों से जुड़ा, और उसकी मुख्य ऊर्जा एक बिखरे समाज को राष्ट्र-राज्य में जोड़ने में लगी। अगर जर्मनी पहले राष्ट्रवाद का मॉडल है तो भारत दूसरे किस्म के राष्ट्रवाद का।
वैसे भी अगर बीसवीं सदी के दो महान आंदोलन हुए हैं तो उनमें एक भारत का राष्ट्रीय आंदोलन था तो दूसरा दक्षिणी अफ्रीका का रंगभेद विरोधी आंदोलन। इन दो महान आंदोलनों में से एक के वारिस हम हैं। ये वो राष्ट्रवाद है जिसकी मुख्यधारा जिसने हमेशा संकीर्ण और तोड़क प्रवृति को ख़ारिज किया, जिसने अंदरूनी कमजोरियों पर खुल कर बहस की। ये वो राष्ट्रवाद है जिसमें एक बार भी नस्ली श्रेष्ठता का पुट नहीं आया। ये वो राष्ट्रवाद है जिसमें टैगोर और गांधी खुलकर इस बात पर बहस कर सकते हैं कि राष्ट्रवाद का विचार स्वस्थ है या नहीं। टैगोर राष्ट्रवाद को खारिज करते हुए किताब लिख सकते हैं, गांधी को लिख सकते हैं कि तुम संत आदमी किस संकीर्णता में फंस गए हो और उसी टैगोर के गीत को हम राष्ट्रगान मान लेते हैं। ये वो राष्ट्रवाद है जो अपने राष्ट्रगान में “पंजाब सिंध गुजरात मराठा, द्राविड़ उत्कल बंग” का जिक्र कर सकता है। अपनी विविधता को छुपाने की जरूरत नहीं समझता, बल्कि खुलकर सामने रखता है। ये कोई जर्मनी, इटली या फ़्रांस का राष्ट्रवाद नहीं है, यूरोप का एकरूपक राष्ट्रवाद नहीं है। इस राष्ट्रवाद ने हमें अफ़्रीका से जोड़ा, लैटिन अमेरिका से जोड़ा, बाकी एशिया से जोड़ा, इसने हमें चीन के साथ जोड़ा।
आज़ादी से पहले हमारे नेता और बौद्धिक इस अंतर से वाकिफ थे, लेकिन आज़ादी के बाद का हमारा बुद्धिजीवी राष्ट्रवाद की इस सकारात्मक विरासत से कटने लगा। अपने राष्ट्रवाद को समझे बगैर यूरोप के प्रगतिशील लोगों की तर्ज़ पर हमने भी अपने राष्ट्रवाद से कन्नी काट ली। यूरोप में आज भी अगर किसी राजनीति को गाली देनी हो तो उसे ‘नेशनलिस्ट’ कहा जाता है। यूरोप में नेशनलिस्ट पार्टी वो कहलाती है जो अपनी नस्ली और सांस्कृतिक श्रेष्ठता में विश्वास करे, बाहरी दुनिया और अपने भीतर ‘बाहरी’ अप्रवासी लोगों के खिलाफ द्वेष और हिंसा की राजनीति करे। हमारे बुद्धिजीवियों ने भी इस परिभाषा को आत्मसात कर लिया। जैसे-जैसे साठ और सत्तर के दशक में राष्ट्रवाद की भाषा का दुरुपयोग होने लगा, हर बात में विदेशी हाथ दिखाया जाने लगा, वैसे-वैसे हमारे बुद्धिजीवी राष्ट्रवाद से विमुख होने लगे। राष्ट्रवाद का दुरुपयोग रोकने की बजाय राष्ट्रवाद से संकोच करने लगे, ठीक वैसे ही जैसे पश्चिमी बुद्धिजीवी करते हैं।
पिछले दस-पंद्रह साल में समाज विज्ञान और मानविकी (ह्यूमैनिटीज) में उत्तर-राष्ट्रवाद (पोस्ट-नेशनलिज़्म) का फ़ैशन चला मानो हम एक बहुत ही निकृष्ट विचारधारा से ऊपर उठ गए। बेशक, कश्मीर में, नगालैंड में, बस्तर में जो कुछ हो रहा था उसका सच बोलने के लिए एक नयी भाषा चाहिए थी, लेकिन इसके लिए पोस्ट-नेशनलिस्ट होने की आवश्यकता नहीं थी। इस सच को स्वीकार करने के लिए हमारे राष्ट्रवाद की विशद विचारधारा ही पर्याप्त थी। राष्ट्रवाद को छोड़ देने का नतीजा हमारे सामने है। आज इस विरासत पर उन लोगों का कब्ज़ा है जिन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान मुखबिरी का काम किया था, जिन्होंने इस देश की आज़ादी के लिए एक कतरा खून भी नहीं बहाया था। अगर यूरोपीय राष्ट्रवाद की घटिया नक़ल की घुट्टी आज भारतीय राष्ट्रवाद के नाम पर पूरे देश को पिलाई जा रही है तो उसके लिए हम सब जिम्मेवार हैं।
दूसरी बड़ी भूल है भारतीय परम्परा और संस्कृति का तिरस्कार। आधुनिकतावादी मानस की तर्ज़ पर हमने भी मान लिया कि आधुनिक होने के लिए हमें परंपरा के हर अवशेष से मुक्त होना है, कि परंपरा एक प्रवाह नहीं ठहरा हुआ पानी है, उसकी धार एकांगी है, उसका मिजाज़ दकियानूसी है, उसकी दिशा प्रतिगामी है और वह हर हालत में त्याज्य है। परंपरा की यह समझ दरअसल एक आधुनिक अन्धविश्वास है। हर नदी अपने साथ बहुत कुछ बहा लाती है— रेत, पत्थर, पत्ते, कूड़ा। हर समाज उस नदी के पानी को साफ़ करके पीने योग्य बना लेता है। यही बात परम्पराओं पर लागू होती है। हमारी चुनौती थी कि हम परंपरा की अनेक धाराओं में से चुन कर, छान कर, सीख कर अपनी ठेठ हिंदुस्तानी आधुनिकता गढ़ें, लेकिन उसकी बजाय हमने बहुत छिछली आधुनिकता को ओढ़ लिया।
ये छिछली आधुनिकता यूरोप की नकल पर आधारित है। हम भूल गए कि यूरोप ने आधुनिकता के लिए किसी की नकल नहीं की। पश्चिमी आधुनिकता अपनी विशेष यूरोपीय परंपराओं, क्रिश्चिएनिटी से सीख कर गढ़ी गयी थी। हमने अपनी आधुनिकता को स्वयं गढ़ने की बजाय नकलची और उधार की आधुनिकता को प्रगतिशील और भविष्यपरक समझ लिया। नतीजा यह हुआ कि हमने अपनी सांस्कृतिक विरासत की अमूल्य धरोहर को कूड़ेदान में फेंक दिया। हमारे लिए दर्शन का मतलब है पाश्चात्य दर्शन, राजनैतिक चिंतन का मतलब है पाश्चात्य चिंतन, साहित्य का मतलब है यूरोपीय भाषाओं में उपलब्ध साहित्य, चिकित्साशास्त्र का मतलब है एलोपैथी। एक पढ़ा लिखा आधुनिक भारतीय अपने देश की दर्शन और ज्ञान परम्पराओं, भारतीय राजनैतिक चिंतन और किंवदंतियों और कथा साहित्य में कमोबेश अनपढ़ रहता है।
हमारा सांस्कृतिक दिवालियापन सबसे ज्यादा भाषा के सवाल पर दिखाई देता है। यह दरिद्रता संस्कृतिकर्मियों की इतनी नहीं है जितनी कि बाकी बुद्धिजीवियों की। उन्होंने तो हमारे देश की भाषा ही छोड़ दी। अगर आप देश के गणमान्य बुद्धिजीवियों से यह पूछें कि पिछले एक साल में उनमें से किसी ने भारतीय भाषा में कोई एक किताब पढ़ी या एक पृष्ठ भी किसी भारतीय भाषा में लिखा हो तो इस सवाल पर सभी बगलें झांकने लगेंगे। कुछ साल पहले जब जवाहलाल नेहरू विश्वविद्यालय में संस्कृत का विभाग खोलने का प्रस्ताव आया तो अधिकांश प्रगतिशील विद्वानों ने इसका विरोध किया और तब इस विभाग को नहीं बनाने दिया। हमारे आधुनिक अंग्रेज़ीदाँ बुद्धिजीवियों की ऐसी स्थिति है जैसे कि हम इंग्लैंड में रह कर चीनी भाषा में विमर्श करते हों और फिर मातम करें कि कोई हमारी बात को समझता नहीं है। भाषा से हम कटे हुए हैं, मुहावरों से हम कटे हुए हैं, संस्कारों से हम कटे हुए हैं और फिर कहते हैं कि जनता हमारी बात क्यों नहीं सुन रही है! क्या वजह है कि ज़हर फैलाने वालों की बात जनता सुन रही है? क्योंकि वह वह उनकी भाषा में बात करते हैं, वह जनता के बीच जा रहे हैं, झूठी बातें फैलाते हैं लेकिन जिस शब्दावली में बात करते हैं वो देशी चाशनी में लिपटी होती है। इसलिए जरूरी है कि हम उन्हें दोष देने की जगह अपने गिरेबान में झांकें।
तीसरी बड़ी भूल धर्म के बारे में है। इस हॉल में बैठे हुए हम सभी लोग इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि अगर सेकुलरवाद है तो यह देश है। अगर सेकुलरवाद नहीं रहेगा, अगर इस देश में किसी एक धर्म के अनुयायियों का बोलबाला स्थापित करने के कोशिश होगी, तो भारत एक देश के रूप में नहीं बचेगा। इसलिए सेकुलरवाद का कोई विकल्प इस देश में नहीं है, लेकिन सेकुलरवाद जैसे सबसे पवित्र सिद्धांत को हमने इस देश का सबसे बड़ा पाखण्ड बना दिया है। विभाजन की त्रासदी से गुजरने के बाद सेकुलरवाद एक कठिन सैद्धांतिक प्रतिबद्धता का नमूना था। धीरे-धीरे यह सिद्धांत एक राजनीतिक सुविधा में बदलने लगा और वक्त गुजरा तो यह अपने आप को सेकुलर कहने वाली पार्टियों की चुनावी मजबूरी बन गया। अब बहुत समय से सेकुलरवाद अल्पसंख्यकों और खासतौर पर मुसलमानों को बंधक बनाये रखने का फार्मूला बन गया है। सेकुलर कहलाने वाली पार्टियां यह नहीं चाहतीं कि मुसलमान बिजली, सड़क, पानी या तालीम और रोजगार जैसे सवालों पर वोट डालें। वो चाहती हैं कि मुसलमान सिर्फ मुसलमान बना रहे, डरा रहे और बस अपनी जान-माल की सुरक्षा के नाम पर वोट डालता रहे।
नतीजा यह हुआ कि एक साधारण मुसलमान की हालत तो बद से बदतर होती गयी लेकिन मुस्लिम ठेकेदारों की जायज़-नाजायज़ बातें मानी जाती रहीं। इस हकीकत के चलते बीजेपी का यह दुष्प्रचार चल निकला कि मुसलमानों का तुष्टीकरण हो रहा है। एक औसत हिन्दू के मन में यह बात बैठा दी गयी कि ये जो सेकुलर लोग होते हैं ये मुस्लिमपरस्त होते हैं। सेकुलर जमात की भाषा हिन्दू साम्प्रदायिकता के खिलाफ तो खरी और कड़ी होती है, लेकिन अल्पसंख्यकों की साम्प्रदायिकता के खिलाफ दबी जुबान से बोलने का रिवाज़ चल निकला। सेकुलरवाद की राजनीति में यह सिद्धांत चल निकला कि बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता और अल्पसंख्यक साम्प्रदायिकता में अंतर है, हालांकि इस बात में थोड़ी सच्चाई भी है, लेकिन इस अंतर को दोहरे मापदंड का बहाना बनाया गया है। जब ट्रिपल तलाक पर बहस हुई तो अधिकांश सेकुलर लोगों ने बहुत कायदे से सही बात कही, लेकिन पिछले 20-25 साल में बहुत से मुद्दों पर उन्हें जो बात कहनी चाहिए थी उस से भी कतराते रहे। चाहे शाहबानो मामला रहा हो या शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोकने का सवाल या फिर चर्च द्वारा लालच देकर धर्मान्तरण का मुद्दा— इन सब सवालों पर सेकुलर आवाज़ कमजोर रही। इस एकतरफा बात से सेकुलरवाद का सिद्धांत कमजोर हुआ है।
बौद्धिक दायरों में सेकुलरवाद को नास्तिक होने का पर्याय माना जाने लगा। बेशक, हमारे देश में हर व्यक्ति को अनीश्वरवादी होने का उतना ही हक़ है जितना किसी धर्म का अनुयायी होने का। मैं खुद पारम्परिक अर्थ में धार्मिक नहीं हूँ और कर्मकांड से परहेज़ करता हूँ, लेकिन धर्म के पाखंड में विश्वास न करना और धर्म को न जानना दो अलग-अलग बातें हैं। दुर्भाग्वयवश हमारे यहाँ सेकुलरवाद धर्म, धार्मिक ग्रंथों और धार्मिक परम्पराओं को नहीं जानने का सबसे बड़ा बहाना बन गया। इस प्रकार इसके नाम पर एक तरीके की अनपढ़ता को बढ़ावा दिया गया। नतीजा यह हुआ कि धार्मिक परंपराओं से जो कुछ हम सीख सकते थे, धर्म की जो इतनी बड़ी बौद्धिक सम्पदा है, उस विशद विरासत से हम कट गए। समाज की धार्मिक आस्था कम नहीं हुई, बल्कि सही जानकारी और समझ के अभाव में लोग धर्म के नाम पर चल रहे अनेक बाबाओं के चक्कर में फंस गए। जनता के संस्कार और आस्था से कटने का नतीजा यह हुआ कि प्रगतिशील राजनीति कभी समाज में जड़ नहीं पकड़ सकी।
इस कड़वे सच को स्वीकार करना होगा कि पिछले 25-30 साल की हार, खासतौर से राम जन्मभूमि के आंदोलन के बाद की हार, सिर्फ चुनाव की हार नहीं है, सत्ता की हार नहीं है, बल्कि संस्कृति की हार है। हम अपनी सांस्कृतिक राजनीति की कमजोरियों की वजह से हारे हैं। अगर जीत हासिल करनी है तो सिर्फ चुनावी रणनीति और राजनैतिक गठजोड़ से काम नहीं चलेगा। हमें दिल-और-दिमाग की लड़ाई जीतनी होगी, विचार और शास्त्र के तर्क़युद्ध में जीतना होगा, भाषा और अभिव्यक्ति के मैदान को फतह करना होगा। यह लड़ाई लम्बी चलेगी। और इस लंबी लड़ाई के केंद्र में सांस्कृतिक काम होगा। यह काम आपको करना है। समाज से टूटा जुड़ाव कैसे स्थापित किया जाय, यह मैं नहीं बता सकता। यूं भी सांस्कृतिक सृजन का काम किसी निर्देश, फॉर्मूले या खांचे से बंध कर नहीं हो सकता। मैं केवल इशारा सकता हूं कि इतने बड़े काम के लिए नैतिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक स्त्रोत कहां से मिलेंगे।
मेरी समझ में इसके लिए बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है। हमारे ही देश के पिछले डेढ़ सौ साल के इतिहास में इन सवालों पर गहरा मंथन हुआ है। यह हमारे लिए एक अद्भुत स्त्रोत है। इसे आप आधुनिक भारतीय चिंतन या राजनीतिक चिंतन कह सकते हैं। यह एक बहुत बड़ी संपदा है जो पूरी तरह आधुनिक है और ठेठ भारतीय भी। आज देश में जिन सवालों पर हम चर्चा कर रहे हैं— चाहे हिन्दू-मुसलमान का सवाल हो या गौरक्षा का, चाहे भाषा का सवाल हो या परम्पराओं का— उन सब सवालों पर इस चिंतन परंपरा में आज से कई गुना बेहतर चर्चाएं हो चुकी है, जिससे हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। सवाल यह है कि इन सभी से एक साथ कैसे सीखा जाए?
बीसवीं सदी के भारतीय चिंतन में मुख्यतः दो धाराएं हैं। एक है समतावादी मुख्यधारा जो विशेष तौर पर 1917 में रूस की क्रांति के समय प्रारंभ हुई थी। इसमें मुख्यतः मार्क्सिस्ट, सोशलिस्ट, फेमिनिस्ट और फुले-अंबेडकर धाराएं शामिल है। 20वीं सदी में ये धाराएं आपस में काफी झगड़ा करती थीं। कहीं न कहीं ये एक ही मुख्यधारा से जुड़े हुए थे, इसलिए आपस में द्वंद्व होना भी स्वाभाविक था। आज हमें इन झगड़ों में उलझने की जरूरत नहीं है। हमारा सवाल है कि समता की राजनीति को जनमानस से कैसे जोड़ा जाए? इसके लिए हमें इस उपधारा में बहुत कुछ मिलेगा। आचार्य नरेंद्र देव ने बुद्ध धर्म दर्शन पर जो लिखा है उसे पढ़ा जाए, राम मनोहर लोहिया राम, कृष्ण और शिव पर क्या लिखते हैं उसे हम पढ़ें, द्रोपदी और सावित्री पर क्या लिखे हैं उसे हम पढ़ें। यह सब हमारे अपने स्त्रोत हैं, एक देशज समझ विकसित करने के औजार हैं।
एक दूसरी परंपरा भी मौजूद है। एक देशज धारा है जो गांधी से जुड़ी हुई है, अरबिन्दो को भी उसमें जोड़ सकते हैं, सर्वोदय के विचार उसमें शामिल हैं। यह एक देशज, एक भारतीय विचारधारा है जिसने पश्चिमी विचारधारा के बरक्स अपने आप को स्थापित किया है। यह परंपरा 20वीं सदी के आखिर में डगमगाती है। कभी इधर कभी उधर संभल नहीं पाती है। मैं निर्मल वर्मा जी को इसमें देखता हूं, इसमें धर्मपाल जी को देखता हूं। इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि 6 दिसंबर 1992 के बाद वे कहां जा चुके थे, लेकिन भारत के स्वधर्म की तलाश और रक्षा इस दूसरी धारा को नज़रअंदाज करके नहीं हो सकती।
20वीं सदी में यह दोनों धाराएं समानांतर रूप से काम करती रही हैं, लेकिन 21वीं सदी में अगर हमें आज के अंधकार का सामना करना है तो इन दोनों धाराओं को आपस में जोड़े जाने की जरूरत है। हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि हम इन दो मुख्य धाराओं, समतावादी और देशज धाराओं की वैचारिक सम्पदा से सीखें और इन्हें आपस में जोड़ने का काम करें। जिस सांस्कृतिक चुनौती का सामना आज हमें करना पड़ रहा है उसका मुकाबला करने के लिए हमें समता विचार और देशज विचारधाराओं दोनों का संगम करना होगा। 21वीं सदी में यह हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है। मुझे लगता है कि इस काम में राममनोहर लोहिया और किशन पटनायक जैसे चिंतक हमारी बहुत मदद कर सकते हैं चूंकि इनकी सोच में इस संगम की झलक देखी जा सकती है। मुझे यह भी लगता है कि स्वराज की अवधारणा इस प्रयास में एक छतरी का काम कर सकती है जिसके तले हम दोनों धाराओं का संवाद चला सकते हैं।
आज देशधर्म पर जो खतरा है उसका मुक़ाबला करने के लिए, एक नया हिंदुस्तान बनाने के लिए एक देशज और आधुनिक विचार की आवश्यकता है । एक देशज आधुनिकता की सोच हमें सांस्कृतिक सृजन और एक बेहतर हिंदुस्तान के सृजन की ओर ले जाएगी।
मूल भाषण की प्रस्तुति एवं संयोजन: सुरेंद्र पाल सिंह
स्रोतः सं. सुभाष चंद्र, देस हरियाणा (मई-जून 2018), पेज 24 से 28