बात बोलेगी: सब सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है


क्या होता अगर आज बिरसा जयंती न होती या गांधी जयंती होती या अंबेडकर जयंती ही होती या फिर इनमें से कुछ भी न होता? कांग्रेस के एक नेता जो मंत्री बनने के लिए पार्टी के अंदर अभिशप्त हैं और ऐसे तमाम नेता जिन्हें सरकार में आने पर मंत्री बना देने के लिए कांग्रेस अभिशप्त होती है, अगर वे भाजपा का दामन न थामते तो क्‍या होता? या क्या ही होता अगर नरेंद्र मोदी की तस्वीर को उत्तर प्रदेश भाजपा अपने आधिकारिक ट्विटर हैंडल से न हटाती और मोदी बनाम योगी की चर्चा शुरू ही न हुई होती? या फिर ये सोचकर देखें कि क्या होता अगर आज आपके घर में पानी की सप्लाई न आती या आधी सिंकी रोटि‍यों और अधपके चावल के बीच घर का गैस सिलेन्डर ही खत्म हो जाता? बड़ी अजीब सी बात है न?

इन तमाम घटनाओं के बीच कायदे से देखा जाय तो कोई घनिष्ठ संबंध नहीं है, फिर भी हमें किसी एक बात से यदि वाकई फर्क पड़ता तो वो होती पानी की सप्लाई न आना और अधपके खाने के बीच गैस सिलेन्डर का रीत जाना। तात्कालिक सुविधाओं और असुविधाओं से हमें फर्क पड़ता है। जिनके लिए तात्कालिक मामला फलाना ढिकाना है उन्हें उससे फर्क तो जरूर पड़ेगा, लेकिन उनके यहाँ अधपके खाने के बीच गैस सिलेन्डर खत्‍म होने का मामला कभी आया ही न होगा। संभव है उन्हें भी सिलेन्डर रीत जाने से कम फर्क पड़ता! जैसे आजकल देखने में आ रहा है कि देश की एक बड़ी आबादी को अब इस बात से ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता कि सरसों तेल का दाम कहाँ जा रहा है, पेट्रोल और डीजल के दाम जेबकतरई पर उतर आए हैं। जैसे अब काम न होने होने पर, काम के पूरे दाम न मिलने पर या शिक्षा, स्वास्थ्य और तमाम ज़रूरी सेवाएँ न मिलने पर लोगों को कोई फर्क पड़ते हुए दिखलायी नहीं देता है।

गोपाल दास नीरज कहते थे- कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है। ज़रूर तब कम सपने मरा करते होंगे। अगर आज वो यही बात कह रहे होते तो कहते- सब सपनों के मर जाने से भी जीवन नहीं मरा करता है / अपनों के भी मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है / सब के सब मर जाने से भी जीवन नहीं मरा करता है। बताइए! कौन मरेगा, कौन जियेगा, इसके लिए बजाफ़्ता मॉक ड्रिल रच दिया गया। क्या फर्क पड़ गया? 22 मरे थे! सिद्ध हो गया कि अगर पांच मिनट के लिए ऑक्सीज़न सप्लाई रोक दी जाय तो 96 मरीजों में से 22 मरीज मर सकते हैं। यानी लगभग 22 प्रतिशत मरीज ऐसे होते हैं जो बिना ऑक्सीज़न के पाँच मिनट में मर सकते हैं। चिकित्सा क्षेत्र में इस अभिनव प्रयोग और अनुसंधान के लिए एक विशेष पुरस्कार का आयोजन करना चाहिए और मौजूदा सत्तानशीं पार्टी को इस प्रयोगकर्ता को अपने महल की शोभा बनाना चाहिए। बल्कि मिलें तो तलब करके पूछना चाहिए- भाई, कहाँ थे अब तक?

प्रेम के प्रतीक शहर आगरा में चिकित्सा क्षेत्र में हुए इस महाअनुसंधान के प्रणेता कोई जैन जी हैं जो पानी छानकर पीते हैं और इन जैसों के लिए हम सबके प्रिय परसाई जी ने कहा था- खून बिना छाने पीते हैं। इन्होंने शिकार करने का इतना शालीन तरीका ईज़ाद किया है कि निश्चित ही इन्हें आने वाले समय में कोई बड़ी ज़िम्मेदारी मिलने वाली है। आदमी जब आदमी का शिकार करता है तो आमतौर पर हिंसा आड़े आती है। हिंसा से ज़्यादा खतरनाक हिंसा के विवरण होते हैं, लेकिन इस प्रयोग ने हिंसा की तीव्रता और उसकी मारकता को एक सौम्य-शालीन तरीके में बदलने का नुस्खा दिया है। चिकित्सीय होने के कारण विशेषज्ञता का मामला तो खैर है ही।  

शिकार करने के बदलते हुए तरीकों में अब मॉब लिंचिंग हालांकि बहुत प्रचलित लेकिन निंदनीय शब्द हो चला है जो बड़े दंगों की तुलना में कम लागत लेकिन ज़्यादा असर का उद्यम था। हम इसका स्थानापन्न तलाश ही रहे थे ताकि विधर्मियों और बागियों को ठिकाने लगाने और उन्हें ठिकाने लगाने के बहाने अपनी सत्ता की अक्षुण्णता की अंतहीन संभावनाओं के लिए वातावरण बनाए रखा जा सके। संभव है अब हर बड़े शहर में और कस्बों में भी ऐसे हस्पताल खोले जाएं जहां इस सफल प्रयोग को बजाफ़्ता एक परियोजना का हिस्सा बनाया जाय।

इसका कोई सुव्यवस्थित अध्ययन हालांकि नहीं है लेकिन इस मुद्दे पर देश के प्रतिभाशाली शोधार्थियों को आगे आना चाहिए कि आज़ादी के बाद ऐसे कौन-कौन से सभ्य, शालीन और कानूनसम्मत लगने वाले तरीके ईज़ाद हुए हैं जिनसे मनुष्य का शिकार आसानी से किया जा सकता है और दुनिया के तमाम न्यायालय उसे सही ठहराते आए हैं।

मसलन, कोई समुदाय किसी परियोजना का विरोध करता है क्योंकि इस परियोजना से उसे उजड़ना पड़ेगा, विस्थापित होना पड़ेगा, लेकिन न्याय के प्रांगण में इस पूरे मसले को ऐसे देखा जाएगा कि जो कार्यवाही हो रही है वो कानूनसंगत है या नहीं। न्यायसंगत होने या न होने से अदालतों को भी फर्क नहीं पड़ता। कानूनसंगत होना न्यायसंगत होना नहीं है। इतनी सी व्याख्या में हम पाएंगे कि दो शब्दों के बीच मिली जगह मात्र से कितने शिकार किये गये। भाषा के ऐसे ही उपयोगों ने बड़े पैमाने पर शिकार किये हैं।

असल में ज़्यादातर लोग ऐसे हैं जिन्हें अब कुछ भी प्रभावित नहीं करता है। न मौजूदा का दुख, न आसन्‍न की चिंता। यह एक जड़ावस्था को प्राप्त होते जाते समाज का सबसे प्रकट लक्षण है। यह लक्षण अभी और विकरालता से उभर कर आएंगे। जब नदियों के किनारे बहती लाशें, अस्पतालाओं में ज़रूरी सेवाओं के अभाव में मरते अपने ही परिजनों की अवस्था देखकर यह जड़ावस्था प्रभावित नहीं हुई तो हमें ऐसा क्यों लगता है कि बिरसा या गांधी या अंबेडकर की जयंती से उन्हें कोई फर्क पड़ेगा या मंत्री बनने और कांग्रेस द्वारा बनाये जाने के लिए अभिशप्त नेताओं के इधर-उधर चले जाने से उन्हें या हमें कोई फर्क पड़ेगा?

यह सब एक ऐसे समय में लिखा जा रहा है जब किसी को किसी से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि किसी के साथ कुछ हो जाने से खुद उसे ही कुछ फर्क नहीं पड़ता। जब पीड़ितों को पीड़ा से फर्क न पड़े और उत्पीड़कों के लिए भी उत्पीड़न एक सामान्य बात हो जाए और यह सब एक व्यवस्था के तहत हो रहा हो तब सामुदायिक जीवन में फर्क पड़ने जैसा कोई भाव नहीं रह नहीं जाता है। यह एक ऐसा जड़त्व है जिसे बड़े जलजले की ज़रूरत है। ताउते और यास जैसे कम तीव्रता के तूफान भी इस जड़त्व को हिला नहीं पाते।

यास ने तो फिर भी कुछ क्षणिक मनोरंजन भारत की राजनीति में पैदा किया और एक हाइ वोल्टेज ड्रामा होते हुए दिखा, लेकिन उससे भी आखिर तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा! बंगाल के मुख्य सचिव अलपन तय समय पर रिटायर हो गये, केंद्र सरकार ने उन्हें तलब किया, ममता बनर्जी ने भेजने से मना किया। रिटायर होने से आप खेल के मैदान से बाहर हो जाते हैं। अलपन साहब को उम्र से फर्क पड़ गया और रस्साकशी के खेल से मुक्ति। इस पूरे मनोरंजक खेल में मोदी और उनके केंद्र को चाहे मुंह की खानी पड़ी हो या गर्दन पर या कमर के नीचे यानी बिलो द बेल्ट, लेकिन इससे किसी और को कोई फर्क नहीं पड़ा। सवाल होना था कि मोदी और उनके केंद्र ने ये जो हरकत की वो जायज़ थी या नहीं, लेकिन अब सब कुछ जायज़-नाजायज के बंधनों से मुक्त होकर मनोरंजन की हद में चला गया है, जिसका कुल हासिल है कि मनोरंजन हुआ या नहीं। मनोरंजन से कोई स्थायी फर्क नहीं पड़ा करते।

राजनीति वो शै है जो कायदे से ‘फर्क’ लाती है। जो है, उसमें बदल करती है। निर्माण करती है, ध्वंस भी करती है। इन सभी कार्यवाहियों से हमारे सामुदायिक जीवन में फर्क पड़ता है, लेकिन जब फर्क पड़ने की बुनियादी नागरिक और सामुदायिक चेतना का ही ध्वंस किया जा चुका हो और बाजाफ़्ता एक राजनैतिक कार्यवाही के तहत किया जा चुका हो तब हमें इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता कि आखिर हमें फर्क क्‍यों नहीं पड़ रहा।

इस सप्ताह ऐसी बहुत सी घटनाएं हुई हैं जिनसे हमें फर्क पड़ना था। मसलन, एक इंसान जो रिश्ते में इस देश का प्रधानमंत्री लगता है एक दिन आता है और शाम 5 बजे से 5 बजकर 35 मिनट तक घनघोर झूठ बोलकर चला जाता है और हम उसके पिद्दी से संदेश का शोरबा बनाते हैं और खाकर सो जाते हैं कि अब सबको वैक्सीन मुफ्त मिलेगी। मुफ्त मुफ्त मुफ्त? ये व्‍यक्ति हमारे ही घर में, हमारे ही टीवी सेट पर प्रकट होकर हमें बता गया कि देश में अब तक कोई टीकाकरण ऐसा नहीं हुआ जैसा अब हो रहा है। हमने अपने-अपने हाथ भी न देखे जो अब तक हुए सफल टीकाकरण अभियानों के ज़िंदा सबूत हैं।

मसलन, यही व्यक्ति जो रिश्ते में वही लगता है जो पिछले पैराग्राफ में लगता था, एक दिन पर्यावरण दिवस के दिन कहता है कि पूरा देश हिंदुस्तान की तरफ देख रहा है कि हम कैसे आर्थिक विकास, खनन और इसी तरह के अन्य काम पर्यावरण संरक्षण करते हुए कर पा रहे हैं। पूछो ये सब कैसे किया। कहेगा खदानों के लिए पेड़ काटकर? या आठ लेन सड़क के लिए पेड़ काटकर? तब इसमें पर्यावरण संरक्षण कैसे हुआ? पूछ ले कोई तो बगलें झाँकने लगे, लेकिन उसे पता है कि अब उसके बोले हुए से भी किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। इसलिए अब उसे भी कोई फर्क नहीं पड़ता।



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