दक्षिणावर्त: दूसरी लहर में किसके पास इतना नैतिक बल बचा है जो किसी को कुछ कहे?


एक फिल्म है, ‘द डार्क नाइट’। घोर व्यावसायिक फिल्म होते हुए भी उसके डायलॉग फलसफाना और बेहद मानीखेज हैं। उसमें एक जगह जो खलनायक है, जोकर, वह कहता है, ‘When the chips are down, these civilized people will eat each other.’

जिस काल्पनिक शहर गोथम की कहानी इस फिल्म में है, वह बिमल मित्र के शब्दों में ‘रॉटेन टू द कोर’ है और एक ऐसी विचारधारा पनपती दिखायी है कि इस शहर का समूल विनाश उचित है, तो वहीं जो कानून के रखवाले हैं वे इस बात पर विचार करते हैं कि जिस तरह से रोमन साम्राज्य में जब बीमारी बहुत बढ़ गयी, तो ‘लोकतंत्र को स्थगित कर’ किसी एक को समाज का नायक बनाया जाता है। इस पर फिल्म में जो बुद्धिजीवी नायिका दिखायी गयी है, वह कहती है- ‘रोम ने ऐसा प्रयोग सीज़र के साथ किया था और उसने अपनी सत्ता वापस देने से इंकार कर दिया था’।

कोरोना की इस दूसरी लहर ने हम सभी को एक समाज के तौर पर रोमन साम्राज्य से भी गया-बीता, भीतर तक सड़ा हुआ और बेहद थका, हताश दिखा दिया है। सब कुछ ठीक वैसा ही हो रहा है, जैसे मार्च 2020 में हुआ था और तकरीबन दो महीनों के सख्त लॉकडाउन के बावजूद दहशत फैला कर गया था। कोरोना खत्म नहीं हुआ था, लेकिन लोगों ने उसके साथ जीना सीख लिया था और अक्टूबर-नवंबर से रोजाना के चार्ट खत्म हो गए, स्वास्थ्य-सेवाओं पर फॉलोअप स्टोरी बंद हो गयी और भारत की उत्सवप्रिय जनता उत्सवों में, बिहार चुनाव में व्यस्त हो गयी, किसानों के नाम पर चल रहे आंदोलन में व्यस्त हो गयी। सब कुछ सामान्य हो गया।

When the chips are down, these civilized people will eat each other!

आइए, इस बार ज़रा एक समाज, एक नागरिक के तौर पर बात कर लें। दिसंबर से लेकर मार्च तक हम लोग पूरी तरह मशगूल थे अपने क्रियाकलापों में, कुछ इस तरह कि यह महामारी जा चुकी है। एक धड़ा तो ऐसा भी था, जो इसमें ‘पूंजीवादी’ और ‘विदेशी’ हाथ देख रहा था। इस बीच एक टीका आय़ा, लेकिन उसके ऊपर भी टीका-टिप्पणी शुरू हो गयी। बिना ना-नुकुर के टीका लगवाने वाले लोग बेहद कम थे। इसमें भी पोलियो के टीके की तरह नामर्द बनवाने की साज़िश खोज ली गयी। कुछ राज्यों से टीके की कमी की शिकायतें आने लगीं और केंद्र-राज्य के बीच तू-तू, मैं-मैं शुरू हो गयी।

लोगों का घूमना, आना-जाना शुरू हो चुका था और इकॉनॉमी को तंगहाली से बचाने के लिए कामकाज शुरू करना ही था, सो वह भी शुरू हो ही गया। इसी बीच, कुंभ के आयोजन पर भी सबने आंखें मूंद लीं, हालांकि होली के आने तक जब मामला बिगड़ा तो तरह-तरह की एडवाइजरी जारी होने लगी। हम सभी ने उस शुतुरमुर्ग की तरह वर्तमान की धूल में अपने सिर गोत दिए, जिसे आने वाले कल की भयावहता पता तो थी, लेकिन उसे नकारने में ही उसे अपनी कुशलता दिखती है।

आज जब कोरोना की दूसरी लहर कहर बनकर लौटी है, तो फिर से ठीक वही तस्वीरें नुमायां हो रही हैं। पिछली बार तबलीगी जमात की तस्वीरें थीं, इस बार जनता कुंभ की तस्वीरें साझा कर रही है। कुंभ के समर्थक (भगवान बचाए) थूकने, हमला करने, ईव-टीजिंग करने के आधार पर तबलीगियों की कमीज के मुकाबले अपनी कमीज ज्‍यादा सफेद बता रहे हैं। प्रवासियों की बिहार-यूपी लौटती, प्लेटफ़ॉर्म से भागती तस्वीरें और वीडियो हैं तो ऑक्सीजन और दवाओं के लिए हो रहा हाहाकार चौतरफा बिखरा पड़ा है। श्मशानों से फिर सामूहिक चिताओं और कब्रिस्तानों से ‘अग्रिम तौर पर कब्र खुदाई’ की तस्वीरें आ रही हैं। सरकारें श्‍मशानों में जलती चिताओं की छवियां बाड़बंदी कर के बाहर आने से रोक रही है।  Deja-Vu’ … विशुद्ध Deja-Vu’ इसी को कहते हैं।

प्रधानसेवक लगातार चुनाव-प्रचार में व्यस्त हैं। इसे कहीं से भी स्वीकार्य नहीं कहा जा सकता, निंदनीय है यह, लेकिन जरा एक सेकंड को यह भी सोचा जाए कि बिहार-चुनाव में यही भाजपा और यही प्रधानसेवक थे जिन्होंने अधिकांश रैलियां डिजिटल तरीके से की थीं (यह दीगर बात है कि इसके बावजूद कई नेता और पार्टी रैलियां कर रहे थे, तेजस्वी की तो इसी बात के लिए बुद्धिजीवियों ने बड़ाई भी की थीं) तो इस बार क्या हुआ? वजह दो हो सकती हैं- शायद पीएम को अंदाजा नहीं रहा होगा कि यह लहर इतनी बुरी होगी, शायद जनता ने अपना नैतिक दबाव खो दिया है।

लोगों ने पिछली बार पीएम के कहने पर ही सही, पुलिसिया डंडे के डर से ही सही, सोशल डिस्टेंसिंग और मास्क वगैरह लगाने के नियम माने थे। उसका नैतिक बल उच्च था (भले ही कुछ फीसदी ने पिछले साल भी सड़कों पर तांडव किया था, नियमों की धज्जियां उड़ायी थीं) लेकिन इस बार बीच के चार महीनों में जनता ने वह नैतिकता खो दी। वैसे ही जैसे कुंभ के आयोजन से हिंदुओं ने अपना नैतिक बल खो दिया है, जैसे बंगाल में रैली कर के प्रधानसेवक ने अपना नैतिक बल हार दिया है।

चार महीनों में क्यों नहीं पत्रकारों ने बिहार के आइसोलेशन-सेंटर्स की फॉलोअप स्टोरी की? एकाध इंडियन एक्सप्रेस ने की, फिर सब खत्म! उस अवधि में दवाओं, अस्पतालों की तैयारी पर फॉलोअप स्टोरी क्यों नहीं हुई? जनता यानी हम सभी ने सारे नियमों का पालन क्यों नहीं किया? सबको टीका लगवाने  को प्रेरित क्यों नहीं किया? एक संकट के समय जिस नागरिकता का, जिस राष्ट्रीयता का भाव हम सबमें होना था, क्यों नहीं हुआ? अब भी, बिहार में जो आइसोलेशन सेंटर बनाए गए हैं, उनकी रीयल-टाइम रिपोर्टिंग क्यों नहीं हो रही है? यूपी से लेकर गुजरात तक की सरकारों पर पत्रकार क्यों नहीं नैतिक दबाव बना पा रहे हैं? जवाब सभी सुधी पाठकों को पता हैं।

दरअसल, हम सभी गोथम सिटी के भद्रलोक की तरह एक-दूसरे को खाने में व्यस्त हैं। हमें एक मसीहा का इंतजार है, क्‍योंकि इसी की पुरानी आदत है। लगभग डेढ़ अरब जॉम्बीज़ के देश में अगर डेढ़ करोड़ लोग भी ‘भारतीय नागरिक’ की तरह बर्ताव करते तो शायद हालात सुधरें, वरना बिमल मित्र ने खरीदी कौड़ियों के मोल में कहा ही है:

हम लोग अपराध इस वजह से नहीं करते, क्योंकि हमें डर है। हम में मूल्यों का, वैल्यूज का सम्मान है, इस वजह से हम अपराध से नही बचते। बस मौके की तलाश में लगे हुए रीढ़विहीन कौम हैं हम लोग।



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