अनामिका-अकादमी, हंस-निशंक के रास्ते हिंदी साहित्य में हिंदू नाजीवाद का स्वीकरण


वर्जीनिया वूल्फ ने अपनी मशहूर रचना “ए रूम ऑफ वन्स ओन” में लिखा है कि एक स्त्री को लिखने के लिए अगर कुछ चाहिए तो वो है – पैसा (आर्थिक स्वतंत्रता) और उसका अपना कमरा.

इस बार हिंदी का साहित्य अकादमी पुरस्कार हासिल करने वाली कवियित्री अनामिका के पास ये दोनों हैं. इसीलिए सवाल यह नहीं है कि अनामिका ने क्या रचा, अनामिका को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिलना चाहिए या नहीं. सवाल यह है कि  क्या अनामिका को साहित्य अकादमी पुरस्कार लेना चाहिए? यह सवाल इसलिए और भी प्रासंगिक हो जाता है क्योंकि ऐसी सूचना है कि कुछ लोगों ने अनामिका से पुरस्कार न लेने का आग्रह किया था, जिसे अनामिका ने अपनी आंखों से ही खारिज कर दिया. उनके दिल और दिमाग तक वो आग्रह पहुंच ही नहीं सका.

फिर भी अगर मान लिया जाय कि अनामिका का पुरस्कार लेना उनका निजी मामला है तो भी यह सवाल तो बनता ही है कि असहिष्णुता के उत्तर-काल में साहित्य अकादमी पुरस्कारों की कोई नैतिक अपील बची भी है? अगर हां तो कोई बात नहीं. राम राज में सब माफ़ है. और अगर नहीं तो अनामिका के पुरस्कार को निजी ही रहने देना चाहिए. यह हिंदी भाषा और संस्कृति के लिए सार्वजनिक जश्न का मुद्दा कतई नहीं होना चाहिए.

यहां यह भी दोहराना ज़रूरी है कि हमारी भाषा के दिग्गज साहित्यकारों जैसे उदय प्रकाश, मंगलेश डबराल ने कुछ साल पहले ही बाकायदा राजनीतिक कारणों से साहित्य अकादमी पुरस्कार की वापसी का अभियान चलाया था. मंगलेश अब नहीं रहे. उदय प्रकाश अब भी हैं लेकिन न होने के बराबर होते जा रहे हैं.  

हम सब जानते हैं कि जिन वजहों से कुछ साल पहले हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस लौटाया था, वो समाप्त नहीं हुई हैं बल्कि और भयंकर व कुत्सित रूप में दिन प्रति दिन सामने आ रही हैं. फिर इस जश्न का सबब क्या है?

संसद और सुप्रीम कोर्ट जैसी संस्थाओं को कुबड़ा बना देने वाली हिंदू नाजीवादी सरकार– जैसा कि इतिहास बताता है– लेखकों को को-ऑप्ट करने के लिए क्‍या साहित्य अकादमी का इस्तेमाल कर रही है? मैं मानता हूं कि अनामिका इस (को-ऑप्शन) अभियान का सबसे ताज़ातरीन विक्टिम हैं क्योंकि अगर सुप्रीम कोर्ट कंप्रोमाइज हो चुका है तो फिर साहित्य अकादमी स्वायत्‍त कैसे बचा रह गया– यह मैं जानना चाहूंगा.

बहरहाल, मुझे यहां ग्राम्शी याद आ रहे हैं लेकिन उस तरफ नहीं जाऊंगा. कोई चाहे तो मुक्तिबोध को भी याद कर सकता है जो अक्सर पूछते थे कि पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है. मराठी साहित्यकार नंदा खरे–-  जिन्होंने हाल ही में अकादमी पुरस्कार ठुकराया है–- से जब मैंने साहित्य और राजनीति के बारे में पूछा तो उन्होंने मुक्तिबोध का जिक्र किया. नंदा ने कहा था कि इस सरकार के अधीन हमारा समाज और कुसंस्कृत होता जा रहा है. संविधान के शब्द तो वही रह गए हैं लेकिन उनकी आत्म बदल दी गई है. सवाल यह है कि जो बात नंदा ने बहुत आसानी से मान ली, क्या अनामिका उससे अनभिज्ञ हैं?

मैं मानता हूं बिल्कुल नहीं. फिर यह चुप्पी क्यों?

साहित्य अकादमी पुरस्कार ठुकराने वाले मराठी साहित्यकार, नंदा खरे के साथ छोटी सी बातचीत : जिस दौर में हिंदी के लेखक राम…

Posted by Vishwa Deepak on Saturday, March 13, 2021

नए कृषि कानून का विरोध करते-करते  300 से ज्‍यादा किसान मर चुके हैं. कई महीनों से लाखों लोग धरने पर हैं.  आज भी आए दिन मुसलमानों की लिचिंग हो रही है, मंदिर निर्माण के नाम पर लूट और हिंसा का तांडव जारी है. और ध्यान रहे यह सब कुछ हिंदी क्षेत्र में घटित हो रहा है, बावजूद इसके अगर हिंदी में कविता रचना निजी मामला है (जैसा कि कुछ मीडियॉकर्स ने दावा किया है) तो मैं समझता हूं कि मुंह पर पट्टी बांध कर, आंख फोड़ लेना ही बेहतर होगा.

अब लगता है कि यू आर अनंतमूर्ति सही वक्त पर चले गए वर्ना शायद वो भी यही उपाय सुझाते. मैं अपने सामने विरोध को कई किलों को ध्वस्त होते हुए देख रहा हूं. जिन पर नाज करते थे, उनको विदूषक बनते देख रहा हूं. मैं देख रहा हूं कि किस तरह हिंदू नाजीवादी को साहित्य-सांस्कृति के दायरे में सहज मानकर स्वीकार किया जा रहा है. सामाजिक-राजनीतिक स्तर पर पहले ही स्वीकार किया जा चुका है. क्यों और कैसे? यह  नीचे लिखे गए कुछ संयोगों से जाहिर हो जाएगा.

क्या यह महज संयोग है कि अनामिका को पुरस्कार दिए जाने से पहले, कुछ ही पहले, हमारी भाषा के स्टालवार्ट उदय प्रकाश ने राम मंदिर निर्माण के लिए चंदे की पर्ची काटी और बाकायदा फेसबुक पर उसका बखान भी किया. राम मंदिर के निर्माण के लिए कितने लोगों का कत्ल किया गया – इसको भूल जाइए. बस यह याद रखिए कि किस तरह से इस पूरे मुल्क को नफरत की भट्ठी में झोंक दिया गया है जिसमें हम सब जल रहे हैं (खुद उदय प्रकाश भी). फिर भी उन्होंने चंदा दिया और कुछ कायर लद्धड़ों ने उनका बेशर्मी से बचाव भी किया.

क्या इस घटना के बाद उदय प्रकाश की पीठ पर सवार होकर, हिंदू नाजीवाद सामाजिक स्वीकृति हासिल नहीं करेगा? (उदय प्रकाश द्वारा पर्ची सार्वजनिक करने के बाद दक्षिणपंथी खेमे में जश्न का माहौल था).

दूसरा संयोग बिल्कुल हाल ही में उद्घाटित हुआ. हिंदी की सबसे मशहूर पत्रिका “हंस” (हिंदी का प्रगतिशील कथा मासिक) में हिंदू नाजीवादियों की सरकार में शिक्षा विभाग संभालने वाले मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक की कहानी “मुआवजा” प्रकाशित हुई है. निशंक कहानीकार भी हैं यह पहली बार पता चला, लेकिन पत्रकारिता के पेशे की वजह से यह बहुत पहले से पता था कि निशंक की डिग्रियां फर्जी हैं. यहां तक कि उनका जन्मदिन भी.

निशंक का बायोडाटा बताता है कि उन्होंने 60 से ज्यादा किताबें लिखी हैं और उन पर कई पीएचडी हो चुकी हैं. शायद बाल्जाक ने भी इतना नहीं लिखा था. निशंक ने तो श्रीलंका मुक्त विश्वविद्यालय से भी डिग्री हासिल कर रखी है जबकि श्रीलंका यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन ने इस विश्वविद्यालय को मान्यता देने से साफ मना कर दिया था. यहां पर मोदी और स्मृति ईरानी की डिग्री का उल्लेख करना समय की बर्बादी होगा.

क्या निशंक के बारे में वह सब जो हर किसी को पता है “हंस” के संपादकों को या राजेन्द्र जी की बेटी रचना यादव को नहीं पता रहा होगा? फिर भी निशंक की कहानी “हंस” के मार्च अंक में प्रकाशित की गई. पहला पेज पढ़कर आप खुद अंदाजा लगाइए कि इस “कहानी” में कितनी कहानी है.

“हंस” के इसी अंक में शिवराज सरकार का विज्ञापन भी है. सब जानते हैं कि “हंस” की पैदाइश से लेकर उसे कई साल तक जिंदा रखने वाले गौतम नवलखा माओवादी होने के आरोप में जेल में बंद हैं और “हंस” में निशंक को कहानीकार बताकर प्रकाशित किया जा रहा है.

यह हिंदू नाजीवाद की विचारधारा को हिंदी भाषा और संस्कृति के सबसे सम्मानित मंच पर जगह देकर स्वीकृत कराने का खेल नहीं तो और क्या है?

रचना यादव से राजेन्द्र जी की प्रतिबद्धता की उम्मीद करना उनके साथ अत्याचार होगा लेकिन संस्था के रूप में “हंस” के पतन का गवाह बनना पीड़ादायक है. “हंस” के कर्ता-धर्ता चाहे भूल गए हों, रचना जी भूल गई हों पर मुझे अच्छे से याद है कि निशंक के राजनीतिक सहोदरों को राजेन्द्र जी ने अपने एक संपादकीय में भारत के पहले ‘आतंकवादी’ की संज्ञा से नवाजा था. स्वर्ग (अगर कहीं है तो) में सिगार पीते हुए राजेन्द्र जी इस गिरावट पर आंसू ही बहा रहे होंगे.

हैरान हूं यह देखकर कि हिंदी के सांस्कृतिक पतन की सुई “हंस” से चलते हुए, घूमकर निशंक के रास्ते फिर अकादमी तक जा पहुंची है. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि अनामिका के साथ निशंक भी इस बार साहित्य अकादमी के दावेदारों में से एक थे. ममता कालिया, मदन कश्यप, अनामिका के साथ उनका भी नाम अंतिम दावेदारों की सूची तक शामिल होता रहा. क्या अनामिका को यह पता रहा होगा कि उनके साथ निशंक का नाम भी अंतिम दावेदारों में था? 

हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता. पर साहित्य अकादमी देने वाली उस ज्यूरी का क्या कीजिएगा जिसमें चित्रा मुद्गल के अलावा किसी का किसी ने नाम तक शायद ही सुना होगा.

जैसे रचना यादव से यह उम्मीद करना बेमानी है कि वो निशंक की कहानी को कूड़े के ढेर में फेंक देतीं, वैसे ही अनामिका से पुरस्कार न लेने की उम्मीद करना भी बेमानी होगा. अनामिका की कविताएं नारीवादी दृष्टिकोण से खूबसूरत हो सकती हैं, उत्कृष्ट हो सकती हैं लेकिन उनमें कोई ताप नहीं.      

पुनश्च

संयोगों की श्रृंखला से याद आया कि अंग्रेजी का साहित्य अकादमी इस बार अरूंधति सुब्रमण्‍यम को मिला है. सुब्रमण्‍यम ने नए उभरते हुए बाबा जग्गी वासुदेव की जीवनी लिखी है (सद्गुरु: मोर दैन अ लाइफ)। इसके अलावा सुब्रमण्‍यम ने अनामिका का एक लम्‍बा साक्षात्‍कार कविता के अंतरराष्‍ट्रीय मंच पोयट्री इंटरनेशनल, रॉटरडैम के लिए लिया है (1 जून, 2006) और अरुंधति‍ की अंग्रेजी कविताओं का हिंदी में अनुवाद अनामिका ने किया है, जिसे कविता कोश पर पढ़ा जा सकता है.

आप कह सकते हैं कि क्या जग्गी की जीवनी लिखने से कोई क्या साहित्य अकादमी के लिए अछूत हो जाता है ? मैं कहता हूं कि बिल्कुल नहीं.

बस यह याद दिला देता हूं कि अरूंधति नाम की एक दूसरी अंग्रेजी लेखिका ने कुछ ही साल पहले साहित्य अकादमी लेने से मना कर दिया था. ठीक उन्हीं कारणों से, जिसकी वजह से उदय प्रकाश ने अकदमी पुरस्कार वापस कर दिया था.

इस बीच उदय ने जीवन और विचार के बीच सुरक्षा की एक लकीर खींच ली जबकि अरूंधति रॉय वहीं खड़ी हैं जहां पहले थीं. पहले से कहीं ज्‍यादा अकेली.

पिछले दिनों प्रेस क्लब में जीएन साईबाबा की रिहाई के लिए हुई एक प्रेस ब्रीफिंग के लिए वे आईं तो उन्‍होंने बात की शुरुआत यहीं से की कि अब कम लोग आते हैं. उनके आसपास चलते हुए उनके अकेलेपन को मैंने परिलक्षित किया था.

हम सब जानते हैं कि अयोध्या प्रोजेक्ट पूरा होने के बाद मथुरा, काशी का नारा लगने लगा है. करोड़ों लोग रोज़ी-रोटी के लिए मोहताज हो रहे हैं. कारपोरेट लूट चरम पर है और अश्लीलता की सारे हदें पार कर चुकी हैं.

फिर भी अगर आपको लगता है कि उदय प्रकाश का चंदा देना, निशंक का हंस में प्रकाशित होना और साहित्य अकादमी के लिए नामित होना, आग्रह के बाद भी अनामिका का साहित्य अकादमी स्वीकार कर लेना– इतना सब कुछ शून्य में हो रहा है या सामान्य है या इनके बीच कोई संगति नहीं, फिर पाश को याद करते हुए मैं बस इतना ही कहूंगा कि:

इसका जो भी नाम है – गुंडों की सल्तनत का
मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूं
मैं उस पायलट की चालाक आंखों में
चुभता हुआ भारत हूं
हां, मैं भारत हूं चुभता हुआ उसकी आंखों में
अगर उसका अपना कोई खानदानी भारत है
तो मेरा नाम उसमें से अभी खारिज कर दो.



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