देशान्तर: तानाशाही व्यवस्था में प्रतिरोध का स्वर है चीन की सिविल सोसाइटी


देशांतर में इस बार दो भागों में हम चीन की सोसाइटी की चर्चा करेंगे, जिन्होंने एकदलीय शासन की तानाशाही, घोर दमन और मुश्किल माहौल में भी जनता के मुद्दों और संघर्षों को उठा कर बदलाव लाने की कोशिश की है। भाग एक में 1989 से लेकर 2008 तक की घटनाओं पर एक नज़र और दूसरे भाग में जी जिंपिंग की दमनकारी नीति की बात, जिसने प्रतिरोध की हर आवाज़ को ख़त्म करने की भरपूर कोशिश की है।

संपादक

चीन खबरों में है। सिर्फ़ भारत में नहीं बल्कि अमेरिका के साथ छिड़े आर्थिक विवादों को लेकर भी। कई लोगों ने इसे एक नये शीत युद्ध का आगाज़ माना है। कोरोना के प्रभाव से अभी दुनिया के कई देश उबरे भी नहीं हैं जबकि इससे उपजी भयानक आर्थिक मंदी कई और नये संकटों को जन्म देगी जिससे कोई भी देश अछूता नहीं रहेगा। इस नये शीत युद्ध का असर दुनिया के हरेक देश पर होगा। जिस तरह से तानाशाही शक्तियों ने कोरोना काल में कई जनतांत्रिक देशों पर अपनी पकड़ मजबूत की है, उससे स्वतंत्र और विविध विचारधारा, मानवीय मूल्यों, अधिकारों और दमन व शोषण के खिलाफ प्रतिरोध की राजनीति के लिए जगह और ख़त्म हो जाएगी। चीन में कम्युनिस्ट पार्टी का एकछत्र शासन है। पार्टी, राज्य, समाज, अर्थव्यवस्था, मीडिया, शिक्षा आदि सभी पर पूर्ण नियंत्रण है। वैसे में जनतंत्र, महिला अधिकार, मानवाधिकार, पर्यावरण, मीडिया की स्वतंत्रता की बात करना एक जोखिम का काम है। इसके बावजूद वहां के लोगों का प्रतिरोध और सरकारी दमन का एक इतिहास है।

1989: एक शुरुआत

अगर चीन के साथ सीमा विवाद को भूल जाएँ तो भारतीय मानस में चीन के लेकर कई भ्रांतियाँ हैं। उनमें एक है वहां गत तीन दशकों में हुए आर्थिक परिवर्तन को लेकर भ्रांति। चीन दुनिया का कारख़ाना है, सुपर पावर है और उसके पीछे राज्य की किसी भी क़ीमत पर किसी भी निर्णय को लेने और उसे पूरा कर देने निर्णायक क्षमता है। कुछ लोग यह भी दलील दे सकते हैं कि भारत के चीन से पीछे होने का कारण हमारे यहां मौजूद जनतंत्र है, बोलने, लिखने और राजनीति की आज़ादी है जो हमें आगें नहीं बढ़ने दे रही है। मीडिया में चीन के साथ हमारे सीमा संबंध, व्यापार, तिब्बत, चीन-अमेरिका विवाद आदि के बारे में चर्चा बनी रहती है लेकिन बहुत कम मौक़े होते हैं जब वहां की सिविल सोसाइटी के बारे में बात हो।

Tiananmen Square, 4 June 1989: ‘Thirty years on, it is still thought of as an ‘incident’, a one-off event.’ Photograph: Manny Ceneta/AFP/Getty Images

1989 के छात्र विद्रोह और उसके बाद हुए दमन की पूरी तस्वीर कई तरीक़ों से तथ्य और मिथ्या के बीच झूलते हुए पूरी दुनिया में ज्ञात है। चीन में 4 जून 1989 एक ऐतिहासिक घटना है और उसके बारे में खुल के बात करना या लिखना ख़तरे को आमंत्रित करना है। इसलिए चीन के ऐक्टिविस्ट उसे कोडवर्ड में मई 35, VIIV या 8*8=64 भी कहते हैं। 1989 के भारी दमन के बावजूद चीन में उस दौर के सक्रिय लोगों ने जेल में रहते हुए या छूटने के बाद चीन के अंदर या बाहर हांगकांग या फिर दुनिया के अन्य देशों में निर्वासित जीवन व्यतीत करते हुए मौजूदा सिविल सोसाइटी को बनाने में एक अहम भूमिका निभायी है। 

भारत में जिस तरह जन आंदोलनों का इतिहास है वैसा इतिहास चीन में नहीं है और सम्भव भी नहीं है। विरोध, प्रदर्शन, मतभेद आदि की स्वतंत्रता भारतीय संविधान में मौजूद है। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के स्वतंत्र अस्तित्व के अलावा एक स्वतंत्र मीडिया और नागरिक समाज के अस्तित्व को संवैधानिक मान्यता प्राप्त है। ऐसी कोई भी मान्यता चीन में नहीं है। अगर बीसवीं सदी माओ का काल थी तो मौजूदा हालात में इक्कीसवी सदी वर्तमान राष्ट्रपति जी जिंपिंग का काल कही जा सकती है। सत्ता में 2012-13 से आने के बाद आज उनकी पकड़ पार्टी, राज्य, सेना, मीडिया आदि हर जगह है। चीनी व्यवस्था में अगर कहें तो वह सार्वभौम हैं। उनके पहले यह पद सिर्फ़ माओ को हासिल था। इसका सही मायने में अर्थ यह है कि उनका कहा, लिखा, सोचा ही ब्रह्म सत्य है, दर्शन है, नीति है, विचार है। 2018 में हुए संवैधानिक बदलाव के बाद (जिसमें राष्ट्रपति के ऊपर दो टर्म की लिमिट को खत्म कर दिया), वह आजन्म चीन के राष्ट्रपति, कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और सेना के अध्यक्ष रहेंगे, बशर्ते वह अपनी इच्छा से उसे ना बदलें।

1995 का बीजिंग संयुक्त राष्ट्र महिला सम्मेलन

माओ जेडोंग के सांस्कृतिक आंदोलन के बारे में हम सब जानते हैं और उससे प्रभावित दुनिया भर के कई देशों में उभरे माओवादी आंदोलन के प्रति प्रगतिशील मार्क्सवादी वर्ग आकर्षित भी हुआ लेकिन चीन की जनता ने इसकी भारी कीमत चुकायी। माओ के देहांत के बाद डेंग जिओपिंग ने 1980 के दशक में आर्थिक सुधारों की शुरुआत की और उसी दौरान पार्टी के कुछ लोगों ने राजनैतिक सुधारों की चर्चा भी शुरू की जिसकी परिणति 1989 के छात्र विद्रोह में हुई। 1989 का छात्र विद्रोह कुचला गया लेकिन आर्थिक सुधारों का दौर बदस्तूर जारी रहा।

चीन में स्वतंत्र या फिर गैर-पार्टी संगठित सिविल सोसाइटी/नागरिक समाज का उदय राज्य के दमन के बावजूद 90 में हो रहे आर्थिक सुधारों और राजनैतिक उथल-पथल के बीच हुआ। उसमें 1995 में बीजिंग में हुए संयुक्त राष्ट्र के महिला सम्मेलन की एक मुख्य भूमिका है। दरसल 1989 के बाद अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन राजनैतिक रूप से अलग-थलग पड़ा था। वैसे में 1995 का विश्व सम्मेलन चीन के लिए एक बेहतर मौक़ा था दुनिया के सामने यह दिखाने का कि चीन में हालात सुधरे हैं और विचारों की आज़ादी की स्वतंत्रता है। इस कारण से राज्य ने कुछ मुद्दों को अपनी शर्तों पर उठने भी दिया। एक तरफ़ यह मौक़ा भी था लेकिन दूसरी तरफ़ यह डर भी था कि सम्मेलन में होने वाले जनतंत्र और महिला अधिकारों की बातें वहां की जनता को इस तरह उद्वेलित न कर दें कि उनके लिए नियंत्रण करना मुश्किल हो जाए।

The opening day session of the Fourth World Conference on Women in Beijing. Gertrude Mongella, Secretary-General of the Conference, addresses the session. UN Photo/Milton Grant

यही कारण था कि NGO फ़ोरम को उन्होंने बीज़िंग से लगभग 60 किलोमीटर दूर बाहर आयोजित किया ताकि लोगों और मीडिया की नज़रों से वह दूर रहे। फिर भी यह मौक़ा था चीन के सक्रिय पत्रकारों, प्रबुद्ध वर्ग, प्राध्यापकों और सक्रिय महिलाओं के लिए दुनिया भर से आये महिलावादी कार्यकर्ताओं और आंदोलन से मिलने का, कुछ सीखने का, अपने संघर्षों को साझा करने का और संवाद स्थापित करने का।

जिन लू, महिलवादी नेता और पत्रकार जो 2015 से अमेरिका में निर्वासित हैं, कहती हैं- “यह पहला मौक़ा था जब चीन में महिलाओं के मुद्दों पर चर्चा के लिए जगह बनी और चीन में गैर-सरकारी संगठनों (NGO) की अवधारणा भी आयी। इस तरह से चीन में एक संगठित सिविल सोसाइटी की नींव रखने में महिला संस्थाओं ने अहम भूमिका निभायी और उसके तर्ज़ पर आगे चल कर पर्यावरण, श्रम, भेदभाव विरोधी और मानवाधिकार संस्थाओं का उदय हुआ।“

चीन में कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बद्ध महिला, छात्र, मजदूर, सांस्कृतिक आदि कई संगठन हमेश से मौजूद हैं। उनके खुद के अखबार, विश्वविद्यालय, ट्रेनिंग केंद्र, सांस्कृतिक केंद्र और टुकड़ियां आदि पूरे देश में मौजूद हैं। कम्युनिस्ट पार्टी का लोगों के जीवन में एक अहम स्थान है। लोगों की दिक्कतें, परेशानियों और किसी मुद्दे को उठाने के लिए आपको इन संगठनों के माध्यम से ही पार्टी के भीतर बात उठानी होगी। एक स्वतंत्र व्यवस्था नहीं है और चीनी राज्य ऐसी किसी भी व्यवस्था के उभरने पर कड़ा नियंत्रण और नज़र रखती है। इसलिए किसी स्वतंत्र संस्था या ग्रुप का उदय संभव नहीं है और यही कारण है कि जब 1995 के बाद से कुछ महिला संस्थाओं ने महिला हिंसा और एक बच्चा नीति (single child policy) और उससे जुड़े ज़बरन गर्भपात के मुद्दे उठाने शुरू किये तो उन्होंने सरकारी इंस्टिट्यूट ऑफ़ लॉ और बाद में चीन लॉ सेंटर के साथ मिल कर काम शुरू किया। साथ ही सरकारी नौकरियों से रिटायर्ड, पार्टी से सम्बद्ध लोगों और सरकारी विश्वविद्यालयों में पढ़ा रहे प्राध्यापकों, पत्रकारों आदि ने मिलकर महिला मुद्दों पर काम कर रहे छोटे-छोटे लोगों को मिलकर एंटी डोमेस्टिक वायलेंस नेटवर्क (ADVN) की स्थापना की। इसमें प्रोफेसरों, पत्रकारों और कहें तो एक प्रबुद्ध वर्ग की भूमिका रही जो मीडिया के माध्यम से मुद्दे उठाता और फिर पार्टी के नेताओं को पेटिशन करता, ताकि मुद्दा किसी भी तरह उनके एजेंडा में शामिल हो और उन पर कार्यवाही हो सके।

2014 में जब अचानक ADVN ने अपने काम को बंद करने की घोषणा की उस समय उनके करीब 71 सदस्य, देश के 28 राज्यों और स्वायत्त क्षेत्रों में महिला मुद्दों पर हेल्पलाइन, काउंसलिंग सेंटर, कानूनी सहायता केंद्र आदि चला रहे थे और 2014 के वर्किंग प्लान में घरेलू हिंसा के खिलाफ कानून को मान्यता मिल चुकी थी। फिर भी उन्होंने उसे बंद किया, उसके हालात के बारे में आगे। इस तरह ADVN ने महिलावादी आंदोलन की नींव तो रखी लेकिन वह समाज के ऊपरी स्तर पर निहित था न की ज़मीनी स्तर पर। 

हुको व्यवस्था, मज़दूरों का शोषण और बदलाव की कोशिश  

इसी दौरान पर्यावरण और मज़दूरों से जुड़े मुद्दे भी उठाये जाने लगे। 1980 से शुरू हुए आर्थिक सुधारों ने 90 के दशक में जोर पकड़ा और तुरंत ही उसके असर भी दिखने लगे। एक तरफ आर्थिक विकास की दर तेज हुई, वहीं दूसरी तरफ नदी, जल, जंगल और ज़मीन दूषित हुए। जबरदस्ती भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया ने लाखों लोगों को बेघर किया और औद्योगिक इलाकों में पलायन को मजबूर किया, जहां वे पूरी तरह से बंधुआ मज़दूर की तरह रहे क्योंकि चीनी हुको प्रथा के तहत उनके सारे सामाजिक और आर्थिक हक़ उनके मूल स्थान से जुड़े हैं। इसलिए कहीं माइग्रेट करने के बावजूद उनकी शिक्षा और स्वस्थ्य की सुविधाएं उनके मूल गाँव में ही उपलब्ध होगी न की जहां वे काम करते हैं। इस कारण से नये औद्योगिक क्षेत्रों में वे पूरी तरह से उद्योगों पर आधारित रहे। आवास, शिक्षा और स्वास्थ्य किसी भी मुद्दे को लेकर। जाहिर है उस कारण उनका शोषण भी पूरा हुआ। एक तरफ असंगठित मजदूरों की बड़ी फ़ौज और दूसरी तरफ नष्ट होता हुआ पर्यावरण और फैलता हुआ प्रदूषण। इन सब के बीच हांगकांग से सटे दक्षिण राज्य गुआंगझोउ में कई वकीलों और एडवोकेसी संस्थाओं का उदय हुआ जिन्होंने पर्यावरण और मजदूरों के मुद्दे उठाने शुरू किये।

चीन में काम के लिए देश के अंदर कहीं भी आने-जाने की आज़ादी है लेकिन हुको व्यवस्था/स्थायी आवास प्रमाण पत्र के तहत उन्हें लोकल पार्टी यूनिट से आज्ञा लेनी पड़ती है और किसी नयी जगह के आवास प्रमाण पत्र जिसके तहत उन्हें नयी जगह पर अस्पताल स्कूल और अन्य सुविधाएं प्राप्त हो जाएं, उसके लिए कई मापदंडों को पूरा करना पड़ता है। इसलिए ज्यादा से ज्यादा लोग सरकारी नौकरी और साथ-साथ पार्टी और उससे जुड़े जन संगठनों में अपनी सक्रियता बना के रखते हैं, लेकिन एक बड़ी तादाद, लगभग 30 करोड़ की बड़ी आबादी ग्रामीण मजदूरों की है जिनका शोषण वहां के कारखानों में बदस्तूर जारी है।

Sun Zhigang died in the medical clinic of a detention center in Guangzhou.

आर्थिक सुधारों के साथ चीन की सामाजिक सुरक्षा की नीतियां भी बदलीं और इस कारण से पेंशन, मजदूर कल्याण आदि से जुड़े कानूनों का पालन न होना या नज़रअंदाज़ करना एक आम बात हो गयी। इन सबके बीच कागज़ी कार्यवाहियों का सिलसिला जारी रहा और 1994 में श्रम कानून पहली बार आये। 2008 में श्रम कॉन्ट्रैक्ट कानून आये और आखिर में 2011 में एक वृहद् सोशल इन्शुरन्स लॉ तैयार किया गया, लेकिन इनका पालन आज भी नहीं के बराबर है क्योंकि कोई भी स्वतंत्र ट्रेड यूनियन पंजीकृत नहीं हो सकती। इस कारण से लोगों ने वर्कर सेंटर/मजदूर केंद्रों का गठन किया और मजदूरों के मुद्दे उठाने शुरू किये।    

मज़दूर वकीलों और एडवोकेसी ग्रुप के कामों का ही नतीजा है की 2003 में सूं जेगांग नाम के मज़दूर की पुलिस कस्टडी में यातना के दौरान हुई मृत्यु और उससे उठे देशव्यापी शोरशराबे के बाद हुको व्यवस्था में कुछ सुधार किये गये। इन सुधारो के बावजूद आज भी हुको व्यवस्था मौजूद है और शहरों में स्थिति अगर थोड़ी ठीक हुई है तो ग्रामीण इलाके के मज़दूरों की स्थिति आज भी नाज़ुक हैं। 

बदलते समय में बदलती रणनीति  

मज़दूरों और महिलाओं के मुद्दों के अलावा 2000 के शुरूआती दौर में तेजी से बढ़ते एड़स और हेपॅटाटिस-बी से संक्रमित लोगों के प्रति भेदभाव के कारण कई भेदभाव विरोधी NGOs का भी उदय हुआ। दरअसल स्वास्थ्य परीक्षण सिर्फ सरकारी नौकरियों के लिए अनिवार्य नहीं है बल्कि विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए भी है। यहां भी हुको प्रणाली के तहत संक्रमित लोगों को अपने मूल निवास में रहने की मजबूरी है क्योंकि कहीं और इलाज संभव नहीं है। वैसे में ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोग सबसे ज्यादा प्रभावित हैं और इसलिए कई गाँवों को एड्स गाँव के नाम से जाना जाता है।

इसी दौरान कुछ अन्य रिसर्च और शिक्षण संस्थानों का भी उदय हुआ जिन्होंने सरकार की नीतियों में इनपुट डालना शुरू किया। ये ज्यादातर सरकारी संस्थाओं से सम्बद्ध थे और रिटायर्ड सरकारी नौकरों के द्वारा समर्थित थे इसलिए चीनी सरकार ने उन्हें अनुमति दी। सरकारी मीडिया में जो लोग सरकार की नीतियों से नाराज थे और खुल कर बोल नहीं सकते थे उन्होंने भी जनता में किसी मुद्दे को बहस के केंद्र में लाने में अपनी भूमिका निभायी- उदाहरण के तौर पर चीन के शहरों में भयानक प्रदूषण के खिलाफ माहौल बनाने में, जिसके कारण सरकार ने कई मत्वपूर्ण कदम उठाये और हालात बदले।

चीन में स्वतंत्र रूप से किसी भी एडवोकेसी संगठन या “संवेदनशील” मुद्दों पर काम करने वाली संस्था का पंजीकृत होना लाजिमी नहीं है और इसीलिए शुरुआत में अगर सभी संस्थाएं किसी सरकारी संस्था से सम्बद्ध रही तो बाद में उन्होंने अपने आप को उस नियंत्रण से अलग होने के लिए अपने आप को एक बिज़नेस यूनिट (मुनाफा कमाने वाली कंपनी) के तौर पर पंजीकृत किया, जिस कारण से वे हमेशा सरकार के निशाने पर रहे और हमेशा सम्भल कर काम करना पड़ा। क्या लिखें, क्या बोलें, क्या छापें, हर कदम फूंक-फूंक कर रखना पड़ा क्योंकि टैक्स नोटिस, पंजीकरण रद्द करना, आदि एक आम बात है। इन सबके बावजूद 2000 के शुरूआती दशक में कई महत्वपूर्ण संस्थाओं का हरेक क्षेत्र में उदय हुआ। इनके पीछे ज्यादातर विदेशी फॉउण्डेशन्स और संस्थाओं का एक बड़ा योगदान रहा है क्योंकि चीनी राज्य की ओर से एक तो कोई समर्थन और प्रोत्साहन भी नहीं और दूसरा जनता से बिज़नेस होने के कारण पैसा इकट्ठा कर नहीं सकते। यह सिर्फ वहां के लोकल NGOs के लिए ही लागू नहीं हुआ बल्कि कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं भी, जैसे ग्रीनपीस आदि भी शुरुआती दिनों में एक बिज़नेस के तौर ही पंजीकृत रहीं और काम कर सकीं।

Female students hold banners and protest in front of a public toilet calling for more cubicles for women during an “Occupy Men’s Toilet” movement in Guangzhou city, South China’s Guangdong province on Feb 19, 2012. During the demonstration, several female volunteers occupied some vacant cubicles in men’s toilet to let women waiting outside have priority use of the facilities. [Photo/CFP]

समय के साथ संस्थाओं के काम करने के तरीके में भी बदलाव आया। जैसे, पर्यावरण के मुद्दों पर काम करने वाले NGOs ने अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशनों जैसे जलवायु परिवर्तन पर होने वाले COP और वहाँ चीनी राज्य द्वारा किये गए समझौतों को अपने एडवोकेसी का जरिया बनाया, तो श्रम और महिला मुद्दों पर काम करने वालों ने सरकारी नियमों और संवैधानिक विचारों को। वहीँ नये युवाओं ने सोशल मीडिया का सहारा लिया अपनी बातों को कहने का और मुद्दों को उठाने का। जहां पुराने समय में महिला संस्थाएं पार्टियों के फोरम, मीडिया और नेताओं से लॉबिंग कर रही थीं वहीँ 1989 के बाद पैदा हुए युवाओं ने नये तरीके भी ईजाद किये- जैसे 2012 में शहरों में महिलाओं के लिए ज्यादा टॉयलेट की संख्या होने को लेकर आवाज़ उठाना या फिर घरेलू हिंसा को दर्शाने के लिए ब्लीडिंग ब्राइड ड्रेस पहन कर वैलेंटाइन डे के दिन फ़्लैश मोब आदि। युवा और नयी पीढ़ी की महिलावादी छात्रों ने आगे बढ़कर सरकार के खिलाफ कई और साहसिक कदम उठाये क्योंकि मोबाइल और इंटरनेट के युग में चीनी राज्य पूंजीवाद की चकाचौंध में उन्हें होने वाले परिणामों की जानकारी भी नहीं थी और न ही अपेक्षा। 

2008 का ओलिंपिक और दमन का नया चक्र  

यह सब 2005 से बदलना शुरू हो गया और 2008 का ओलिम्पिक आते-आते वहां मौजूदा संस्थाओं को कई तरह की दिक्क़तों का सामना करना पड़ा। दरअसल, 2008 के ओलिंपिक ने चीन को दुनिया के पटल पर आर्थिक और राजनैतिक दोनों क्षेत्रों में न सिर्फ सुपर पावर के तौर पर स्थापित किया बल्कि यह आत्मबल भी दिया किया कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय व्यापारिक और बाज़ारी व्यस्था के आगे मानवाधिकारों के हनन को मुद्दा नहीं बनाने वाला। इसलिए धीरे-धीरे उन्होंने एडवोकेसी संस्थाओं पर अपना शिकंजा कसना शुरू कर दिया जिसके कारण कुछ ही वर्षों में कई संस्थाएं बंद हो गयीं या फिर देश छोड़ कर चली गयीं।

2012-13 में राष्ट्रपति जी जिंपिंग के आने के बाद से माहौल और बदतर ही हुआ है। इसके बारे में अगले सप्ताह। 


नोट : इस लेख के लिए मैं चीन के विशेषज्ञ और स्वतंत्र लेखक ज़िल टें का आभारी हूँ, जो कई साल तक फ़्रेंच वेबसाइट मीडियापाथ के चीन संवाददाता रहे हैं।  

मधुरेश कुमार जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समन्‍वय (NAPM) के राष्ट्रीय समन्वयक हैं और मैसेचूसेट्स-ऐमर्स्ट विश्वविद्यालय के प्रतिरोध अध्ययन केंद्र में फ़ेलो हैं


About मधुरेश कुमार

मधुरेश कुमार जन आंदोलनों के राष्ट्रीय समनवय के राष्ट्रीय समन्वयक हैं और मैसेचूसेट्स-ऐमर्स्ट विश्वविद्यालय के प्रतिरोध अध्ययन केंद्र में फ़ेलो हैं (https://www.umass.edu/resistancestudies/node/799)

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