पिछले साल फरवरी के पहले सप्ताह की बात है। लखनऊ विश्वविद्यालय स्थित छात्रों-छात्राओं के मंच ‘संवाद’ द्वारा एक परिचर्चा आयोजित की जानी थी। परिचर्चा का विषय था ‘कला, साहित्य, और समाज’। दो दिवसीय कार्यक्रम में पहले दिन एक सेमिनार तथा दूसरे दिन एक कवि सम्मेलन और मुशायरे का आयोजन होना था। चूंकि ‘संवाद’ कोई रजिस्टर्ड संस्था नहीं है, आम छात्रों का बहस-मुबाहिसे का मंच है इसलिए आयोजन का पूरा इंतज़ाम छात्रों के चंदे से ही किया गया था।
पहले दिन के सेमिनार के वक्ताओं में हिंदी पट्टी के कई मशहूर नाम शामिल थे जिनमें आलोचक वीरेंद्र यादव, साहित्य के मसलों पर सक्रिय हस्तक्षेप रखने वाले रामजी राय, उर्दू के जानकार प्रोफेसर अली अहमद फातमी, लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष योगेंद्र प्रताप सिंह, विश्वविद्यालय के ही उर्दू विभाग के अध्यक्ष अब्बास रज़ा नैय्यर, रंगमंच के क्षेत्र से राकेश वेदा आदि प्रमुख थे। दूसरे दिन के मुशायरे में हिंदी-उर्दू के नौउम्र शायरों-कवियों को बुलाया गया था जिनमें अधिकतर लखनऊ के थे।
विश्वविद्यालय भर में आयोजन को लेकर चर्चा थी। दक्षिणपंथी खेमे के छात्र संगठन एबीवीपी में भी सुगबुगाहट थी। आम छात्र भी कार्यक्रम को लेकर काफी उत्साहित थे। विश्वविद्यालय के समाजकार्य विभाग का हॉल बुक हो गया था, सभी तैयारियां हो चुकी थीं, प्रचार हो चुका था।
कार्यक्रम के ठीक एक दिन पहले जब कार्यक्रम के आयोजक छात्र ‘क्लास-कैम्पेन’ करके कार्यक्रम के बारे में आम छात्रों को जानकारी दे रहे थे तभी प्रॉक्टर कार्यालय से आयोजकों को फोन किया गया। आयोजकों में से दो लोग प्रॉक्टर कार्यालय पहुँचे। संयोग से उन दो लोगों में से एक मैं भी था। प्रॉक्टर साहब ने बड़ी इज़्ज़त से बैठाया, बड़े सलीके से बात की और अंत में एक सपाट वाक्य कहा कि “ये जो आपका कार्य्रकम है न, इसे रद्द कर दीजिए”।
इस ठंडे लहज़े में कार्यक्रम (जिसकी तैयारी बीते 15 दिनों से की जा रही थी) रद्द करने के उनके आग्रह (पढ़ें दुराग्रह) का हमने कारण पूछा। प्रॉक्टर साहब के तर्क बेहद वाहियात थे। उन्हीं दिनों लखनऊ में ‘डिफेंस एक्सपो’ लगा हुआ था, सीधी भाषा में कहा जाय तो फौज के हथियारों और साजो-सामान आदि की प्रदर्शनी। डिफेंस एक्सपो में मोदी जी मुख्य अतिथि थे। प्रॉक्टर साहब ने कहा कि “मोदी जी आ रहे हैं, हमको इंटेलिजेंस से फोन आया है, कार्यक्रम रुकवाने का दबाव है, अगर कोई वक्ता कुछ मोदी-विरोधी बात बोल देगा तो मीडिया हौव्वा बना देगा और विश्विद्यालय का नाम ख़राब होगा”।
एक सेमिनार को रद्द करने का इससे वाहियात भी कोई तर्क हो सकता है क्या? लेकिन जो था सो यही था।
जब छात्रों की तरफ से तर्क दिया गया कि सारी तैयारियां हो चुकी हैं, पैसा खर्च हो चुका है, वक्ताओं को बुलावा भेजा जा चुका है, तो इस पर प्रॉक्टर साहब ने जवाब दिया कि या तो आप लोग रद्द कर दीजिए या फिर कल मैं हॉल में पहुंचकर पुलिस के साथ रद्द करवा दूंगा!
अंततः छात्रों को इस धमकी के आगे कार्यक्रम रद्द करना पड़ा। सभी वक्ताओं को सूचना दी गयी। जिन आम छात्रों में पहले उत्साह का माहौल था उनमें उदासी सी छा गयी। लखनऊ विश्वविद्यालय स्थित कई ‘प्रगतिशील और लोकतंत्र-पसन्द’ शिक्षक भी इस घटना पर मुखर नहीं हुए।
कार्यक्रम रद्द होने के अगले ही दिन एक ‘स्क्रीनशॉट’ विश्वविद्यालय के व्हाट्सएप समूहों में खूब चला जोकि विश्वविद्यालय की एबीवीपी इकाई के समूह का था। एबीवीपी के समूह में कार्यक्रम के पोस्टर के ऊपर लाल रंग से बड़े अक्षरों में ‘cancelled’ लिखकर खुशी मनायी जा रही थी। हमें समझते देर नहीं लगी कि मसला क्या है और किस ‘इंटेलिजेंस’ से प्रॉक्टर साहब को फोन आया था!
बाद में बात चली कि एबीवीपी ने ही ‘ऊपर’ फोन करके कार्यक्रम रद्द करने का दबाव बनाया था।
सबसे दिलचस्प तथ्य यह था कि प्रॉक्टर साहब ‘प्रॉक्टर’ बनने से पहले तक अम्बेडकर के विचारों के अनुयायी थे तथा बौद्ध मंचों से भाषण भी दिया करते थे। पद-प्रतिष्ठा व्यक्ति की वैचारिकी को कैसे इतनी जल्दी बदल देती है यह शोध का विषय होना चाहिए, खासकर भारतीय सन्दर्भ में।
बहरहाल, मुझे इस पूरे घटनाक्रम की याद अभी हाल ही में मध्यप्रदेश स्थित सागर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर अपूर्वानन्द एवं गौहर रज़ा के सेमिनार रद्द होने की घटना से हो आयी। जो भी लोग इस बात से हतप्रभ हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है वे शायद पुरानी घटनाएं भूल गए हैं या फिर मसला वक्ताओं की ‘प्रसिद्धि’ का होगा। तभी सागर विश्वविद्यालय परिसर में ‘साइन्टिफिक टेम्पर’ और अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा के लिए दिल्ली के बौद्धिक हल्के में दस्तखत अभियान चलाया गया जबकि लखनऊ की घटना पर यही तबका खामोश था।
जो बौद्धिक चेहरे अधिक ‘प्रसिद्ध’ हैं उनका सेमिनार रद्द हो जाना ज्यादा बड़ा सरोकार होना चाहिए, यह धारणा बहुत बड़ा भ्रम है। अब जब सवाल उठा है और बहस हो रही है तो अच्छा ही है। न्यूज़लॉन्ड्री पोर्टल पर छपे योगेश प्रताप शेखर के लेख में इस बात की ओर इशारा किया गया है कि बहस किस दिशा में जानी चाहिए। यह हर विश्वविद्यालय और विमर्श के सभी सार्वजनिक मंचों को बचाने का सवाल होना चाहिए। लखनऊ विश्वविद्यालय में छात्रों का कार्यक्रम रद्द होने पर अगर आप चुप रहेंगे तो यह चुप्पी सागर विश्वविद्यालय में भी कार्यक्रम रद्द होने देने में आपका योगदान होगी।
बाकी बात एक ‘असाधारण’ शायर के कालजयी शेर भर की ही है कि:-
लगेगी आग तो आएंगे घर कई ज़द में…