फिल्म ‘मुंबई मेरी जान’ की कहानी 2006 में मुंबई में लोकल ट्रेन में वीभत्स विस्फोट के इर्द-गिर्द रची गयी है। जब भी देश में किसी हादसे की वजह से सांप्रदायिक पारा बढ़ता है और नफरत के ढिंढोरे पिटने लगते हैं, उसका एक सीन हमेशा इस लेखक को याद आता है- जैसे कि हाल में पहलगाम की नृशंस घटना के उपरांत, जब मुसलमानों और खासकर कश्मीरी मुसलमानों के प्रति उंगलियाँ उठने लगी हैं और घिनौनी प्रतिक्रियाएं सुनने में आ रही हैं।
जिस सीन का ज़िक्र इधर किया जा रहा है, उसकी भूमिका।
कलाकार केके मेनन का किरदार बम विस्फोट के बाद शहर में आतंक के खिलाफ एक प्रकार का “विजिलेंस” करने की अपने आप ठान लेता है। देर रात शराब पीते हुए वह एक वृद्ध पाव-ब्रेड विक्रेता को रोकता है जो अपनी साइकिल धकेलता हुआ जा रहा है। यह व्यक्ति वेशभूषा से मुसलमान प्रतीत होता है। केके उससे पूछता है कि उसके थैले में बम तो नहीं है, और क्या ट्रेन के विस्फोट में उस पाव-विक्रेता का कोई रिश्तेदार तो नहीं शामिल था। उस भौंचक्के विक्रेता से प्रश्न पूछते-पूछते केके उग्र होता जाता है।
इतने में इत्तेफाक से वहां मोटरसाइकिल पर सवार मुंबई पुलिस के दो कर्मचारी आ जाते हैं। पिछली सीट पर अभिनेता परेश रावल हैं, जो फिल्म में सब-इंस्पेक्टर पाटील का किरदार निभाते हैं। पाटील, केके मेनन के बर्ताव पर उसे टोकता है। उनमें कहा-सुनी हो जाती है। केके, सब-इंस्पेक्टर पाटील को ज़मीन की तरफ धक्का दे देता है और वहां से भाग जाता है।
कुछ दिन बाद जब सब-इंस्पेक्टर पाटील शहर में पुलिस-गाड़ी में अन्य सहकर्मियों के साथ गश्त लगा रहा होता है तो उसे सड़क पर अचानक केके मिल जाता है। पाटील बहुत विनम्रता से केके को गाड़ी के अंदर बुला लेता है। फिर अपने एक सहकर्मी की और इशारा कर केके से कुछ ऐसा कहता है- यह देखो, मेरे पास बैठा है आदम शेख। गुस्सा आता होगा न इन लोगों पर? गोली से उड़ा देता मैं आपकी जगह होता तो। लफड़ा क्या है, मैं आपकी जगह ले नहीं सकता, लूंगा भी नहीं…।
इसके बाद काफी सशक्त रूप से पाटील, बहुत बखूबी और बारीकी से, कहता है कि हिंसा का सिलसिला हिंसक उत्तर-प्रत्युत्तर से कभी खत्म नहीं हो सकता है। हमें कुछ अलग करना होगा…।
फिल्म में यह “कुछ अलग करने की बात” केके पर एक प्रकार का प्रभाव डालती है, लेकिन एक तरह से पाटील ने पहले ही अपने नैतिक रवैये का, अपनी मानवीय सोच की तटस्थता का बयान कर दिया था- “लफड़ा क्या है, मैं आपकी जगह ले नहीं सकता, लूंगा भी नहीं…”, कह कर।
कुछ चंद हानिकारक और विनाशकारी सोच वाले लोगों की वजह से उन लोगों के क़ौम, नस्ल, जाति, प्रजाति इत्यादि के अन्य सभी लोगों से घृणा और नफरत का रुख अपनाना कोई विवेकपूर्ण और प्रशंसा-योग्य नज़रिया या दृष्टिकोण नहीं है।
जैसे पाटील समझाता है, हो सकता है प्रतिशोध की भावना और एक हिंसक प्रतिक्रिया उस वक़्त स्वाभाविक प्रतीत हो पर किसी भी ऐसे विचार को कार्यरत करना, उसके आवेश मे बह जाना, यह निर्णय हमारा है। इसमें केवल साधारण मानवता का विवेक चाहिए, जो हम मनुष्यों की धरोहर कहलाती है। नकारात्मक और हानिकारक प्रवृत्तियों को वश मे रखना एवं सद-बुद्धि से भ्रमित रास्ते पर न कदम रखना, यह कठिन घड़ियों की चुनौतियां हैं, हरेक नागरिक के सम्मुख।
एक बार फिर, पहलगाम के बाद एक विषैला वातावरण, द्वेष से प्रदूषित माहौल, शक, संदेह का अंतर्प्रवाह और अंतर्भाव – यह खुद में सामाजिक सद्भाव और संतुलन के लिए अत्यंत हानिकारक है। खासकर, जब सत्ताधारी स्पष्ट रूप से ऐसे वातावरण के पनपने और फ़ैलने के रोकथाम के लिए कोई कदम नहीं ले रहे हैं।
तब उम्मीद और आकांक्षा हमारे पाटील जैसे लोगों से होती है, जिनका ज़मीर साफ और सधा हुआ हो। जो अपने विश्वास, विवेक और मानवता के आधार पर अपने स्थान पर अडिग रहते हैं, और कितनी भी नैसर्गिक लगने वाली भावनाओं के वशीभूत होकर अपने सरल मानवीय धर्म को किसी हाल में नहीं त्यागते हैं। नफरत, अफवाह और उकसाने से प्रभावित नहीं होते हैं वरन सबके हक और इंसाफ के लिए समर्पित रहते हैं। ऐसे लोग आम जनता के संघर्ष को समझते हैं और पूंजी-प्रिय, सत्ता-प्रिय लोगों के दुष्प्रचार को भांप जाते हैं, उन साजिशों को जो फूट डालने की हों, सत्ता और पूंजी हड़पने की हों, समाज में अस्थिरता लाकर।
उमंग कुमार दिल्ली एनसीआर में सामाजिक कार्यकर्ता हैं।