मॉडल कंक्लूसिव लैंड टाइटल एक्ट व रूल्स: संघीय ढांचे के खिलाफ नीति आयोग की नयी पेशकश


जिनके सरोकार बदलती दुनिया और एक नियमित अंतराल पर केंचुल बदलते पूंजीवाद से रहे हैं वे लंबे समय से यह बात कहते आ रहे हैं कि भारत की संसद की संप्रभुता कहीं और से संचालित होने लगी है। नीति आयोग के गठन के बाद यह बात स्पष्ट होती जा रही है। इस नयी नवेली संस्था को महज़ योजना आयोग के स्थानापन्न के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। यह बात भी इसके गठन के साथ ही उठी थी।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रान्स्फ़ोर्मिंग इंडिया (NITI) अर्थात नीति आयोग के गठन से यह शंकाएं स्पष्ट हो गईं कि यह संस्थान और आयोग एक साथ दो भूमिकाओं का निर्वाह करेगा। जहां संस्थान के तौर पर यह भारत की सर्वोच्च संस्था के पूरक (व्यावहारिकता में उसके ऊपर) का काम करेगा वहीं आयोग के तौर पर यह उनके नीतियों के निर्माण व क्रियान्वयन में सहायक संस्था के तौर पर भी काम करेगा। इसके अध्यक्ष पदेन प्रधानमंत्री ही होंगे लेकिन योजना आयोग की तरह इसमें उपाध्यक्ष की जगह एक स्वायत्त मुख्य कार्यकारी अधिकारी की नियुक्ति इसे अलग तरह से विशिष्ट बनाती है।

अपने गठन के बाद से ही इस संस्थान व आयोग ने दोनों भूमिकाओं का बढ़-चढ़ कर निर्वाह किया है और संसद व संसद सदस्यों की उपयोगिता को महज़ निर्वाचन के मार्फत जनता की सहमति लेने तक ही संकुचित किया है। मामला चाहे देश में अधोसंरचना को लेकर प्रस्तावित अल्ट्रा मेगा प्रोजेक्ट्स का हो या स्वास्थ्य-शिक्षा जैसे बुनियादी दायित्यों का, यह संस्थान संसद से ऊपर और उसके समानान्तर काम कर रहा है। सांसदों की भूमिका अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों के प्रतिनिधि के तौर पर किसी कानून, नीति या महत्व के फैसले लेने की थी, जो अब व्यावहारिक तौर पर उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दी गयी है।

नीति आयोग नामक इस संस्थान व आयोग ने कानून व नीतियां बनाने और संघीय ढांचे को किनारे करते हुए उन्हें राज्यों पर थोपने में अतिसक्रिय भूमिका निभाना शुरू कर दिया है। ताज़ा मामला प्रस्तावित लैंड टाइटलिंग एक्ट के मसौदे का है जो अचानक चर्चा में आया है।

कोरोनाकाल में देश ने हर दिशा में अप्रत्याशित लेकिन अवांछनीय गति पकड़ी है। तमाम ऐसी नीतियां, नियम, कानून और पहलकदमियां इस दौर में हुई हैं जिन्हें देश के प्रधानमंत्री ने ‘आपदा में अवसर’ जैसी युक्ति में सारबद्ध किया है। जब लगभग 50 दिनों से बंद पड़े देश का ताला बेहद सतर्कता से खोला जा रहा था, राज्यों की सीमाएं अब भी अंतरराष्‍ट्रीय सीमाओं की मानिंद पेश आ रही थीं, सामान्य नागरिक आवाजाही और दैनंदिन कार्य-व्यापार अब भी राष्ट्रीय आपदा नियंत्रण कानून और राष्ट्रीय महामारी कानून के अंतर्गत थे, संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार इन दो क़ानूनों के अंतर्गत ही प्रयोग में लाये जा सकते थे, ऐन इसी समय 2 जून 2020 को नीति आयोग देश के सभी राज्यों को लैंड टाइटलिंग एक्ट का मसौदा भेजता है और उन्हें कहता है कि या तो इसी मसौदे को या इसकी तर्ज़ पर तैयार किए गए मसौदे को अंगीकार करें और उसका क्रियान्वयन करें। इस पत्र में ‘ना’ कहने की गुंजाइश राज्यों के पास नहीं थी।

ज़ाहिर है राज्य सरकारें उस वक़्त कोरोना से जूझ रही थीं और अपनेअपने राज्य के नागरिकों के लिए कुछ इंतज़ामात कर रही थीं इसलिए बहुत कम राज्यों ने इस पत्र का संज्ञान लिया होगा। संस्थान व आयोग ने पुन: 17 जुलाई को राज्यों को इस बाबत याद दिलाया और उन्हें फिर कहा कि आप एक पखवाड़े के भीतर इस मसौदे पर या थोड़े बहुत संशोधनों के साथ अंगीकार किए गए मसौदे पर सहमति दें अन्यथा यह आयोग तय सीमा में कोई जवाब न दिये जाने की सूरत में यह मान कर चलेगा कि आप ‘इसी और इसी’ मसौदे से सहमत हैं। इसके बाद इस मसौदे को सार्वजनिक कर दिया जाएगा।

इस संदर्भ में अंतिम पत्र 21 सितंबर 2020 को नीति आयोग की जानिब से राज्य सरकारों को लिखा गया और उसमें भी यही चेतावनी दोहरायी गयी कि या तो राज्य सरकारें इस मामले में नीति आयोग के मसौदे को स्वीकार कर लें या इसकी तर्ज़ पर अपना मसौदा दें अन्यथा नीति आयोग यह मानने के लिए सक्षम है कि राज्य सरकारों की सहमति इस मसौदे के साथ है। अब यह मसौदा सार्वजनिक है।

अब भी ज़्यादातर राज्यों ने इस मसौदे पर कोई राय नहीं दी है। बीते जून से पंजाब व हरियाणा में जारी किसान आंदोलन और 26 नवंबर से देश की राजधानी दिल्ली से लगे राज्यों की सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन तीन कृषि क़ानूनों की जिस मंशा पर सवाल उठा रहे हैं, ठीक वही मंशा इस मसौदे में भी दोहरायी गयी है। यही वजह है कि अभी नीति आयोग और केंद्र सरकार तय सीमा बीत जाने के बाद भी इस मसौदे को लेकर कोई कार्यवाही करने से बचती हुई दिखलायी दे रही है। 

प्रस्तावित लैंड टाइटल कानून है क्या?

दरअसल यह एक राष्ट्र, एक दल, एक झण्डा, एक विधान और एक नेता की सूक्ति से सम्पन्न ग्रामीण, कस्बाई व शहरी क्षेत्रों में विवादित निजी स्वामित्व की सम्पत्तियों के नियमितीकरण के लिए एक सार्वभौमिक व्यवस्था थोपे जाने का आगाज़ है।

इसे विधिवत कानूनी स्वरूप दिया गया है। यहां तक कि जो मसौदा नीति आयोग ने राज्यों को भेजा है उसे एक टेम्पलेट के तौर पर भी देखा जा सकता है जहां केवल राज्यों के नाम या राज्यों द्वारा इस कानून विशेष को दिये गये नाम और उसे लागू करने की तिथियों को लेकर ही बदलाव की ज़रूरत है, बाकी विषयवस्तु समान रहने वाली है।

इस मसौदे को मॉडल कंक्लूसिव लैंड टाइटल एक्ट व रूल्स कहा गया है। नीति आयोग के पत्र की इस भाषा को लेकर भी सवाल उठाये जा रहे हैं कि क्या नीति आयोग को यह अधिकार दिये जा चुके हैं कि वो बजाफ़्ता किसी ऐसे विषय पर कानून और उसके नियमों का प्रारूप तैयार कर सकता है जो संविधान में समवर्ती सूची में हों और जिन पर कानून बनाने और उनके क्रियान्वयन के नियमों को बनाने का सम्पूर्ण अधिकार राज्यों की विधानसभाओं को है?

अगर यह प्रारूप महज़ सुझावात्मक है तो नीति आयोग के पत्र में ही इस बात के क्या मायने हैं कि अगर निर्धारित तिथि तक राज्यों ने इस प्रारूप या इसकी तर्ज़ पर बनाये नये प्रारूप का मसौदा प्रस्तुत नहीं किया तो यह मान लिया जाए कि राज्यों को इसी प्रारूप से सहमति है और फिर तत्सम्बंधी आगे की कार्यवाही के लिए नीति आयोग स्वतंत्र हो जाएगा?

लेकिन यह बात केवल इसी प्रस्तावित कानून पर लागू नहीं होती। इससे पहले भी नीति आयोग इसी तरह की सर्वोच्चता प्रस्तुत करते आया है। अचल संपत्ति के मामले में यह महज़ संयोग नहीं है कि नीति आयोग केवल उन्हीं सिफ़ारिशों को आधार बनाकर क़ानूनों के प्रारूप तैयार करते आ रहा है जो विश्व बैंक की 2007 की रिपोर्ट में दर्ज हैं। काबिले तारीफ बात यह ज़रूर है कि विश्व बैंक की रिपोर्ट में जिस सुधार को महज़ एक पैराग्राफ में लिखा गया है, उसे नीति आयोग बजाफ़्ता एक नहीं कई क़ानूनों की की शक्ल दे सकता है।

विश्व बैंक की भारत में भूमि नीति या लैंड पॉलिसी का ज़िक्र पृष्ठ संख्या 92 में दर्ज़ है जिसको आधार बनाकर कितने ही क़ानूनों व नीतियों को ठोस स्वरूप दिया गया है।

इसी कड़ी में यह एक नयी पेशकश है- यह न्यू इंडिया का एक ऐसा कानून है जिसका उद्देश्य तमाम निजी अचल संपत्ति पर नियत तिथि तक हुए कब्ज़ों को टाइटल में बदलना है। यह अचल संपत्ति मुख्यतया निजी ज़मीनें हैं। इसके अलावा कुछ और महत्व की संपत्तियां मसलन जलस्रोत, निजी अहाते, फ्लैट, मकान, खेत आदि शामिल हैं। प्रथमदृष्ट्या यह लगता है कि यह जबरन या यथास्थिति में तमाम तरह के कब्ज़ों को वैध घोषित किए जाने की कोशिश है ताकि इन सम्पत्तियों पर चले आ रहे विवादों का अंतिम समाधान प्राप्त किया जा सके। इसे ऐसे भी देखा जा रहा है कि वास्तव में अवैध कब्जों को हटाकर उस भूखंड विशेष के असल मालिक को उसका अधिकार दिलाने के लिए है। इसका निर्धारण इस बात से होगा कि कौन उस ज़मीन या भूखंड के सच्चे कागजात पेश कर सकता है।

प्रचलित अर्थों में समझने की कोशिश करें तो यह वास्तव में ज़मीनों का राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर तैयार करने की कवायद है और यही बात आने वाले समय में लोगों की असल चिंता का सबब होने जा रही है, हालांकि इसमें हरित क्षेत्रों को परिभाषा से बाहर रखा गया है। साझा या सामुदायिक संपत्ति को भी इसके दायरे से बाहर रखा गया है।  

इसके तहत ऐसी तमाम सम्पत्तियों का डिजिटलाइजेशन किया जाएगा जो अभी पुराने दस्तावेज़ों में दर्ज़ हैं। इससे तमाम प्राचीन रिकार्ड्स का आधुनिकीकरण हो जाएगा और वो संसार भर में किसी के लिए भी ‘एक क्लिक की दूरी’ पर मौजूद रहेंगी।

इसके तहत एक भूमि प्राधिकरण बनेगा जो इस कानून के तहत एक महत्वपूर्ण संस्था होगी, जिसके पास इन सम्पत्तियों का सारा रिकार्ड भी रहेगा और उसके असली मालिकों का विस्तृत ब्यौरा भी होगा। इसके लागू होने के बाद यह अंतिम रूप से तय किया जा सकेगा कि एक संपत्ति विशेष पर अंतत: अधिकार किसका होगा।

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इस कानून के मसौदे में परिभाषाओं वाले भाग में विशेष यान्त्रिकी गठित करने पर ज़ोर दिया गया है। पुरानी चली आ रही राजस्व विभाग, ग्राम पंचायत, तहसील आदि को या तो इसमें तवज्जो नहीं दी गयी है या उनका नवीनीकरण कर दिया गया है। इतना स्पष्ट है कि एक प्राधिकार के तौर पर टाइटल रजिस्ट्रेशन ऑफिसर का पद सृजित किया गया है जो स्थानीय स्तर पर एक खास क्षेत्र के लिए प्राथमिक प्राधिकार होगा। इसके अलावा इसमें एक नया पद भूमि विवाद निपटान अधिकारी यानी लैंड टाइटल डिसप्यूट ऑफिसर  का भी होगा जो नाम से ही ज़ाहिर है कि ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करेगा जहां विवाद की स्थिति हो या टाइटल रजिस्ट्रेशन ऑफिसर किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पाये या किसी पार्टी को रजिस्ट्रेशन ऑफिसर के फैसले से आपत्ति हो। ज़मीनों से जुड़े विवादों में न्यायालयों की भूमिका को खारिज करते हुए यह मसौदा नौकरशाही को महत्व देता हुआ लगता है। इसे ब्रिटीशकालीन राजस्व व्यवस्था की वापसी के तौर भी देखा जा सकता है जहां किसी राजस्व अधिकारी को यह अख़्तियार था कि वह मौका मुआयना करके, दावेदारों की दलीलें सुनकर ज़मीन पर मालिकाना तय कर सकता था।

विवादों के निपटारे के लिए एक उच्चस्तरीय लैंड टाइटल अपीलेट अथॉरिटी यानी भूमि के टाइटल पर विवाद की स्थिति में और जिसे लैंड टाइटल डिसप्यूट ऑफिसर सुलझा नहीं पाया या उसके फैसले से किसी पक्ष को आपत्ति है, वो इस अथॉरिटी में याचना कर सकता है। इसके बाद लैंड टाइटल मुकम्मल हो जाएगा। इसे कंक्लूसिव लैंड टाइटल कहा जाएगा। कंक्लूसिव लैंड टाइटल का फैसला हो जाने यानी अंतिम रूप से तय हो जाने के बाद कि अमुक ज़मीन का असली मालिक कौन है, इसे मौजूदा दीवानी मामलों के कोर्ट्स में चुनौती नहीं दी जा सकेगी बल्कि उच्च न्यायालय में इसके संबंध में याचिका लगायी जा सकेगी। तीन साल की निश्चित अवधि के बाद इसे अंतिम रूप से स्वीकार करना होगा।  

आप अखबार पढ़ते रहिए, उधर डिजिटल हो चुकी आपकी खसरा-खतौनी लुटने वाली है

ज़मीन के हर टुकड़े को एक विशिष्ट पहचान संख्या प्रदान की जाएगी। इस लिहाज से हम समझ सकते हैं कि यह ज़मीनों व अन्य अचल सम्पत्तियों का ‘आधार कार्ड’ बनाने का प्रयास है। चूंकि ज़मीनों की निजता का मामला मौलिक अधिकारों के दायरे में नहीं आता है सो इस पर ज़मीनें सर्वोच्च न्यायालय नहीं आ सकतीं। लगभग यही कोशिश इस कानून में भी है कि लोगों को इस बात के लिए हतोत्साहित किया जाये कि अपीलेट अथॉरिटी से आगे जाने की ज़रूरत न हो। बहरहाल।

इतने सब प्रयोजनों से सरकार की असल मंशा की भनक नहीं लगती और इसलिए भी शायद योजना आयोग जैसी कतिपय पुराने संस्कारों से बद्ध संस्था को नीति आयोग नामक संस्थान व आयोग में तब्दील किया गया ताकि बारीकी से काम हो और असल मंशा से परदादारी बनी रहे। इसमें एक परिभाषा ‘डेवलपमेंट एग्रीमेंट’ की भी है। इसकी व्याख्या करते हुए डेवलपर या प्रोमोटर  का भी इस्तेमाल हुआ है। इस एग्रीमेंट का अर्थ है कि किसी भी ऐसी संपत्ति का अनुबंध जो डेवलपर या प्रमोटर के साथ निर्माण के लिए, विकास के लिए या विक्रय किये जाने की दशा में तैयार किया गया हो उसे ‘डेवलपमेंट एग्रीमेंट’ कहा जाएगा।

यहां आकर इसके मूल उद्देश्य समझ में आते हैं। लंबे समय से यह बात भी कही जा रही है कि दुनिया में सीमेंट, इस्पात और निर्माण में प्रयोग होने वाली मशीनरी का इफ़रात में उत्पादन हो चुका है और ऐसे में भारत जैसे तीसरी दुनिया के देश पर यह महती ज़िम्मेदारी आन पड़ी है कि इस अतिरिक्त उत्पदान की खपतगाह बने। इसके अलावा निर्माण क्षेत्र में संभावनाएं बनायी हुई हैं। इसलिए यह कानून निर्माण क्षेत्र में रिहायशी जरूरतों को पूंजी निवेश के लिए द्वार खोलने के लिए है। इस प्रस्तावित कानून को अमली जामा पहनाने के लिए सभी राज्यों को अपने अपने मौजूदा राजस्व व्यवस्थाओं में व्यापक फेर-बदल करने की ज़रूरत पेश आएगी। इसके अलावा ज़मीन के हस्तांतरण से संबंधित राजस्व संहिताओं में आमूल परिवर्तन करने होंगे। इसके लिए तमाम राज्य कितने तैयार हैं और उन्हें लोगों का कैसा सहयोग मिलेगा अभी कहना कठिन है लेकिन इसे मौजूदा किसान आंदोलन के संदर्भों में देखें तो इसे भी जन समर्थन मिलने के आसार नहीं दिखलायी देते हैं।


सत्यम श्रीवास्तव सामाजिक कार्यकर्ता हैं और जनपथ पर हर बुधवार बात बोलेगी नामक स्तम्भ लिखते हैं


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