छत्तीसगढ़: आदिवासी हत्याकांडों पर गठित न्यायिक जांच आयोगों के जाल में फंसा न्याय


छत्तीसगढ़ में नक्सली करार देकर आदिवासियों की हत्या के आरोप अक्सर ही सुरक्षा बलों पर लगते रहे हैं। इनमें से कितने सही हैं यह तो कत्ल कर दिए गए आदिवासियों के परिजन बता सकते हैं या फिर सुरक्षा बल के अधिकारी] मगर यह भी उतना ही सच है कि केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो खुद सर्वोच्च न्यायालय में यह बात स्वीकार चुका है कि सुकमा जिले के ताड़मेटला, तिम्मापुर और मोरपल्ली में आदिवासियों के 252 घर जला दिये गए थे। बीते सोमवार 14 मार्च को विधानसभा में रखी गयी जस्टिस वीके अग्रवाल कमीशन की रिपोर्ट ने एक बार फिर आदिवासियों के जख्मों को हरा कर दिया है। यह रिपोर्ट बीजापुर जिला अंतर्गत एडसमेटा गांव में 17 व 18 मई 2013 को हुई हत्याओं से सम्‍बंधित है।

उल्लेखनीय है कि एडसमेटा में 2013 में सुरक्षाबलों और माओवादियों के बीच कथित गोलीबारी में तीन बच्चों और सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन के एक जवान समेत आठ ग्रामीणों की जान चली गयी थी। ग्रामीणों का कहना था कि वे सभी देवगुडी में बीज त्यौहार मनाने के लिए इकट्ठा हुए थे। इसी दौरान पुलिस मौके पर पहुंची और निरोधों दौड़ा-दौड़ा कर मारा। कर्मा पाडू, कर्मा गुड्डू, कर्मा जोगा, कर्मा बदरू, कर्मा शम्भू, कर्मा मासा, पूनम लाकु, पूनम सोलू की मौत हो गई। इसमें तीन कम उम्र के बच्चे थे। इसके अलावा, छोटू, कर्मा छन्नू, पूनम शम्भु और करा मायलु घायल हो गए। कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमले से ठीक आठ दिन पहले घटी इस घटना को मानवाधिकार उल्लंघन की गंभीर घटनाओं में गिना जाता है। इस पर तत्समय विपक्ष में रही कांग्रेस ने वर्तमान में विवादों में घिरे कवासी लखमा के नेतृत्व में एक जांच दल भी बनाया था। घटना के बाद राज्य सरकार ने ग्रामीणों के लगातार विरोध प्रदर्शन के बाद घटना की जांच के लिए न्यायमूर्ति वी.के. अग्रवाल की अध्यक्षता में न्यायिक आयोग का गठन किया था। तत्कालीन रमन सिंह सरकार ने मृतकों के परिजनों को पांच-पांच लाख का मुआवजा देने का भी ऐलान किया था जिस पर पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने कहा था कि अगर सरकार मृतकों के परिजनों को मुआवजा दे रही है तो उन्हें माओवादी कैसे माना जा सकता है।

जस्टिस अग्रवाल कमीशन की रिपोर्ट सितंबर 2021 को ही राज्य कैबिनेट के सामने प्रस्तुत कर दी गयी थी जिसे छह माह पश्‍चात राज्य विधानसभा में प्रस्तुत किया गया। इस रिपोर्ट में कहा गया है, ‘सुरक्षाबलों ने आग के आसपास कुछ लोगों को देखा था। पहले ये कहा गया कि जवानों को संभवतः ये लगा कि वे माओवादी हैं, इसलिए उन्होंने आत्मरक्षा में गोली चलायी जबकि पहले बताया जा चुका है कि इन लोगों से सुरक्षाबलों को कोई खतरा नहीं था। ये साबित नहीं हो पाया है कि उस जगह पर जो लोग इकट्ठा हुए थे, उन्होंने सीआरपीएफ पर कोई हमला करने की कोशिश की थी। इसलिए सुरक्षाबलों द्वारा आत्मरक्षा में गोली नहीं चलायी गयी थी, बल्कि ये संभवतः घबराहट में की गई कार्रवाई थी। अगर सीआरपीएफ के पास प्रभावी गैजेट्स होते और उन्हें खुफिया जानकारी मुहैया करायी गयी होती तो इस फायरिंग से बचा जा सकता था।’

रिपोर्ट में यह संभावना भी व्यक्त की गई है कि कोबरा कमांडो देव प्रकाश की मौत उनके ही दल के सदस्य की गोली लगने से हुई। इसके अलावा रिपोर्ट में स्थानीय पुलिस द्वारा घटना की जांच के संबंध में की गयी चूक की ओर भी इशारा किया गया है।

जस्टिस अग्रवाल समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सुरक्षाबलों की और बेहतर ट्रेनिंग कराई जाय ताकि वे क्षेत्र की सामाजिक, भौगोलिक और धार्मिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए कदम उठा सकें। उन्होंने कहा कि खुफिया सूचना की व्यवस्था को मजबूत करने की जरूरत है और सुरक्षाबलों को बुलेट प्रूफ जैकेट, नाइट विजन डिवाइसेज़ जैसी अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस किया जाना चाहिए ताकि उनमें आत्मविश्वास आए और वे घबराहट में कोई कार्रवाई न करें। राज्य सरकार ने आयोग की सिफारिशों पर एक कार्रवाई रिपोर्ट भी पेश की है। इसमें कहा गया है कि सरकार स्थानीय खुफिया तंत्र को मजबूत करने के लिए लगातार प्रयास कर रही है और भविष्य में ऐसी घटनाओं से बचने के लिए एक काउंटर-इंटेलिजेंस सेल की स्थापना की जाएगी।

छत्तीसगढ़ विधानसभा में इससे पहले 2 दिसंबर 2019 को बीजापुर के सारकेगुड़ा में हुई मुठभेड़ की न्यायिक जांच रिपोर्ट पेश की गई थी। 28 और 29 जून 2019 की दरम्यानी रात बीजापुर के सारकेगुड़ा इलाके में सीआरपीएफ और सुरक्षाबलों के हमले में 17 लोग मारे गये थे। हमेशा की ही तरह सरकार ने उस समय भी दावा किया था कि बीजापुर में सुरक्षाबल के जवानों ने एक मुठभेड़ में 17 माओवादियों को मार डाला है। तब राज्य में भाजपा की और केंद्र में यूपीए की सरकार थी। तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने इसे बड़ी उपलब्धि माना था, लेकिन न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट में इस पूरे दावे को फर्जी ठहराते हुए कहा गया कि मारे जाने वाले लोग निर्दोष आदिवासी थे और पुलिस की एकतरफा गोलीबारी में मारे गये थे। वर्ष 2019 में जब विधानसभा में रिपोर्ट पेश की गयी, तब मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने कहा था कि सरकार इस रिपोर्ट पर कड़ी कार्रवाई करेगी। उन्होंने कहा था, ‘‘सत्रह निर्दोष आदिवासी मारे गये हैं और इसके लिए जो भी जिम्मेदार हैं, उनके विरुद्ध कठोर कार्रवाई की जाएगी। इस मामले में किसी को माफ करने का सवाल ही नहीं उठता।’’ यह अलग बात है कि आज तक इस रिपोर्ट पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है।

इसी तरह सुकमा जिले के ताड़मेटला, मोरपल्ला व तिम्मापुर में 2011 में 259 आदिवासियों के घरों को जलाये जाने की घटना की न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट इस साल जनवरी में सरकार को सौंपी जा चुकी है, लेकिन रिपोर्ट अब जाकर बुधवार को विधानसभा में पेश की गयी। यह जांच किसी निष्कर्ष पर ही नहीं पहुंची जबकि खुद केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो ने अपनी जांच में सुरक्षा बलों को इसके लिए दोषी मानते हुए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष जांच प्रतिवेदन प्रस्तुत किया था। एडसमेटा हत्याकांड की जांच रिपोर्ट को भी पिछले साल जुलाई में ही सरकार को सौंपा गया था। इसके बाद जुलाई और दिसंबर में भी विधानसभा सत्र आहूत किए गए मगर लेकिन अब कहीं जाकर सरकार ने न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट को विधानसभा में प्रस्तुत किया। इस रिपार्ट में भी निर्दोष आदिवासियों के हत्यारों के विरुद्ध कठोर अनुशंसा नहीं की गयी है।

वहीं, 25 मई 2013 को बस्तर के झीरम घाटी कांड में माओवादी हमले में कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेताओं समेत 29 लोगों की मौत की न्यायिक जांच पर जानकारों के लगातार सवाल उठाने के बाद भी बघेल सरकार ने रहस्यम चुप्पी ओढ़ी हुई है। किसी राजनीतिक दल पर स्वतंत्र भारत में हुए इस सबसे बड़े हमले में पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल, प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष व पूर्व गृहमंत्री नंदकुमार पटेल, पूर्व मंत्री महेंद्र कर्मा समेत 29 लोग मारे गये थे। इस घटना की एनआइए जांच भी अब तक अटकी हुई है। इस हत्याकांड की न्यायिक जांच के लिए गठित जस्टिस प्रशांत मिश्रा की अध्यक्षता वाले एकल सदस्यीय आयोग ने 6 नवंबर 2021 को अपनी रिपोर्ट राज्यपाल को पेश कर दी थी मगर राज्य सरकार ने इसे अधूरी बताते हुए जांच आयोग में नये सदस्यों की नियुक्ति कर दी और जांच के लिए तीन नये बिंदुओं को भी शामिल कर दिया। इसके बाद से आयोग की ओर से खास प्रगति की कोई सूचना नहीं है।

इसी प्रकार 2019 के लोकसभा चुनावों में प्रचार के दौरान भाजपा विधायक भीमा मंडावी समेत पांच लोग संदिग्ध माओवादियों के विस्फोट में मारे गये थे। इस मामले की जांच के लिए जस्टिस एससी अग्निहोत्री की अध्यक्षता में एकल सदस्यीय कमेटी गठित की गयी थी। इस जांच आयोग की रिपोर्ट भी अब तक लंबित है।

ऐसे में आदिवासी अधिकारों एवं मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत कार्यकर्ता यह सवाल उठा रहे हैं कि न्यायिक जांच आयोग से परे हट कर क्या कभी आदिवासियों को वास्तविक न्याय मिल पाएगा। पूर्व केंद्रीय मंत्री, कांग्रेस नेता और सर्व आदिवासी समाज के अरविंद नेताम भी इसी बात को लेकर चिंतित हैं। राज्यपाल अनुसूईया उइके को पत्र लिखकर पिछले दिनों सरकार के पास आई सारकेगुड़ा, एडसमेटा और ताड़मेटला कांड न्यायिक जांच आयोग की रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की उन्‍होंने मांग की है। वे कहते हैं कि प्रदेश और खासकर बस्तर को भी पता होना चाहिए कि जांच रिपोर्ट में क्या है। उन जनसंहारों का दोषी कौन है।

अरविंद नेताम ने कहा, ”सरकार ने न्यायिक आयोग क्यों बिठाया था। निष्पक्ष जांच के लिए ही ना! नेता तो कहते रहते हैं कि जो भी दोषी होगा उस पर कड़ी कार्रवाई की जाएगी। हम तो यही चाहते हैं कि जो भी दोषी पाया गया है उसके खिलाफ कार्रवाई हो। बस्तर के आदिवासी सरकार की कार्यवाही का इंतजार कर रहे हैं। ऐसा नहीं हुआ तो माना जाएगा कि सरकार के लिए आदिवासी की जान की कोई कीमत ही नहीं है।”


लेखक भोपाल में निवासरत अधिवक्ता हैं। लंबे अरसे तक सामाजिक सरोकारों से जुड़े विषयों पर लिखते रहे है। वर्तमान वर्तमान में आदिवासी समाज, सभ्यता और संस्कृति के संदर्भ में कार्य कर रहे हैं।


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