मीडिया ‘उद्योगपति’ अर्नब गोस्वामी और टीआरपी रेगुलेटरी संस्था बार्क के पूर्व सीईओ पार्थो दासगुप्ता के बीच वॉट्सएप चैट का सार्वजनिक होना भारतीय समाज के ढोंग व पाखंड का पूरा एक चक्कर मार लेने की कहानी है। मसला सिर्फ उस चैट भर का नहीं है जिसमें वे दोनों तरह-तरह की सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं, बल्कि उन बातों का भी है जिसमें उद्योगपति अर्नब गोस्वामी देश के सूचना व प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर को निकम्मा (यूज़लेस) करार देता है। इसके अलावा, जिस अरूण जेटली ने अर्नब को मीडिया कारोबारी बनाने में इतनी महती भूमिका निभायी थी, वह जब मृत्यु शैय्या पर लेटे थे तो उनके नहीं मरने के लिए बिना मतलब के ‘लंबा खींचने’ (स्ट्रैचिंग) जैसे शब्द का इस्तेमाल करता है।
सवाल इतना भर भी नहीं है बल्कि इससे आगे का है। जब मुंबई पुलिस ने चार्जशीट दाखिल की तो प्रबुद्ध वर्गों द्वारा सोशल मीडिया पर इस बात को भी फैलाया गया कि वह लीक चैट है, जो किसी की निजी जिंदगी में हस्तक्षेप है, जबकि हकीकत यह है कि पार्थो दासगुप्ता के मोबाइल से यह सूचना ली गई है जो कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा है। यह सही है या गलत, इसका निर्णय कोर्ट को करना है लेकिन यह तय है कि वह लीक चैट नहीं है बल्कि चार्जशीट का हिस्सा है जिस पर पार्थो का हस्ताक्षर है। वैसे, हमें यह भी याद रखने की जरूरत है कि अर्नब गोस्वामी के निजी मोबाइल का कोई भी चैट अभी तक सामने नहीं आया है। जब वे चैट बाहर आएंगे तब पता नहीं उसमें और कितने लोगों से कितनी तरह की सूचनाओं के आदान-प्रदान का पता चलेगा!
इसके बावजूद कोलकाता से निकलने वाले अखबार द टेलीग्राफ को छोड़कर किसी भी अखबार ने पार्थो व अर्नब की बातचीत को बहुत गंभीरता से नहीं लिया है। जिस दिन मुंबई पुलिस ने चार्जशीट दाखिल की थी उसके अगले दिन इंडियन एक्सप्रेस ने इसे पहले पेज की खबर बनाया था, लेकिन चैट में दोनों के बीच ‘जज को खरीद लेने’ जैसी बातों का जिक्र अखबार ने नहीं किया है। यह कम मार्के की बात नहीं है कि न सिर्फ देशी कॉरपोरेट मीडिया बल्कि बीबीसी जैसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थान ने भी अर्नब की चार्जशीट पर अलग से स्टोरी करना मुनासिब नहीं समझा बल्कि कांग्रेस पार्टी ने जब ज्वाइंट पार्लियामेंटरी कमिटी (जेपीसी) बनाने की मांग की तो उसे प्रेस रिव्यू में खबर होने के दो दिन बाद शामिल किया जाता है, जबकि जब अर्नब की गिरफ्तारी हुई थी तो उसके साथ सहानुभूति दर्शाते हुए खबर की गई थी!
इसलिए सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसा क्यों और कैसे हुआ कि जिस वॉट्सएप चैट पर मोदी सरकार को इस्तीफा दे देना चाहिए था, उसकी खबर मीडिया में लगभग दबा दी गई और कहीं कोई हलचल भी नहीं हुई?
अर्नब को मीडिया के साथ-साथ तमाम संस्थानों द्वारा लगभग बरी कर दिए जाने की कहानी को समझने के लिए हमें देश के सभी महत्वपूर्ण संस्थानों की सामाजिक संरचना को समझने की जरूरत है, जिनके पतन की शुरूआत मंडल आयोग की अनुशंसा लागू करने के बाद तेजी से हुई। मंडल आयोग की आंशिक सिफारिश को लागू किया जाना इस देश के सवर्णों के ऊपर वह चोट थी जिसे वे किसी भी कीमत पर बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे। देश के सवर्णों को दूसरी बार लगा कि अब यह देश उनका नहीं रह गया है, बल्कि इस देश पर दलितों-पिछड़ों का ‘राज’ हो गया है (पहली बार दलित-आदिवासियों को आरक्षण दिए जाने के बाद ऐसा लगा था)। वहीं से तथाकथित प्रबुद्ध भारतीय समाज भारतीय राज्य प्रणाली के खिलाफ होने लगा।
ऐसा भी नहीं था कि यह तबका पहले बराबरी या समानता में विश्वास करता था। उनके मन में यह बात तो थी ही कि आरक्षण व्यवस्था ने सवर्णों की प्रतिभा का गला घोंट दिया है। फिर भी सवर्ण व रूलिंग एलीट उस आरक्षण को किसी तरह निगलने को तैयार हो गया था क्योंकि दलित-आदिवासी तबका इतना ताकतवर नहीं था कि वह संविधान में मिले अधिकार पर हक जता सके (इसका सबसे सटीक उदाहरण यह भी है कि आजादी के 74 साल के बाद भी देश के किसी भी विभाग में दलितों व आदिवासियों के पद नहीं भरे जा सके हैं, जो सिर्फ संयोग नहीं है)। वीपी सिंह द्वारा पिछड़ों को आरक्षण दिए जाने की घोषणा ने सवर्ण समाज को विचलित व उद्वेलित कर दिया। वहीं से देश के सभी संस्थानों को नष्ट किए जाने की प्रक्रिया शुरू हुई।
देश के प्रबुद्ध व प्रगतिशील विचार रखने वालों के परिवार में भी संविधानप्रदत्त आरक्षण को सकारात्मक समाज निर्माण व्यवस्था के रूप में स्वीकार नहीं किया गया। आजादी के बाद से ही जब से दलित-आदिवासियों के लिए आरक्षण प्रणाली की शुरूआत हुई, भारतीय ‘भद्रमानुषों’ के घर में आरक्षण को देश को तोड़ने वाला, प्रतिभा का गला घोंटने वाला, समानता को खत्म करने वाला माना जाने लगा और डाइनिंग टेबल से लेकर बातचीत के हर फोरम पर इसे समाज में विभाजन पैदा करने वाला माना गया। आरक्षण के लिए डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की जिद को दोषी ठहराया गया और भारतीय राजनीति को दोषी ठहराया गया। मंडल आयोग की अनुशंसा लागू किए जाने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र राजीव गोस्वामी ने जब आत्मदाह की कोशिश की थी तो तत्कालीन बीजेपी के सबसे ताकतवर नेता लालकृष्ण आडवाणी सफदरजंग हॉस्पिटल में भर्ती राजीव गोस्वामी से मिलने गए थे और वहां जाकर उन्होंने आरक्षण व्यवस्था को समाज का कोढ़ व प्रतिभा का गला घोंटने वाला बताया था।
यह वह दौर था जब पूरे समाज में मंडल को लेकर उथल-पुथल मची थी। मंडल के खिलाफ पूरा प्रबुद्ध वर्ग था जिसका वर्चस्व विश्वविद्यालय में था, नौकरशाही में था, पुलिस-प्रशासन में था, कोर्ट-कचहरी में था, लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां यहां तक कि वामपंथी पार्टियां भी पूरी तरह मंडल आयोग के पक्ष में नहीं बोल पा रही थीं। आधिकारिक तौर पर सीपीआई के सांसद भोगेन्द्र झा ने संसद में मंडल आयोग की सिफारिश का खुलकर विरोध भी किया था, जिसके चलते उन्हें तीन महीने के लिए पार्टी ने निलंबित भी किया था।
मंडल का वही दौर था जब उत्तर भारतीय समाज का सबसे ताकतवर खेमा बीजेपी के साथ अघोषित गठबंधन में शामिल हो गया। जिस डाइनिंग टेबल पर बैठकर पहले अंबेडकर व आरक्षण की मजम्मत की जाती थी, वही युवक-युवतियां जब ताकतवर व निर्णय लेने की स्थिति में आए तो उनका स्वाभाविक झुकाव भाजपा की तरफ था क्योंकि बीजेपी का घोषित नेतृत्व सवर्णों के हाथ में था जो आरक्षण के खिलाफ था।
उस पूरे समुदाय को देखने से पता चलता है कि उनकी प्रतिबद्धता सिर्फ व सिर्फ अपने को बचाए रखने की हो गई न कि संवैधानिक संस्थानों को बचाने में उनकी कोई दिलचस्पी थी। इसलिए पिछले छह वर्षों के कार्यकाल पर गहराई से गौर करें या सिर्फ सरसरी निगाह डालें तो हम पाते हैं कि इस दौरान देश के लगभग सभी संस्थानों ने अपनी इज्जत गंवाई है और जिसने अपनी पहचान सबसे तेजी से खोई है उसमें मीडिया, न्यायपालिका, संसद, सेना और वो सभी स्वायत्त संस्थान हैं जिसके बारे में जनता मानती थी कि वहां से न्याय मिलेगा। वे पूरी तरह सरकार के इशारे पर काम करने लगी हैं। इसका कारण सिर्फ यह नहीं है कि उन संस्थानों के पास अधिकार कम कर दिए गए हैं बल्कि इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि वहां मौजूद व्यक्ति मानसिक रूप से बीजेपी के साथ है और अधिकांशतः सवर्ण हैं।
इसके उलट, आरक्षण व मंडल आयोग के बाद जिन राजनीतिक दलों ने अपनी जमीन मजबूत की, उन्होंने न एक संस्थान बनाया, न ही वे वैकल्पिक मीडिया खड़ा कर पाए, न उनके लोग नौकरशाही में आ पाए, न ही न्यायपालिका में हैं। परिणामस्वरूप सत्ता प्रतिष्ठान पूरी तरह दलित-पिछड़ों के हाथ से बाहर हो गया है। आज से 14 साल पहले भारतीय न्यूजरूम की सामाजिक संरचना पर एक सर्वे किया गया था जिसके अनुसार राष्ट्रीय मीडिया में 88 फीसदी निर्णायक पदों पर सवर्ण बैठे हुए थे। इन 14 वर्षों के बाद मेरा अनुमान है कि यह संख्या बढ़कर 95 फीसदी के करीब हो गयी होगी (इसका कोई आंकड़ा मौजूद नहीं है)। यही कारण है कि अर्नब गोस्वामी के मामले में पूरा मीडिया, यहां तक कि बीबीसी भी जातीय समीकरण के चलते अर्नब के पक्ष में चुप्पी साध गया है।