अभिषेक श्रीवास्तव
इतिहास गवाह है कि प्रतीकों को भुनाने के मामले में फासिस्टों का कोई तोड़ नहीं। वे तारीखें ज़रूर याद रखते हैं। खासकर वे तारीखें, जो उनके अतीत की पहचान होती हैं। खांटी भारतीय संदर्भ में कहें तो किसी भी शुभ काम को करने के लिए जिस मुहूर्त को निकालने का ब्राह्मणवादी प्रचलन सदियों से यहां रहा है, वह अलग-अलग संस्करणों में दुनिया के तमाम हिस्सों में आज भी मौजूद है और इसकी स्वीकार्यता के मामले में कम से कम सभ्यता पर दावा अपना जताने वाली ताकतें हमेशा ही एक स्वर में बात करती हैं। यह बात कितनी ही अवैज्ञानिक क्यों न जान पड़ती हो, लेकिन क्या इसे महज संयोग कहें कि जो तारीख भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक कालिख की तरह यहां के फासिस्टों के मुंह पर आज से 12 साल पहले पुत गई थी, उसे धोने-पोंछने के लिए भी ऐन इसी तारीख का चुनाव 12 साल बाद दिल्ली से लेकर वॉशिंगटन तक किया गया है?
मुहावरे के दायरे में तथ्यों को देखें। 27 फरवरी 2002 को गुजरात के गोधरा स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रेस जलाई गई थी जिसके बाद आज़ाद भारत का सबसे भयावह नरसंहार किया गया जिसने भारतीय राजनीति में सेकुलरवाद को एक परिभाषित करने वाले केंद्रीय तत्व की तरह स्थापित कर डाला। ठीक बारह साल बाद इसी 27 फरवरी को 2014 में नरेंद्र मोदी की स्वीकार्यता को स्थापित करने के लिए दो बड़ी प्रतीकात्मक घटनाएं हुईं। गुजरात नरसंहार के विरोध में तत्कालीन एनडीए सरकार से समर्थन वापस खींच लेने वाले दलित नेता रामविलास पासवान की दिल्लीमें नरेंद्र मोदी से होने वाली मुलाकात और भारतीय जनता पार्टी को समर्थन; तथा अमेरिकी फासीवाद के कॉरपोरेट स्रोतों में एक प्यू रिसर्च सेंटरद्वारा जारी किया गया एक चुनाव सर्वेक्षण, जो कहता है कि इस देश की 63 फीसदी जनता अगली सरकार भाजपा की चाहती है। प्यू रिसर्च सेंटर क्या है और इसके सर्वेक्षण की अहमियत क्या है, यह हम आगे देखेंगे लेकिन विडंबना देखिए कि ठीक दो दिन पहले 25 फरवरी 2014 को न्यूज़ एक्सप्रेस नामक एक कांग्रेस समर्थित टीवी चैनल द्वारा 11 एजेंसियों के ओपिनियन पोल का किया गया स्टिंग किस सुनियोजित तरीके से आज ध्वस्त किया गया है! ठीक वैसे ही जैसे रामविलास पासवान का भाजपा के साथ आना पिछले साल नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के खिलाफ नीतिश कुमार के एनडीए से निकल जाने के बरक्स एक हास्यास्पद प्रत्याख्यान रच रहा है।
न्यूज़ एक्सप्रेस ने तो तमाम देसी-विदेशी एजेंसियों के सर्वेक्षणों की पोल खोल ही दी थी, लेकिन आज आए प्यू के पोल की स्वीकार्यता देखिए कि सभी अखबारों और वेबसाइटों ने उसेप्रमुखता से प्रकाशित किया है और कहीं कोई आपत्ति का स्वर नहीं है। दरअसल, ओपिनियन पोल की विधि और तकनीकी पक्षों तक ही उनके प्रभाव का मामला सीमित नहीं होता, बल्कि उसके पीछे की राजनीतिक मंशा को गुणात्मक रूप से पकड़ना भी जरूरी होता है। इसलिए सारे ओपिनियन पोल की पोल खुल जाने के बावजूद आज यानी 27 फरवरी को गोधरा की 12वीं बरसी पर जो इकलौता विदेशी ओपिनियन पोल मीडिया में जारी किया गया है, हमें उसकी जड़ों तक जाना होगा जिससे कुछ फौरी निष्कर्ष निकाले जा सकें।
एक पोल एजेंसी के तौर पर अमेरिका के प्यू रिसर्च सेंटर का नाम भारतीय पाठकों के लिए अनजाना है। इस एजेंसी ने मनमाने ढंग से चुने गए 2464 भारतीयों का सर्वेक्षण किया है और निष्कर्ष निकाला कि 63 फीसदी लोग भाजपा की सरकार चाहते हैं तथा 78 फीसदी लोग नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं। विस्तृत जानकारी किसी भी अखबार की वेबसाइट से ली जा सकती है, लेकिन हमारी दिलचस्पी पोल पर से परदा उठाकर उसके पीछे छुपे चेहरों को बेनक़ाब करने की है। ध्यान दें कि सवा अरब के देश में महज़ ढाई हज़ार लोगों के इस सर्वेक्षण को जारी करने की तारीख चुनी गई 27 फरवरी, जिस दिन रामविलास और मोदी दोनों अपने जीवन का एक चक्र पूरा करने वाले हैं। क्या कोई संयोग है यह? कतई नहीं।
प्यू रिसर्च सेंटर वॉशिंगटन स्थित एक अमेरिकी थिंक टैंक है जो अमेरिका और बाकी दुनिया के बारे में आंकड़े व रुझान जारी करता है। इसे प्यू चैरिटेबल ट्रस्ट्स चलाता और वित्तपोषित करता है, जिसकी स्थापना 1948 में हुई थी। इस समूह में सात ट्रस्ट आते हैं जिन्हें 1948 से 1979 के बीच सन ऑयल कंपनी के मालिक जोसेफ प्यू के चार बेटे-बेटियों ने स्थापित किया था। सन ऑयल कंपनी का ब्रांड नाम सनोको है जो 1886 में अमेरिका के पेनसिल्वेनिया में बनाई गई थी। इसका मूल नाम पीपुल्स नैचुरल गैस कंपनी था। कंपनी के मालिक जोसेफ प्यू के सबसे बड़े बेटे जे. हॉवर्ड प्यू (ट्रस्ट के संस्थापक) 1930 के दशक में अमेरिकन लिबर्टी लीग की सलाहकार परिषद और कार्यकारी कमेटी के सदस्य थे और उन्होंने लीग को 20,000 डॉलर का अनुदान दिया था। यह लीग वॉल स्ट्रीट के बड़े अतिदक्षिणपंथी कारोबारियों द्वारा बनाई गई संस्था थी जिसका काम अमेरिकी राष्ट्रपति रूज़वेल्ट का तख्तापलट कर के वाइट हाउस पर कब्ज़ा करना था। विस्तृत जानकारी 1976 में आई जूलेस आर्चर की पुस्तक दि प्लॉट टु सीज़ दि वाइट हाउस में मिलती है। हॉवर्ड प्यू ने सेंटिनेल्स ऑफ दि रिपब्लिक और क्रूसेडर्स नाम के फासिस्ट संगठनों को भी तीस के दशक में वित्तपोषित किया था।
प्यू परिवार का अमेरिकी दक्षिणपंथ में मुख्य योगदान अतिदक्षिणपंथी संगठनों, उनके प्रचारों और प्रकाशनों को वित्तपोषित करने के रूप में रहा है। नीचे कुछ फासिस्ट संगठनों के नाम दिए जा रहे हैं जिन्हें इस परिवार ने उस दौर में खड़ा करने में आर्थिक योगदान दिया:
1. नेशनल एसोसिएशनऑफ मैन्युफैक्चरर्स: यह फासीवादी संगठन उद्योगपतियों का एक नेटवर्क था जो न्यू डील विरोधी अभियानों में लिप्त था और आज तक यह बना हुआ है।
2. अमेरिकन ऐक्शन इंक: चालीस के दशक में अमेरिकन लिबर्टी लीग का उत्तराधिकारी संगठन।
3. फाउंडेशन फॉर दि इकनॉमिक एजुकेशन: एफईई का घोषित उद्देश्य अमेरिकियों को इस बात के लिए राज़ी करना था कि देश समाजवादी होता जा रहा है और उन्हें दी जा रही सुविधाएं दरअसल उन्हें भूखे रहने और बेघर रहने की आज़ादी से मरहूम कर रही हैं। 1950 में इसके खिलाफ अवैध लॉबींग के लिए जांच भी की गई थी।
4. क्रिश्चियन फ्रीडम फाउंडेशन: इसका उद्देश्य अमेरिका को एक ईसाई गणराज्स बनाना था जिसके लिए कांग्रेस में ईसाई कंजरवेटिवों को चुनने में मदद की जाती थी।
5. जॉन बिर्च सोसायटी: हज़ार इकाइयों और करीब एक लाख की सदस्यता वाला यह संगठन कम्युनिस्ट विरोधी राजनीति के लिए तेल कंपनियों द्वारा खड़ा किया गया था।
6. बैरी गोल्डवाटर: वियतनाम के खिलाफ जंग में इसकी अहम भूमिका थी।
7. गॉर्डन-कॉनवेल थियोलॉजिकल सेमिनरी: यह दक्षिणपंथी ईसाई मिशनरी संगठन था जिसे प्यू ने खड़ा किया था।
8. प्रेस्बिटेरियन लेमैन: इस पत्रिका को सबसे पहले प्रेस्बिटेरियन ले कमेटी ने 1968 में प्रकाशित किया, जो ईसाई कट्टरपंथी संगठन था।
जोसेफ प्यू की 1970 में मौत के बाद उनका परिवार निम्न संगठनों की मार्फत अमेरिका में फासिस्ट राजनीति को फंड कर रहा है:
1. अमेरिकन इंटरप्राइज़ इंस्टीट्यूट, जिसके सदस्यों में डिक चेनी, उनकी पत्नी और पॉल उल्फोविज़ जैसे लोग हैं।
2. हेरिटेज फाउंडेशन, जो कि एक नस्लवादी, श्रम विरोधी, दक्षिणपंथी संगठन है।
3. ब्रिटिश-अमेरिकन प्रोजेक्ट फॉर दि सक्सेसर जेनरेशन, जिसे 1985 में रीगन और थैचर के अनुयायियों ने मिलकर बनाया और जो दक्षिणपंथी अमेरिकी और ब्रिटिश युवाओं का राजनीतिक पोषण करता है।
4. मैनहैटन इंस्टिट्यूट फॉर पॉलिसी रिसर्च, जिसकी स्थापना 1978 में विलियम केसी ने की थी, जो बाद में रीगन के राज में सीआइए के निदेशक बने।
उपर्युक्त तथ्यों से एक बात साफ़ होती है कि पिछले कुछ दिनों से इस देश की राजनीति में देखने में आ रहा था, वह एक विश्वव्यापी फासिस्ट एजेंडे का हिस्सा था जिसकी परिणति ऐन 27 फरवरी 2014 को प्यू के इस सर्वे में हुई है। शाह आलम कैंप की की भटकती रूहों के साथ इससे बड़ा धोखा शायद नहीं हो सकता था। यकीन मानिए, चौदहवीं लोकसभा के लिए फासीवाद पर अमेरिकी मुहर लग चुकी है।
(समकालीन तीसरी दुनिया के मार्च अंक में प्रकाशित होने वाले विस्तृत लेख के मुख्य अंश)
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27 February ka prateek vastav men riechstag ki aag tak jata hai jise hiter ne lagaya tha aur dosh communiston par lagaaya tha. rss vale jis tarah se hitler ka adhyayan karte hain to ye sanyog nahi ki unhone 27 fab isliye hi chuna ho :
http://en.wikipedia.org/wiki/Reichstag_fire
Aap jaise doglo ko kewal yahi dikhata hai, BBC ho ya swatantra blogger, Kya kisi ne ye bhi socha hai ki Sabarmati kand me jo ruhe bhatakrahi thi unka kya hua.
Bhart ke dogle, mkkar, jhoothe aur deshdrohi reporter, rajnetoan ki vjah se aaj Hindustan duniya me pichad gya hai. 13 Aug 1947 tk hmare desh ki boundry Afganistan, Iran & Burm ko touch krti thee. Aaj duniya me hmara koi vajood nhi hai. Chote chote piddi jais desh hme aankhen dikhate hain aur dogle reporters, politicians desh ko barbaad kr rhe hain. Esbaar Modi ji sbko sbk sikhane ki kosis kr rhe hain.
Jai Hind!!!
Bakwas report ! Obviously by a sinking pseudosecularist !
aajad bharat ka sabse bhayavah narsanhaar? wah bhai…sab bhool gaye aap..agar main bolu 84 ke dange to main BJP ho jaunga? theek hai jyada door nhi jate, chaliye kokrajhaar ke dangon ki baat karte hai..chaliye ye bhi chodiye shayad bhoool gaye hon..MUjaffarnagar? are haan yaad aaya wo to DO SAMPRADAAYON KE BEECH KA MAAMLA THA?
jitni bariki se aapne survey pe sawaal uthaaye, utni ki karmathta se apne andar jhaankiye…rajniti me koi bhi paak saaf nahi…sabko pata hai ki ye survey karaye jate hain..par shaayad aapko "MAIN NAHI HUM" nahi dikhta?