(कश्मीर में जारी संकट का कोई समाधान नहीं दिख रहा, न ही कोई इसे गंभीरता से संबोधित करने की कोशिश कर रहा है। यह संकट अतीत के संकटों से बुनियादी रूप से भिन्न है। बीते 11 अक्टूबर को दि हिंदू में पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन ने इस पर चिंता जताते हुए एक लेख लिखा था। यह लेख हम हिंदी में प्रस्तुत कर रहे हैं। अव्वल तो इसलिए कि इसका लेखक राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहने के बावजूद कश्मीर में अपनाए जा रहे सरकारी नुस्खों को लेकर आलोचना का स्वर रखता है। दूसरे इसलिए भी कि हिंदी के पाठकों को यह लेख ज़रूर पढ़ना चाहिए ताकि युद्धोन्माद के माहौल में थोड़ा विवेक कायम हो सके- मॉडरेटर)
अकेले फौजी जनरल ही नहीं होते हैं जो किसी नई जंग को लड़ने के लिए पिछली जंग से निकले विचारों, रणनीतियों और सबक को आज़माते हैं। जम्मू कश्मीर आज जब अपने गंभीरतम संकट के दौर में है, तब दिल्ली और श्रीनगर में भी ऐसा ही देखने को मिल रहा है। सभी धाराओं के नेता, रणनीतिक विश्लेषक, गुप्तचर अधिकारी और बाकी हर कोई ऐसा लगता है कि एक समान नतीजे पर पहुंच चुका है कि कश्मीर की मौजूदा दिक्कत केवल भारत और पाकिस्तान के हालात को न संभाल पाने के चलते है। इतिहास उन लोगों को माफ नहीं करेगा जो अतीत के हालात और मौजूदा हकीकत के बीच फ़र्क नहीं बरत पा रहे।
आज़ादी के वक्त से ही कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद का विषय बना रहा है। देश की गुप्तचर और सुरक्षा सेवाओं का अहम काम यह रहा है कि वे कश्मीर में पाकिस्तान की गतिविधियों पर अपनी नज़र बनाए रखें। तीन नाकाम युद्धों और तमाम बार नाकाम हो चुके आतंकी हमलों के बावजूद पाकिस्तान अपनी राह से डिग नहीं सका है।
बीती 8 जुलाई को हुई एक मुठभेड़ में (कोकरगाग, अनंतनाग जिला) बुरहान वानी की मौत अतीत में हलके-फुलके उपद्रव को पैदा करती। ऐसे मामलों में पाकिस्तान की संलिप्तता को मानकर चला जाता था। इस बार हालांकि घाटी में जारी हिंसा का जो लंबा दौर चला है, उसे समझने के लिए ज़रा गहरे जाकर पड़ताल करनी होगी ताकि समझा जा सके कि इस हालात के लिए वास्तव में कौन से कारण जिम्मेदार हैं।
रोज़ाना हो रही हिंसा को सौ दिन पार कर चुके हैं, राज्य भर में कर्फ्यू को लगे सत्तर दिन से ज्यादा हो चुका है, मारे गए और ज़ख्मी लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है जिनमें सुरक्षाकर्मी भी शामिल हैं। ये सभी तथ्य एक असामान्य स्थिति की ओर इशारा करते हैं। अब तक कोई साक्ष्य सामने नहीं आया है जो बता सके कि इस हिंसा में लश्कर-ए-तैयबा या जैश-ए-मोहम्मद का हाथ है, हालांकि हिज्बुल मुजाहिदीन के काडर पर्याप्त संख्या में मौजूद हैं। हिंसक उपद्रवों में शामिल लोगों की भारी संख्या ऐसी है जो जिनकी मंशा और उद्देश्य के आधार पर कहा जा सकता है कि उनका इन संगठनों से कोई लेना-देना नहीं है। अधिकतर शिक्षित बेरोज़गार युवा हैं। कुछ तो बमुश्किल दस या बारह साल के हैं।
वर्तमान हिंसा में संलिप्त ऐसे लोग जिनका आतंकवादियों से कोई संबंध नहीं, एक नई परिघटना है और अतीत के ‘विदेशी’ आतंकवादियों से तो यह बिलकुल अलहदा बात है। कश्मीर को 1988 के बाद से विदेशी आतंकियों की मौजूदगी और हिंसा भड़काने में उनकी संलिप्तता की आदत पड़ चुकी थी। अस्सी के दशक में हुए ‘अफ़गान जिहाद’ का यहां चमत्कारिक असर पड़ा था जिससे नब्बे के दशक में कश्मीर में हुए उपद्रवों को काफी प्रेरणा भी मिली थी। अफ़गानिस्तान की जंग धीमी पड़ी, तो कश्मीर में काम कर रहे एलईटी और कई अन्य मॉड्यूलों में अफ़गानिस्तान होकर वापस आए जिहादी भी शामिल रहे।
विदेशी आतंकियों के समानांतर सक्रिय हिज्बुल मुजाहिदीन के सदस्य अपेक्षाकृत ज्यादा देसी थे हालांकि उनकी प्रेरणा और सहयोग का स्रोत भी पाकिस्तान ही था। हिज्बुल मुजाहिदीन आतंक की जिस संस्कृति का वाहक था, वह स्थानीय कश्मीरी युवकों की महत्वाकांक्षाओं से ज्यादा करीब जाकर जुड़ती थी। सदी के अंत तक हिज्बुल दूसरे पाकिस्तानी संगठनों के मुकाबले कमज़ोर पड़ गया, हालांकि मौजूदगी उसकी बनी रही।
सुरक्षाबलों ने विदेशी आतंकियों को काबू में करने के लिए कठोर कार्रवाई की, साथ ही कश्मीरी युवकों और यहां तक कि हिज्बुल के कुछ तत्वों तक उसने अपनी पहुंच बनायी और उन्हें समझौते की मेज़ तक लाने की कोशिश की। 1988 के बाद हर प्रधानमंत्री ने, खासकर अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान की ओर दोस्ती का हाथ यही सोचकर बढ़ाया कि इससे घाटी में संकट पैदा करने की उसकी क्षमता थोड़ी कम हो सके। इसके नतीजे मिश्रित आए, लेकिन इतना श्रेय तो जाता है कि इनके चलते हालात काबू से बाहर नहीं गए। कश्मीरी युवकों तक पहुंच बनाने के कारण बेहतर नतीजे देखने को मिले। बड़ी संख्या ऐसे युवाओं की रही जो रोजगार के बेहतर अवसरों, आर्थिक लाभ और बेहतर संचार सुविधाओं इत्यादि की ओर देखने लगे थे।
घाटी में मौजूदा उथल-पुथल को अतीत में आए संकटों के विस्तार के रूप में बरतना बहुत सरलीकरण होगा। यहां 2013 के अंत से ही माहौल में बदलाव दिखने लगा था। इस पर नज़र नहीं गई। अब भी, जबकि घाटी में हालात असामान्य हैं (कई हफ्तों से कर्फ्यू, मीडिया पर प्रतिबंध, सड़क पर हिंसा का अचानक उभर आना), सतह के नीचे चल रही हलचल को समझने का कोई सार्थ प्रयास नहीं किया गया है। कुछ लोग ऐसा सोच रहे हैं कि कश्मीर के संकटग्रस्त इतिहास में यह एक खतरनाक निर्णायक मोड़ साबित हो सकता है।
बहुत दिन तक इसे नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। बुरहान वानी कौन था? हिज्बुल ने उसे शहीद के रूप में कैसे देखा (जबकि हाल ही में उसे इस संगठन ने अपने साथ जोड़ा था)? ज्यादा अहम यह है कि आखिर उसके कद की तुलना चे ग्वारा के साथ कैसे की जा रही है? इतने कम समय में इतना बड़ा बदलाव कश्मीर के हिंसा के इतिहास में पहले तो कभी नहीं हुआ था। इसीलिए दिल्ली और श्रीनगर के पास परेशान होने की जायज़ वजह है कि कहीं यह स्थिति कश्मीर के तीन दशक पुराने उग्रवाद में एक नया बदलावकारी मोड़ तो नहीं है?
संघर्ष का चरित्र भी बदला है और इसके कारणों की भी गहरी पड़ताल होनी चाहिए। ऐसा नहीं है कि अफ़वाहों ने यहां हिंसक आंदोलन की शक्ल ले ली हो। बुरहान वानी की हत्या पर उभरा जनाक्रोश सभी के लिए चिंता का विषय होना चाहिए- नेताओं, अधिकारियों, सुरक्षा प्रतिष्ठान और यहां तक कि आम लोगों के लिए भी। आज ऐसा आभास होता है कि इस आंदोलन का कोई घोषित नेता नहीं है और यह अपने दम पर आगे बढ़ा जा रहा है।
इतिहास के छात्रों को इसमें 1968 के प्राग की छवि देखने को मिल सकती है, लेकिन अधिकारियों को यहां एक ऐसी स्थिति से निपटने के तरीके खोजने होंगे जब ‘स्वयं स्फूर्त’ हिंसा सत्ता के हर एक प्रतीक को अपना निशाना बनाती हो और उसके पीछे न तो अलगाववादी हैं और न ही पाकिस्तान। यही बात 2016 और 2008, 2010 व 2013 के बीच फ़र्क पैदा करती है। पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का यह बयान उनके संभावित पूर्वज्ञान को पुष्ट करता है कि ”बुरहान सोशल मीडिया पर जो कुछ भी कर सकता था, उससे कहीं ज्यादा उसकी क्षमता कब्रगाहों से आतंकियों को खींच लाने में थी।”
कश्मीर के मौजूदा उभार को समझने के लिए रोज़मर्रा वाली दलीलें अब काम नहीं आएंगी, बल्कि उनका उलटा असर हो सकता है। सुरक्षाबलों द्वारा किए गए उत्पीड़न के खिलाफ़ कश्मीरी युवाओं में जम चुकी नफ़रत व संदेह को लेकर सहानुभूति जताने या फिर हालात के लिए दिल्ली की समझदारी को जिम्मेदार ठहराने से बुरहान वानी वाली परिघटना का अंत नहीं हो जाएगा। इसके लिए आप गलती से युवाओं की नई शिक्षित पीढ़ी को भी जिम्मेदार मत ठहराइए यह कह कर कि वह ‘भारत से आज़ादी’ के लिए सोशल मीडिया का दोहन कर रहा है। बुनियादी कारण ज्यादा गहरे हैं। वानी के जनाज़े में दो लाख से ज्यादा लोगों की मौजूदगी का एक संतोषजनक जवाब चाहिए।
इस स्थिति को समझने के लिए सबसे पहले यह मान लेना ज़रूरी होगा कि कश्मीर में अतीत में पैछा हुए संकट से उलट मौजूदा आंदोलन विशुद्ध घरेलू है। कई छोटे-छोटे उभारों की स्वयं स्फूर्तता पहले के उभारों से अलग समझदारी की मांग करती है क्योंकि इसमें कश्मीरी युवाओं की एक समूची पीढ़ी के अलगाव की बू आ रही है जो मौजूदा परिस्थितियों से नाराज़ है। अपने आक्रोश के चलते कई युवा तो खुदकुशी तक करने को तैयार हैं।
‘इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत’ जैसे जुमले दुहराने भर से या फिर संविधान के अनुच्छेद 370 के प्रति हमारी वचनबद्धता को दुहराने, सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (आफ्सपा) को हटाने और विकास सहयोग की अतिरिक्त खुराक का प्रावधान कर देने भर से आक्रोशित पीढ़ी को संबोधित नहीं किया जा सकेगा। गोलमेज वार्ताओं, कार्यसमूहों की बैठकों या वार्ताकारों के समूह (2007-11) की सिफारिशों और प्रस्तावों से भी काम नहीं चलेगा (हालांकि उन पर अगर वक्त रहते अमल किया गया होता तो ये हालात नहीं बनते)। अलगाववादी नेताओं से बात करना आकर्षक होगा, लेकिन आज के संदर्भ में वे अप्रासंगिक हैं और बग़ावत कर रही युवा पीढ़ी के साथ उनका जुड़ाव नहीं है।
यह लड़ाई अब कश्मीरी युवाओं के दिमाग में घर करती जा रही है। लश्कर, जैश या हिज्बुल के खिलाफ़ अपनाए गए बलप्रयोग के तरीकों को आज 10 से 12 साल के स्कूली बच्चों पर आज़माना भावनाओं को और भड़काने का काम करेगा। भारत ने विदेशी आतंकियों और पाकिस्तानी आतंकी संगठनों के खिलाफ जंग जीत ली है लेकिन आज उसके सामने कहीं ज्यादा गंभीर समस्या कश्मीर के युवाओं का दिल जीतने की है, इससे पहले कि एक समूची पीढ़ी ही भारत से खुद को अलग मान बैठे। यह सबसे भयावह आशंका है।
मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती और उनके मौजूदा सलाहकार बमुश्किल ही ऐसी स्थिति में हैं कि वे मौजूदा हालात से निपट सकें, न ही उनके पास इसके लिए पर्याप्त बौद्धिक क्षमता व सियासी समझदारी है। दिल्ली भी कश्मीर की धरती की सतह के नीचे हो रहे बदलाव को पढ़ पाने व उससे निपट पाने की स्थिति में नहीं दिखती। इसीलिए, अब ज़रूरी हो गया है कि रणनीतिक चिंतकों व नेताओं के अलावा समाज वैज्ञानिकों और मनोवैज्ञानिकों से भी सहयोग लिया जाए ताकि वे इस हालात को संभालने के नए और ताज़ा नुस्खे लेकर सामने आ सकें।
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kasmir ke halat jis kadar bigde hai us ke lie khud govt. hi ek matr jimevar hai.vaise to poore
india me hi log srkar ke gair manukhi atiachar ke khilaf uth khare hue hai . es lekh me lekhak
ne srkar ki kamjorian ujagr ki hai.hum logon ko vi kasmir ke logo ka sath sanghras ki ekmuthata ka bigal bajana chahie tan jo kasmiri logo ke svai nirne ki mang poori ho sake.yeh to spasat hai jo k govt india vakhvadi v antkvadi jan i ka nam le rahi hai vo v ek tra se kora jhooth bool rahi hai sab ko pta hai k veh pratirodh keval aam logo ka hai jo k govt army aur
sasko ke ateachar ke khilaf muh boldi tsveer hai