पिछली बार भी लिखी थी
अधूरी एक कविता…
छूटे सिरे को पकड़ने की कोशिश की नहीं।
आखें बंद कर- 
करता हूं जब भी कृत्रिम अंधेरे का साक्षात्कार
मारती हैं किरचियां रोशनी की
इलेक्ट्रॉनों की बमबार्डिंग में 
दिखती हैं वे सारी चीज़ें, रह गईं 
जो अधूरी।
एक अधूरी सदी, बीत गई जो
और नहीं कर सके हम उसका सम्मान।
अब, आठ बरस की नई सदी के बाद
देखता हूं वहीं कविता
छोड़ आया था जिसे 
बिस्तर के सिरहाने
दबी कलम और नोटबुक के बीच
बगैर छटपटाहट
निरीह
निठारी की सर्द लाशों की मानिंद।
आगे जाने चखना पड़े 
और कितना खून
बोटियां
करने में तेज़ लगा हूं दांतों को
मज़बूत आंतों को
पचा सकें अधूरापन जो पिछली सदी का
मोबाइल से लेकर नैनो वाया लैपटॉप
सब कुछ।
जानते हुए यह, कि 
पश्चिम की दुर्गंध के लिए है अभिशप्त 
नाक अपनी देसी, पहाड़-सी
सोचता हूं क्या लिखते मुक्तिबोध आज
जब…
ब्रह्म लुप्त है…शेष सिर्फ राक्षस
और शिष्यों की हथेलियों पर बना है नक्शा 
नंदीग्राम की लथपथ अग्निपथ मेंड़ों का।
सिगरेट के एक सिरे पर जलता है अधूरा प्रेम
दूसरे पर कच्चा दाम्पत्य
और धुआं हो जाते हैं सारे शब्द
भाव 
सौंदर्य
बचता है…
कमाने को पैसा
खाने को बर्गर
खरीदने को कपड़े
लगाने को पूंजी
बनाने को बिल
भरने को ईएमआई, और
बिगाड़ने को बच्चे।
उठते हैं एक अरब हाथ
तनी मुट्ठियों समेत
मुंह से फूटता है –
‘चक दे इंडिया’
सिर उठा कर पीने वाली पूरी एक कौम
देखती नहीं नीचे 
सांड़ों की रोज़मर्रा भगदड़
लो दब गया एक और निवेशक…
(इंसान नहीं)
और…
सृष्टि का राजा
स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी के कंधे पर सवार
नंग-धड़ंग
दे रहा
कविता की मौत का फ़रमान…।
कटे कबंध भांजते तलवार-
चीख पड़ते हैं असंख्य रमेश
‘मौला मेरे ले ले मेरी जान’……।
Read more 


 
                     
                     
                    
आपने हमारी साझे की पीडा बयां की है