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रामजी यादव |
(गुंटर ग्रास की विवादित कविता पर विष्णु खरे की चिट्ठी के बहाने शुरू हुई बहस के नए-नए आयाम निकल कर आ रहे हैं। ईरानी सिनेमा किसी परिचय का मोहताज नहीं, लेकिन उसका कंटेंट भारतीय सिनेमा में आते-आते कैसे भोथरा हो जाता है, उसकी प्रतिरोध की धार खत्म हो जाती है, यह सवाल सिर्फ कला पक्ष या तकनीक से वास्ता नहीं रखता। यह भारत के घर-घर में घुस चुके सुविधाजनक अमेरिका बनाम मध्य-एशिया पर साये की तरह मंडरा रहे साम्राज्यवादी अमेरिका का फ़र्क है, जो दोनों देशों के फिल्मकारों की रचना और सरोकार को अलग करता है। संस्कृतिकर्मी रामजी यादव का यह बेहतरीन आलेख राजनीति और सिनेमा के आपसी रिश्तों की पड़ताल करते हुए बताता है कि एक जूता जो इराक में साम्राज्यवाद विरोध का प्रतीक बन गया, कैसे और क्यों अब भी भारत में उपभोक्ता सामग्री ही बना हुआ है और उसकी कीमत के सामने इज्ज़त का नीलाम हो जाना कैसे भारत में कलात्मक उत्कृष्टता माना जाता है।)
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ईरानी सिनेमा के प्रतिनिधि ज़फ़र पनाही को समर्पित एक चित्रकृति |
बक़ौल गोदार ‘सिनेमा दुनिया का सबसे बड़ा छलावा है’। इस कथन को प्रायः प्रबुद्ध दर्शक भी कहीं न कहीं मानते हैं कि सिनेमा धोखा देने वाला माध्यम है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि सिनेमा ने दुनिया के समाजों के जिस यथार्थ को चित्रित किया है, वह छलावे के समानान्तर एक सच्चा संसार भी प्रस्तुत करता है । बेशक इस संसार की उपस्थिति कतिपय अर्थों में आभासी लगती रही हो लेकिन एक कला रूप के तौर पर सिनेमा ने समाजों, संस्कृतियों, अर्थव्यवस्थाओं और उन पर नियंत्रण करने वाली राजनीतिक शक्तियों, संपुंजों और सिंडिकेटों के ऐसे पक्षों की ओर लगातार संकेत किया है जहां न केवल सुनियोजित मानव-विरोधी कार्रवाइयां होती हैं बल्कि उनके परिणामस्वरूप पैदा हुई सड़ांध भी साफ-साफ दिखने लगती है। वस्तुतः एक सौ दस वर्षों के सिनेमा के इतिहास में सिनेमा ने नियंताओं के हित में धोखे की एक दुनिया रची है, तो ठीक उसी के समानान्तर जनता के जीवन-संघर्षों के साथ अपना कंधा मिलाते हुए एक ऐसे क्रिटिक की भूमिका भी अदा की है जहां समझ, संवेदना और सौंदर्य को बचा लेने का महत्तम प्रयास दिखता है।
इसकी तसदीक करते हुये विश्व सिनेमा को देखना वास्तव में एक रोमांचकारी प्रक्रिया है। हॉलीवुड की अभियान मूलक फिल्में देखते हुये शायद ही कोई संवेदनशील दर्शक इस बात को विस्मृत करता हो कि ये वस्तुतः दो भिन्न युगों की लोलुप और बर्बर प्रवृत्तियों का ही सिनेमाई अभिव्यक्तिकरण है जो अपनी संपन्नता और समृद्धि के उन्माद में नए द्वीपों को तहस-नहस करने तथा पारंपरिक और एथनिक दुनिया को विध्वंस करने को सभ्यता और विकास का छलपूर्ण नाम देता है। अमेरिका की खोज के दौरान अस्तित्वमान यूरोपीय लोलुपताओं को बीसवीं सदी में रूस और एशिया तथा खाड़ी के देशों को अपने साथ मिलाने, न मिलने पर धमकाने और अनेक प्रकार के झूठों और षडयंत्रों से नेस्तनाबूद करने की अनियंत्रित अमेरिकी इच्छाओं में रूपांतरित होते हुए आसानी से देखा जा सकता है। क्या विडम्बना है कि अमेरिका के खूनी मंसूबों का सिनेमाई संसकरण लोकतन्त्र,आजादी, आतंकवाद से मुक्ति के नाम से दर्शकों के बीच आता है!! दुर्भाग्य से इस तथ्य पर अभी बहुत अधिक ध्यान नहीं गया है कि दूसरे विश्वयुद्ध तक यूरोपीय शक्तिकेन्द्र के प्रतीक बन गए ब्रिटेन के कोर्डिनेटर रहे अमेरिका ने पूरे यूरोप को जिस तरह पिछलग्गू, अपंग और लाचार बनाया है, उसे यूरोपीय सिनेमा ने किस रूप में दर्ज़ किया है?
इसके बरक्स मध्य एशियाई सिनेमा के महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में उभरे ईरान में लगातार ऐसी फिल्में बनी हैं जो साम्राज्यवादी धौंस और षडयंत्रों के प्रतिरोध और अपने देश की साधारण जनता की जिजीविषा को बहुत मार्मिक ढंग से चित्रित करती हैं। वहां सक्रिय फ़िल्मकारों ने पूरी दुनिया के दर्शकों का ध्यान इस रूप में खींचा है कि अच्छा सिनेमा हमेशा अपने देश की धड़कनों से जुड़ा होता है। ईरान के ऊपर मंडराते साम्राज्यवादी खतरे और अपने देश के भीतर कब्जा जमाये शोषक वर्गों– दोनों को ही वहां के फिल्मकारों ने पूरी शिद्दत से अपनी आलोचना का केंद्र बनाया है। उन्होंने नई दुनिया के सपने देखे और अपने देश के सामान्य जन के रोज़मर्रा से सौंदर्य हासिल किया है। इसीलिए आज दुनिया के बेहतरीन सिनेमा की चर्चा ईरानी सिनेमा के बगैर अधूरी है। मोहसिन मखमलबफ़, समीरा मखमलबफ़, सिद्दीकी बरमाक, मोहम्मद अहमदी, असगर फरहादी,शौक़त अमीन, माजिद मजीदी और हीनर सलीम आदि ऐसे ही नाम हैं।
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ईरानी फि़ल्मकार माजिद मजीदी |
सभी ईरानी फ़िल्मकार भारतीय दर्शकों में अपना एक मुकाम रखते हैं और मुंबई में अपने ढंग का सिनेमा बनाने की जद्दोजहद में लगे युवा फ़िल्मकार इनके बारे में अनेक दंतकथाओं को दुहराते रहते हैं, मसलन अमूमन ईरानी फ़िल्मकार साइकिल से चलते हैं और उनके पास कार खरीदने जितना धन नहीं हो पाता। कई तो साइकिल बनाने और मोटर मेकैनिक का काम करने के बाद जब कैमरा और टीम के भुगतान भर पैसा जुटा लेते हैं तब फिल्म बनाने लगते हैं, आदि। गरज यह कि फिल्म उनके लिए अपने सरोकारों की परम अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है। इन दंतकथाओं की सच्चाई चाहे जो हो लेकिन इस संदर्भ में जापानी फ़िल्मकार अकीरा कुरोसोआ के एक साक्षात्कार की पंक्तियां याद आती हैं कि उनके पास भी महीनों तक कैमरा उठाने तक का पैसा नहीं होता था और अनेक बार ऐसा भी हुआ कि वे पतझड़ की शूटिंग करने का मंसूबा बांधे रहे, पतझड़ आया और चला गया लेकिन पैसा न होने से वे कैमरा नहीं उठा सके और अगले पतझड़ की आस में मंसूबे बांधते रहे।
इन बातों से यह तो पता चलता ही है कि सिनेमा बनाने की प्रक्रिया में धन कितनी बड़ी चुनौती है। खासकर जहां सिनेमा का मुनाफा हज़ार गुना अधिक आंका जाता हो और यह लालसा इतनी भयानक लोलुपता में बदल रही हो कि समय और समाज की सारी अवधारणाएं कूड़ा लगने लगी हों। इस लिहाज से उपरोक्त दंतकथाएं बहुत प्रेरणादायी लगती हैं कि ईरान के कतिपय फ़िल्मकार इतने जोखिम उठाते हैं और दर्शकों का सौंदर्यबोध और शास्त्र बदलने में कामयाब भी होते हैं।
यूं तो अनेक ईरानी फ़िल्मकार भारत में बहुत आत्मीय स्थान रखते हैं, लेकिन माजिद मजीदी की जगह सबसे अलग है। कुछ-कुछ वैसे ही जैसे नाटक में ब्रेख्त और कविता में पाब्लो नेरुदा की जगह है। माजिद की प्रायः सभी फिल्मों का इंतज़ार किया जाता है। बरान, कलर ऑफ पैराडाइस, सॉन्ग ऑफ स्पैरो और चिल्ड्रेन ऑफ हेवेन आदि उनकी फिल्में बहुत लोकप्रिय हुई हैं। उनकी फिल्मों के केंद्रीय पात्र बच्चे होते हैं और उनसे वे इतने सधे ढंग से काम ले लेते हैं कि बच्चे ईरान की अर्थव्यवस्था, समाज और राजनीति का बैरोमीटर बन जाते हैं। भारत में, जहां मध्य और निम्न मध्यवर्ग के बच्चे अपने अभिभावकों की आकांक्षाओं और असुरक्षा का असमय बोझ ढोते हैं और इसीलिए हर परिवार की अर्थव्यवस्था बच्चा-केन्द्रित हो जाती है। इस प्रकार बच्चे भविष्य के ऐसे उजरती श्रमिक के रूप में ढाले जाते हैं जो अपनी ज़िंदगी की सारी नैतिकताओं को अमीर वर्ग की ऐयाशी की सुरक्षा में होम कर देंगे। इन भारतीय बच्चों की तुलना में माजिद के निम्नवर्गीय बच्चे ज़्यादा सामाजिक-पारिवारिक अलगाव में हैं और इसीलिए अपने परिवेश में वे अधिक गंभीर और अभिनयहीन लगते हैं। क्योंकि किसी भी दुलरुआ की तुलना में कोई भी लतमरुआ अधिक वास्तविक और ठस दुनिया का नागरिक होता है।
छवियों के इस खेल में इसे कतिपय संयोगों में भी देखा जा सकता है जब एक ही कथा को एक ही माध्यम से दो भौगोलिक स्थितियों और भाषाओं में एक जैसी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति नहीं दी जा सकती। माजिद की फिल्म चिल्ड्रेन ऑफ हेवेन भारत में इतनी लोकप्रिय हुई कि एक हिन्दी फ़िल्मकार ने बम बम बोले नाम से उसका हिन्दी संस्करण बनाया लेकिन यह प्रयास अत्यंत असफल ही नहीं, हास्यास्पद भी साबित हुआ। जिन लोगों ने भी माजिद की फिल्म पहले देखी थी उनके लिए बम बम बोले को देख पाना मुश्किल था, क्योंकि विषय वस्तु वही होने के बावजूद इस फिल्म ने कोई चाक्षुष संवेदना ही नहीं पैदा की। यहां तक कि बाल-दर्शकों ने भी इसे नापसंद कर दिया।
बहुत गलत न होगा यदि यह कहा जाए कि छवियों का व्यवसाय व्यवसायियों के लिए भले एक सौदा हो लेकिन देखने वालों के लिए तो एक दृश्य है जो अपनी अर्थवत्ता और संदर्भ काफी देर तक बनाए रखता है। चिल्ड्रेन ऑफ हेवेन का अली अपनी मासूम बदहवासी में जिस तरह मानस में जगह बना लेता है, बम-बम बोले का दर्शील उसमें पूरी कठिनाई से भी सफल नहीं हो पाता क्योंकि उसकी एक और छवि फिक्स थी। वह भारतीय मध्यवर्ग के ऐसे चरित्र के रूप में सहानुभूति का पात्र था जो कुछ जैविक कमज़ोरियों के कारण उस दौड़ से बाहर था जिसके लिए मध्यवर्ग पागलपन की हद तक जा सकने को तत्पर रहता है। उसके लिए जूता कोई समस्या ही नहीं है। शायद इसीलिए फ्रेम-दर-फ्रेम उठा लेने के बावजूद न कथा विश्वसनीय लगी और न ही पात्र।
लेकिन भारत में भी जूता एक समस्या है। मध्यवर्ग इसके हल के लिए क्या कर सकने की स्थिति तक पहुंच चुका या पहुंचा दिया गया है इसका एक उदाहरण कुछ वर्षों पहले आई बासु भट्टाचार्य की रेखा और ओमपुरी अभिनीत फिल्म “आस्था” पेश करती है। यह फिल्म उदारीकरण और भूमंडलीकरण के लगभग एक दशक बाद आई थी। इसकी नायिका अपनी बेटी के लिए एक अच्छा जूता खरीदने बाज़ार गई और इज्ज़त बेच कर जूता खरीदा। हो सकता है मध्यवर्ग इस इज्ज़त को “तथाकथित” कह दे और कुछ नए ढंग की नैतिकताओं को अपनाने की कोशिश करे। लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भारत के बाज़ार में “अच्छे” जूते बहुत बड़े समुदाय की पहुंच से बहुत ऊपर हो गए और बाज़ार ने इसकी ललक को इतना तीव्र कर दिया कि स्थायी आमदनी से उसे पूरा करना संभव ही न रहा। और कदम उस दिशा में चलते चले गए जहां जाना ग़ैरत की निशानी कतई नहीं है। सबसे संगीन बात तो यह है कि जूता यहां ज़रूरत नहीं था बल्कि कमोडिटी था। बल्कि कहा जा सकता है कि स्थितियों और बूते से बाहर जाकर यह उस आत्मसंतुष्टि को खरीदने का उपक्रम है जो आर्थिक विपन्नता और गरीबी की हिकारत में खो गई है।
शायद इस फिल्म को आर्थिक उदारीकरण और बाज़ारवाद के वीभत्स होते जाने के सामाजिक परिणाम के रूपक के तौर पर देखना कतिपय और भी अर्थ खोलेगा, लेकिन जिन कुछ बातों को इसने स्थूल ढंग से दर्शकों के सामने रखा वह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। मसलन नैतिकता और अनैतिकता के द्वंद्व को एक विमर्श में बदलते हुए उस बेशर्मी को एक सच की तरह स्वीकार लेने की कोशिश जो सामान्य परिस्थितियों में दाम्पत्य जीवन को तबाह कर सकती थी। प्रोफेसर को अपनी पत्नी के बारे में पता है, लेकिन वह अपने विद्यार्थियों को एक ऐसी पहेली सुलझाने को कहता है जिसका हल उसकी पत्नी की ओर से उसके अपराधबोध को धो सके और जीवन सामान्य हो सके। वह इस बात पर कोई बहस नहीं करता कि जो जूता उसकी बेटी के लिए आवश्यक आवश्यकता नहीं है उसको खरीदने के लिए किसी गैर पुरुष के साथ संबंध बनाने की आवश्यकता क्या थी?
वास्तव में यह फिल्म तत्कालीन भारतीय मध्यवर्ग के उस असमंजस को अच्छी तरह सामने रखती है जब वह नैतिकता और उपभोग के बीच की दीवार ढहाने की एक ऐसी स्थिति का शिकार बनाया जा रहा था जो बाज़ारवाद के विकास की एक आवश्यक शर्त थी। यहां उपभोग ही मूल्य था। अतार्किक पूंजी के खेल में “आवश्यक आवश्यकता” एक पिछड़ा पद बन कर रह जाता है क्योंकि तभी इस्तेमाल करने और फेंक देने का फ़लसफ़ा अपने उरुज पर जा सकता है और नए साम्राज्यवाद का रथ आगे बढ़ सकता है। इसलिए नितांत भारतीय संदर्भ में जूता संबंधी तीनों परिघटनाओं के तीन भिन्न अर्थ हैं। भारतीय संदर्भ में जूता यहां उपभोग की वस्तु है। वह बहुत निचले स्तर पर जीने वाले लोगों के लिए भले ही एक अभियान हो लेकिन साधारण मध्यवर्ग के सामने कोई बड़ा सवाल नहीं है। जहां तक अच्छे जूते का सवाल है तो वह भी उपभोक्ता वस्तु ही है और उसे पाने के लिए इज्ज़त दांव पर लगानी ही पड़ती है। ईएमआई संस्कृति का सबसे खराब प्रदर्शन भी इसी का एक नमूना है। दूसरे, शायद इसीलिए “बम बम बोले” कोई संवेदना नहीं जगा पाती। तीसरे,अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के ऊपर इराक़ी पत्रकार मुंतज़र-अल-ज़ैदी का फेंका गया जूता भारतीय लोगों को भी रास आया लेकिन एक भी जूता उतना कारगर नहीं साबित हुआ। यहां जूता फेंकने की दर्जनों घटनाएं हुईं लेकिन भारतीय राजनेता इतने बेशर्म और मोटी खाल के साबित हुए कि उन्होंने जूता फेंकने वालों को तत्काल पागल करार देकर माफ कर दिया। क्या भारतीय जूतों में कोई दम नहीं है?
एक बात निश्चित ही काबिले गौर है कि इराक या ईरान अमेरिकी साम्राज्यवाद के जितने शिकार हैं, भारत में वह केवल आभासी सत्य है जिस पर आम भारतीय बुद्धिजीवी गौर नहीं फरमाता। अमेरिका ने मध्य एशिया और अरब को लगभग तबाह कर दिया है और वहां उसके प्रति नफरत की जो आंधी बह रही है वह शायद कहीं और नहीं है। इराक जैसे देश और बुशरा-बग़दाद जैसी सभ्यता की जैसी सरेआम लूट हुई, वह बीसवीं सदी की सबसे बर्बर घटनाओं में एक है। इस्लामिक देश होने के कारण वहां का नागरिक अमेरिका के लिए संदिग्ध है। ऐसे में जूता प्रतिरोध का एक रूपक बनकर उभरा। यह अमेरिकी साम्राज्यवाद का ऐसा विरोध था जिसके करने वाले को पागल घोषित करना कतई आसान नहीं था। जबकि भारत में अमेरिका घर-घर में घुसा हुआ है और दीमक की तरह उसे चाट रहा है, लेकिन कोई विरोध नहीं है। भारतीय शासकवर्ग इतना नपुंसक हो चुका है कि अमेरिका का विरोध तो दूर, अपने यहां के विरोध को भी ईमानदारी से संज्ञान में लेने की स्थिति में नहीं रह गया है। यहां तक कि देश के अलग-अलग क्षेत्रों में वह पूरी बर्बरता से जनता का दमन कर रहा है ताकि अमेरिकी लुटेरों और उसके भारतीय जूनियर पार्टनरों के हितों की रक्षा कर सके। सवाल उठता है कि क्या इस परिदृश्य को संपूर्णता में समझे बिना जूते में वह ताकत आ सकती है जो उसे विरोध का एक रूपक बना दे?
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मुंतजि़र अल ज़ैदी: साम्राज्यवाद के सिर पर प्रतिरोध का जूता |
इसके लिए यह ज़रूरी है कि वर्तमान समय की राजनीति के चरित्र की अच्छी तरह छानबीन की जाए और इस बात की भी तसदीक की जाए कि प्रतीकों की राजनीति की नियति क्या है? दुनिया भर में लोकतन्त्र की मुनादी किए जाने के बावजूद क्या वास्तव में लोकतन्त्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी है? क्या लोकतन्त्र में विरोध की कोई जगह है? इन सवालों के उत्तर जितने निराशाजनक हैं उतने ही राजनीतिक शून्यता, दिशाभ्रम और इच्छाशक्ति के अभाव के भी द्योतक हैं। यह परिदृश्य वास्तव में इस हद तक दुखदायी है कि दुनिया के सात अरब लोगों की किस्मत का फैसला ऐसे लोग ले रहे हैं जो युद्ध सरदार और रक्तपिपासु हैं और वे व्यापार, लोकतंत्र और आज़ादी के नाम पर अपनी साजि़शों को अंजाम दे रहे हैं। मुंतज़र अल ज़ैदी का जूता क्या किसी ऐसी व्यवस्था के खिलाफ है जो साधारण लोगों को तबाह कर रही है? क्या इस व्यवस्था में सचमुच अभिव्यक्ति और लोकतंत्र एक छद्म है? या अभिव्यक्ति उस स्तर तक नहीं पहुंच पा रही है जहां से सारी बातों को और उसमें निहित अर्थ को गहराई से समझा जा सके? क्या माजिद मजीदी, मुंतज़र अल ज़ैदी, बासु भट्टाचार्य और प्रियदर्शन के जूते अलग-अलग बातें कर रहे हैं अथवा उनकी आपस में कोई एकता है?
इन प्रश्नों के जवाब से पहले भारत के विभिन्न हिस्सों में मौजूद सामंती अवशेषों को भी मद्देनजर रखना चाहिए जहां जूता हाथ में उठाकर चलने पर मजबूर रियाया है। जूता सामंत की नज़र में बराबरी का मेटाफर है जिसे वह अपने बपौती-क्षेत्र में निषिद्ध करता है। अक्सर दलितों ने जूते और नए कपड़ों के साथ यह अनुभव किया है कि अपने को उनसे ऊंचा समझने वालों ने और ज़हर उगला है। एक फिलिस्तीनी कहानी में यह ज़हर दो देशों के बीच नफरत के रूप में दिखता है, जहां अमेरिकी सहायता प्राप्त देश का चौकीदार सहायता-प्रतिबंधित देश के नागरिक को चिलचिलाती धूप में नंगे पांव जाने को मजबूर करता है और उसके जूते में पेशाब करता है। दिलचस्प मामला तब हुआ जब वह नागरिक वापस आता है और चौकीदार उससे चाय मंगाता है। चूंकि अपने जूते में चौकीदार के पेशाब से वह वाकिफ़ हो चुका था, इसलिए उसने चाय उसे देने से पहले उसमें पेशाब कर दिया और जाने से पहले उससे पूछा कि बाकी सब तो ठीक है लेकिन यह कब तक चलेगा कि तुम हमारे जूतों में पेशाब करते रहो और हम तुम्हारी चाय में?
वस्तुतः ये सारी घटनाएं जूते की उस अर्थव्यवस्था के लगातार निरंकुश होते जाने की ही परिणाम हैं जिनके एक छोर पर लूट और युद्ध का साम्राज्य है तो दूसरे छोर पर आवश्यकता के प्राथमिक सोपान पर खड़ा विशाल विश्व-समुदाय। इस बात को मध्य एशियाई सिनेमा ने एक अलग नज़रिये से देखा है और भारतीय सिनेमा ने अलग नज़रिये से। मध्य एशियाई सिनेमा में यह उपभोक्ता वस्तु में नहीं बदला है तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि वहां उपभोक्ता वर्ग नहीं है बल्कि वहां अमीर-गरीब की खाई स्पष्ट दिखती है। लेकिन ज़्यादातर ईरानी फ़िल्मकारों ने वहां के जनसामान्य को अपनी विषय-वस्तु बनाया है और इस तरह उन्होंने अपने देश के उन लोगों के संघर्ष और प्रतिरोध को देखने और दिखाने का प्रयास किया है जो ईरानी अर्थव्यवस्था के सबसे निचले स्तर पर हैं और उन पर किसी भी बात का सबसे घातक असर पड़ता है, लेकिन वे इतने सहनशील हैं कि कम से कम पारिश्रमिक पर अधिक से अधिक मेहनत करने को विवश हैं। दूसरी सबसे बड़ी बात यह कि जो सिनेमा अपने देश के ऐसे लोगों के जीवन को चुनता है, वह उनके भीतर मौजूद मूल्य-व्यवस्था को भी अधिक संजीदगी से समझता और समझाता है और इस क्रम में आंतरिक सामाजिक संघर्षों के साथ उन बाहरी खतरों और चुनौतियों से भी आंख नहीं चुराता जो आम आदमी के रोज़मर्रा पर दूरगामी असर डालते हैं।
लेकिन विशाल भारतीय समाज को एक बाज़ार के रूप में देखने वाले समाज और देश के ऊपर एक ऐसी अर्थव्यवस्था थोपते हैं जो अच्छी चीज को भी पहुंच से इतनी दूर बना देती है कि उसके लिए इज्ज़त बेचनी पड़ती है और दुर्भाग्य से मुख्यधारा का सिनेमा इस बात को संज्ञान में ही नहीं लेता। बल्कि इन अच्छी चीजों को प्राप्त करने के लिए किसी भी हद तक गिरने को ही उसने एक मूल्य बना दिया। ऐसा शायद इसलिए क्योंकि अच्छी चीजों का प्रस्तोता साम्राज्यवाद यही चाहता है। यह बात उसने मीडिया, साहित्य और सिनेमा आदि सभी माध्यमों से इतनी कुशलता और चतुराई से कह दी है कि यही सत्य है। क्योंकि वह उपभोग और असुरक्षा, जिंस और महानता, ईमानदारी और हीनता का इतना भयानक और महीन जाल बुनता है कि इससे अलग सोच और व्यवहार पिछड़ेपन और फालतू विमर्श में तब्दील हो जाता है। इस जगह पर लगता है कि मुख्यधारा का हिन्दी सिनेमा ठीक उसी तरह साम्राज्यवादी हितों का विस्तार करने में लगा है जैसे हॉलीवुड का सिनेमा।
इसके ठीक विपरीत ईरानी सिनेमा उन चीजों की ललक से बाहर है जिसे भारतीय सिनेमा बड़े बेतुके ढंग से भकोसने को आतुर है। “चिल्ड्रेन ऑफ हेवेन” का अली जूता पाने के लिए दूसरे नंबर पर आना चाहता है क्योंकि साइकिल उसकी ज़रूरत नहीं है। ज़रूरत का यह सिद्धान्त और सिनेमाई व्यवहार न केवल अली के जीवन से बल्कि ईरान से भी प्रतियोगिता, कॉरपोरेट, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी और अंततः साम्राज्यवाद से एक अलग रिश्ता बनाता है। यह रिश्ता दिखावे की बेहतरी और उसके परिणामस्वरूप पैदा होने वाली गुलामी से अलग है और इसीलिए दशकों की आर्थिक नाकेबंदी और प्रतिबंधों को झेलते ईरान के जनसामान्य के एक सतत प्रतिरोध का रूपक भी है।
एशिया के दो महान देशों में जूते की अर्थव्यवस्था ने सबसे अधिक सम्मान पर चोट पहुंचाया है। इसके साथ ही इस चोट से उबरने के लिए सिनेमा को और खासकर भारतीय सिनेमा को अभी अपनी भूमिका तय करनी है।
साम्राज्यवादी राजनीति के प्रतिकार में उभरते ईरानी सिनेमा और भारतीय सिनेमा के बुनियादी फर्क को रामजी यादव ने बहुत करीने से समझने का प्रयत्न किया है। उनका यह विवेचन वाकई विचारणीय है कि "इराक या ईरान अमेरिकी साम्राज्यवाद के जितने शिकार हैं, भारत में वह केवल आभासी सत्य है जिस पर आम भारतीय बुद्धिजीवी गौर नहीं फरमाता। अमेरिका ने मध्य एशिया और अरब को लगभग तबाह कर दिया है और वहां उसके प्रति नफरत की जो आंधी बह रही है वह शायद कहीं और नहीं है। इस्लामिक देश होने के कारण वहां का नागरिक अमेरिका के लिए संदिग्ध है। ऐसे में जूता प्रतिरोध का एक रूपक बनकर उभरा। यह अमेरिकी साम्राज्यवाद का ऐसा विरोध था जिसके करने वाले को पागल घोषित करना कतई आसान नहीं था। जबकि भारत में अमेरिका घर-घर में घुसा हुआ है और दीमक की तरह उसे चाट रहा है, लेकिन कोई विरोध नहीं है।" ऐसे सारगर्भित आलेख के लिए रामजी वाकई बधाई के पात्र हैं।
Your Right Sir
आपने किस जादुई कलम से इन बातों को उकेरा है उसकी तारीफ के लिये मेरे पास अल्फाज ही नहीं खास कर भारतय सिनेमा और ईरानी सिनेमा का जो चित्रण आपने प्रस्तुत किया है वह वाकई काबिल ए तारीफ है साथ आपने जो भारतीय राजनीती कि पेट भरने वाली नीती हे उसे भी आपने जिस प्रकार कटाक्ष भरे लहजे में पेश किया हे लाजवाब सर लाजवाब