अफलातून, पांडे और बुद्धिजीवियों का संकट


बुद्धिजीवियों की हालत बहुत दयनीय है। पूरी जि़ंदगी वे जनता के नाम की माला जपते हुए बिता देते हैं लेकिन जब कभी जनता के बीच जाते हैं तो जनता उन्‍हें भाव नहीं देती। उत्‍तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कुछ ऐसे ही नज़ारे पिछले दिनों अपने दौरे पर मुझे देखने को मिले। दो तस्‍वीरें आपसे साझा कर रहा हूं।

पहली तस्‍वीर बनारस के कैंट विधानसभा क्षेत्र से खड़े समाजवादी जन परिषद के उम्‍मीदवार अफलातून की है। अफलातून अपने ज़माने में बीएचयू के प्रखर छात्र नेता रहे हैं। अपने समकालीनों के मुकाबले वे सोशल मीडिया पर कहीं ज्‍यादा सक्रिय रहते हैं। उनके साथ एक समृद्ध विरासत उनके दादा महादेव देसाई की जुड़ी हुई है जो महात्‍मा गांधी के पीए थे।


अफला अफला अफला अफलातून…



टंडनजी की अड़ी पर अफलातून का प्रचार

बनारस पहुंचने के दूसरे दिन 12 फरवरी की शाम साथी रोहित प्रकाश को मछली खाने का मन हुआ, तो हम लोग बढि़या मछली की खोज में गोदौलिया से बंगाली टोला की ओर निकले। रात के साढ़े नौ बज रहे होंगे। मछली तो नहीं मिली, लेकिन हम जैसे ही सोनारपुरा चौमुहानी पर पहुंचे, देखा कि अफलातून एक बैनर और कविता के दो पोस्‍टर टांगे एक चौकी पर खड़े हैं और एक माइक हाथ में लिए ज़ोर-ज़ोर से भाषण दे रहे हैं। मैंने स्‍कूटर रोक दिया। सोचा कुछ सुन लिया जाए। ध्‍यान से देखा तो मंच पर तीन लोग थे और मंच के नीचे लगी कुर्सियों पर मात्र चार लोग, जिनमें अफलातून जी की पत्‍नी भी शामिल थीं। बड़ी महत्‍वपूर्ण बातें कर रहे थे अफलातून, लेकिन बनारस की गलियों का जनजीवन एक बुद्धिजीवी की गुहार से बेखबर अपनी मस्‍ती में डूबा हुआ था। लोग आ-जा रहे थे लेकिन किसी ने भी पलट कर देखने की ज़हमत नहीं उठाई। ठीक एक किलोमीटर पीछे मदनपुरा में दिग्विजय सिंह आए हुए थे और वहां लोगों का हुज़ूम उमड़ा पड़ा था।




समाजवादी कविता से कैसे भरेगा पेट…?

क्‍या वजह हो सकती है? क्‍या बुद्धिजीवियों ने कभी सोचने की कोशिश की है? कविता के पोस्‍टर वाली राजनीति क्‍या जनता के बीच अब प्रासंगिक रह गई है? जान कर अच्‍छा लगा कि कविताएं अपने जानने वाले समाजवादी राजेंद्र राजन की लिखी हुई थीं, जो पिछले कई साल से जनसत्‍ता में नौकरी कर रहे हैं। राजेंद्र राजन ने ही 2003 में जनसत्‍ता में मुझे पहली बार छापा था, उन्‍हें इसी के लिए मैं याद रखता हूं। बनारस के ही रहने वाले हैं राजेंद्र जी और किशन पटनायक के साथ लंबा रिश्‍ता रहा है उनका। देखिए कि कैसे बनारस का आदमी बनारस की ही कविता को और बनारस के छात्रों के लिए संघर्ष करने वाले उम्‍मीदवार को ठुकरा रहा है।

बनारस के एक सम्‍मानित पत्रकार हैं सुफल जी, जो आजकल लंबे समय से यूनीवार्ता दिल्‍ली में हैं। उनके यहां से मेरा बचपन का पारिवारिक संबंध है। वहीं बैठा हुआ था तो अफलातून जी की बात उठी। उनके बड़े भाई गोपाल जी ने उम्‍मीद जताई कि अफलातून पांच हज़ार वोट तो ले ही आएंगे। नुक्‍कड़ सभा में अफलातून जी की पत्‍नी भी भरोसा जताती हैं कि सीपीआई-एमएल ने उन्‍हें समर्थन दे दिया है। समर्थन? वो भी एमएल का? क्‍या पिद्दी, क्‍या पिद्दी का शोरबा? लखनउवा कहावत है जो बनारस में फिट बैठ रही है।

बहरहाल, उधर लखनऊ में तो बुद्धिजीवियों ने एक पूरी पार्टी ही बना डाली है। नाम है नैतिक पार्टी। नैतिक पार्टी के पांच सिद्धांतों पर गौर कीजिए-

  • जि़ंदगी का मतलब केवल जीना नहीं, आगे बढ़ना है।
  • जि़ंदगी का मतलब केवल जीना नहीं, हक़ से जीना है।
  • जि़ंदगी का मतलब केवल जीना नहीं, साथ-साथ जीना है।
  • जि़ंदगी का मतलब केवल जीना नहीं, खूब जीना है।
  • जि़ंदगी का मतलब केवल जीना नहीं, नैतिकता से जीना है।

कितनी खूबसूरत बात है। और कितनी सहजता से कही गई है। हम अमीनाबाद में प्रकाश की कुल्‍फी खाने पहुंचे थे। देखा तो चौराहे पर जाम लगा है और करीब पचासेक लोग हाथ में झाड़ू लिए लहरा रहे हैं। सबके सिर पर सफेद गांधी टोपी थी जिस पर नीले में लिखा था नैतिक पार्टी। ट्रैफिक पुलिस का गोलंबर नेता का मंच बना हुआ था और मंच पर खड़े थे नैतिक पार्टी के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष श्री चंद्रभूषण पांडे। पांडे जी ने 1987 में ही ‘चालीस साल’ नामक पुस्तक लिखकर तहलका मचा दिया था। न्यायाधीश रहते हुए उन्होंने देश की भ्रष्ट व्यवस्था का चित्रण पुस्तक में किया था।

तलवार और कलम की लड़ाई में ये नामाकूल झाड़ू कहां से आया?

न्यायाधीश रहते हुए देश के मुख्य न्यायाधीश पर उन्होंने भ्रष्‍ट आचरण का आरोप लगाया था और तमाम न्यायाधीशों के द्वारा माफी मांगने के सुझाव को नकारते हुए अपने बयान पर डटे रहे। ‘चालीस साल’ लिखने पर उन्हें उच्च न्यायालय की यंत्रणा झेलना पड़ी। न्यायालय पर टिप्पणी करने पर अनेक बार मानहानि का मुकदमा लड़ना पड़ा और उच्च न्यायालय द्वारा उनका इस्तीफा मंजूर न करके उन्हें नौकरी से बर्खास्त करके पेंशन आदि बन्द कर दिया गया। जब वह बुरी तरह बीमार थे, अस्पताल में भर्ती थे, नाक में, मुंह में नली लगी हुई थी, तभी उच्च न्यायालय ने लखनऊ के मुख्य न्यायिक मजिस्‍ट्रेट को भेज कर बर्खास्तगी का आदेश तामील कराया, ताकि वह इस सदमे को झेल न पाएं, लेकिन पांडे जी ने हार नहीं मानी। फिलहाल वह उत्तराखंड सरकार में अपर महाधिवक्ता हैं।

नैतिकता है तो नाना भी मांगता… बोले तो नाना पाटेकर…

देवरिया से 1999 में चुनाव लड़ कर हार चुके पांडे जी का कहना है कि बड़े से बड़े घर को साफ करने के लिए झाड़ू की ही ज़रूरत पड़ती है, लिहाज़ा झाड़ू उनका उपयुक्‍त चुनाव चिह्न है जिससे वे देश से भ्रष्‍टाचार को झाड़ फेंकेंगे। आसपास कम से कम हज़ारों लोग अमीनाबाद के मार्केट में घूम रहे हैं लेकिन किसी को कोई मतलब नहीं कि एक बार आकर पांडे जी को सुन जाए। उनके समर्थक कुछ गरीब जैसे दिखने वाले लोग हैं। सभी झाड़ू लहरा रहे हैं। पांडे जी ने बुद्धिजीवी रहते हुए भी लोकप्रिय और आसान शैली अपनाई है। लेकिन सब बेअसर।

नैतिक पार्टी ने लखनऊ पूर्वी 173 से अपना उम्‍मीदवार प्रो. डॉ. इंद्र सेन सिंह को बनाया है। सिंह सा‍हब हॉर्टिकल्‍चर वैज्ञानिक हैं। कैलिफोर्निया से पढ़े हैं। उच्‍च शिक्षा के क्षेत्र में दस पुरस्‍कार पा चुके हैं। हमने सोचा कि जब तक सिंह साहब के बोलने की बारी आएगी, चल कर सामने बैठ कर कुल्‍फी खाते हैं, फिर उन्‍हें सुनने आएंगे। मुश्किल से दस मिनट बाद जब हम बाहर निकले, तो नज़ारा बदला हुआ था। लगा ही नहीं कि दस मिनट पहले वहां जनसभा हो रही थी। सब साफ। चारों ओर सिर्फ़ बाज़ार।

कबीर वाणी याद आने लगी- कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ। आज न कोई घर फूंकने को तैयार है न ही जरा सा भी दाएं या बाएं देखने को। सब अपनी सीधी लकीर में बेखबर चले जा रहे हैं। कबीर रहते तो पागल ही हो जाते ये देख कर। कहीं ये कोई गहरी साजि़श तो नहीं…

न दाएं न बाएं, गरदन बिल्‍कुल सीधी रखने का लोकतांत्रिक अभ्‍यास

पांडे जी, सिंह साहब या अफलातून को ये सवाल खुद से पूछना चाहिए कि जिस जनता के लिए वे लड़ रहे हैं, वो उन्‍हें भाव क्‍यों नहीं देती। कहीं जनता ही तो गलत नहीं हो गई। अगर ऐसा ही है, तो यही सही। लेकिन लोकतंत्र जब तक काग़ज़ पर भी है, हम कैसे मान लें कि जनता गड़बड़ है। गड़बड़ी कहां है? क्‍या आप बता सकते हैं?

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3 Comments on “अफलातून, पांडे और बुद्धिजीवियों का संकट”

  1. मैं जिन तबकों की लड़ाई से जुड़ा हूं उनके पास चुनाव प्रचार-अभियान से जुडने के लिए मौका नहीं है-रोज कूंआ खोद कर पानी पीने की स्थिति में।

  2. शायद हम उन्‍हीं का अनुमोदन तलाशने लगते हैं, जिन्‍हें निरस्‍त अमान्‍य करते रहते हैं.

  3. कुछ ना करने से तो यही बेहतर है , संभव है जनगण भीड़चाल से उबरे कभी ! ध्यान और कान में कब कौन सी बात समा जाये , सो मौके की तलाश में ऐसे सुर भी हवा में तिरते रहना चाहिये !

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