7 मार्च, 2022: विकास के ‘काशी मॉडल’ के खिलाफ बनारसी अस्मिता और पहचान के इम्तिहान का दिन!


विश्वनाथ धाम के शिलान्यास के ठीक तीन साल बाद अब काशी मॉडल की अग्निपरीक्षा 7 मार्च को होगी। राजनीतिक गलियारे में इसकी काफी चर्चा है। बनारस का शहर दक्षिणी विधानसभा क्षेत्र इसकी प्रयोगशाला रहा है। कितने लोग इस मॉडल के चलते घर व रोजगारविहीन हुए और कितनों का व्यवसाय चौपट हो गया, इन सभी सवालों का जवाब 10 मार्च को मतगणना के साथ ही मिल जाएगा।

पक्कामहाल की गलियों का सम्पर्क मार्ग टूटने से सबसे अधिक दुकानदार प्रभावित हुए हैं। सैकड़ों देवी-देवता भी पक्काप्पा के ऋषि के चालन मंत्र से विस्थापित होने के लिए अभिशप्त हो गए और न जाने कितने मलबे में दब गए। यह सवाल आस्था, विश्वास व धरोहर से जुड़ा है, इसका जवाब भी मतदाताओं के फैसले व नज़रिये से तय हो जाएगा। राजनीतिक दलों के महारथी जितना दमखम था, उसका प्रदर्शन कर चुके हैं। अब फैसला खुद लोगों को करना है कि उन्हें विकास की कौन सी परिभाषा पसंद है।

प्रौढ़ों के सेटलमेंट और नवढ़ों के स्‍टार्ट-अप वाला ‘न्यू इंडिया’ वाया बनारस

2022 के विधानसभा चुनाव में बनारस में विकास के “काशी मॉडल” की नाक बचाने की लड़ाई चल रही है, जिसके केंद्र में शहर दक्षिणी विधानसभा क्षेत्र है। राजनीतिक समीक्षकों की इस पर पैनी नज़र है। पीएम नरेंद्र मोदी भी बनारस में डेरा डाले रहे और 4 मार्च को रोडशो व 5 मार्च को चुनावी रैली करके मतदाताओं को रिझाने की कोशिश किए। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव, कांग्रेस की महासचिव प्रियंका गांधी, बसपा की मायावती ने भी अपना दमखम दिखाया है।

यह देखना दिलचस्प होगा कि मतदाता बनारसी संस्कृति, धरोहर और जीवनशैली को तरजीह देते हैं या विकास की आंधी के पक्ष में खड़े हैं। लगभग 50 हजार वर्ग मीटर में बने विश्वनाथ धाम में 400 से अधिक घर, अनेक देवी-देवता, दो ऐतिहासिक पुस्तकालय गोयनका और कारमाइकल लाइब्रेरी, वृद्ध आश्रम, निर्मल मठ, लाहौरी टोला, ललिता व नीलकंठ गली, सरस्वती फाटक का अस्तित्व खत्म हो गया। इस बदलते इतिहास के अनेक लोग साक्षी हैं।

 नया बनारस बन रहा है, काशी का दम उखड़ रहा है!

यह सब इसलिए हुआ कि बाबा विश्वनाथ खुली हवा में सांस ले सकें, जिसका ऐलान 8 मार्च, 2019 को पीएम मोदी ने विश्वनाथ धाम का शिलान्यास करते समय किया था। अब वह काम अपना आकार लगभग ले चुका है। 13 दिसम्बर, 2021 को विश्वनाथ धाम का भी लोकार्पण ललिता घाट पर गंगा में डुबकी लगाकर प्रधानमंत्री कर चुके हैं। जलासेन घाट पर बना “गंगाद्वार” भी अब आम लोगों के लिए खोल दिया गया है। मणिकर्णिका पर आधुनिक श्मशान भी आकार ले रहा है। विश्वनाथ धाम का ठेका ब्रिटेन की “ई एंड वाई” कंपनी को दिया जा चुका है, जिसका मुख्यालय लंदन में है।

पक्कामहाल की गलियां काशी की संस्कृतिक पहचान हैं। बनारसी मिज़ाज को जानने-समझने के लिए गली संस्कृति को जानना पड़ेगा। “मंदिर में घर और घर में मंदिर” का यह शहर है। धरोहर बचाने की लड़ाई में शामिल कुछ रणनीतिकार शहीद हो गए। इसमें पक्काप्पा के योद्धा पंडित केदारनाथ व्यास, जर्मनी की साध्वी गीता व मुन्ना मारवाड़ी का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। कुछ लोग विस्थापन के सदमे व दर्द को झेल नहीं सके और उनकी हृदयगति थम गई।

स्मृतिशेष: मुन्ना मारवाड़ी चले गए, काशी अब ‘बाकी’ नहीं है

विकास समर्थक यह तर्क देते हैं कि बदलाव प्रकृति का नियम है। यह शाश्वत सत्य है लेकिन बुलडोजर के बल पर घरों को जमींदोज करके बदलाव की कहानी लिखने की प्रक्रिया को प्रकृति से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है। धनबल की ताकत से लिखी गई पटकथा अब हम सबके सामने है। गंगाघाट के समानांतर उस पार बनी “रेत की नहर” को गंगा की धारा में बहते हुए हम देख चुके हैं। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान गंगा में बहते शवों को भी लोगों ने देखा है। मई-जून, 2021 में प्रदूषण व काई लगने से गंगा का पानी हरे रंग का हो गया था, इसे भी हम जानते हैं।

देखने के लिए तो मीरघाट, ललिता, जलासेन और मणिकर्णिका श्मशान के सामने गंगा में बालू और मलबा डालकर धारा को पाटने का मॉडल भी देखा जा सकता है। मणिकर्णिका श्मशान के पास गंगा में गिरते सीवर की धारा भी सबने देखा है। बाबा मसाननाथ के पास गिरते सीवर को भी लोग देखते रहे।

गाहे-बगाहे: हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह…

इसके बावजूद वातावरण में खामोशी पसरी रही। बदलाव को टुकुर-टुकुर बनारसी देख रहे थे। यह बनारसी अस्मिता और पहचान को बचाने की जंग है। जनता पर हमें भरोसा है। मतदाता जो भी फैसला देंगे, उसका स्वाद भी उन्हें ही चखना पड़ेगा। समुद्र का मंथन हो रहा है, जिसमें से अमृत व विष दोनों निकलेगा। कुछ लोगों के हिस्से में अमृत आएगा और कुछ को जहर पीना पड़ेगा। शिव ने भी विषपान किया था। लेकिन अब लोग काफी समझदार हो गए हैं, कोई भी जहर नहीं पीना चाहता है।

गंगाघाटी की पक्काप्पा संस्कृति के अमृतेश्वर महादेव को भी मैंने देखा है जो जमीन की सतह से दस फुट नीचे नीलकंठ महादेव की तरह शांत भाव से इस बदलाव के साक्षी रहे हैं। मणिकर्णिका श्मशान की मां काली भी कहीं हैं। एक सौ साल बाद कनाडा से अन्नपूर्णा मां भी अब विश्वनाथ धाम में आ गई हैं। देवता आ रहे हैं, देवता जा रहे हैं। समुद्र मंथन जारी है। देखते हैं कि किसके हिस्से में अमृत आता है और कौन करता है विषपान!


(सुरेश प्रताप सिंह बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं। यह लेख उनकी ताज़ा फ़ेसबुक पोस्ट है और वहीं से साभार प्रकाशित है। कवर तस्वीर विश्वनाथ धाम में जाने का “गंगाद्वार” है। यहां कभी जलासेन घाट था। इस द्वार के सामने जो मलबा पड़ा है, वहां से दो साल पहले गंगा की धारा बहती थी।)


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