22 अप्रैल, 1870- 150 साल पुराना है यह दिन। यदि खोजा जाय तो बहुत सारे दरख्त सिर ताने हुए खड़े मिलेंगे और अपने आगोश में आसमान, धरती, बारिश, सूरज को लेकर हवा में ऑक्सिजन बिखेर रहे होंगे। वही ऑक्सिजन, जिसकी अभी इतनी मारा-मारी चल रही है, जबकि हम सभी जानते हैं ऑक्सिजन पर्याप्त है। बस, इस पर राजनीति बंद हो जाय और मुनाफाखोरी की हवस पर रोक लग जाय। ठीक वैसे ही जैसे पेड़ों की कटान की राजनीति बंद हो जाय।
एक बार फिर उसी पुराने दिन की बात करते हैं। कई बार अखबारों में खबर छपती है कि अमुक इंसान 120 साल जिंदा रहा। मैं इस खबर को पढ़कर अचम्भित होता हूं और खुश भी कि यह इंसान कितना कुछ जानता होगा, कितना कुछ देखा होगा, यदि वह सचमुच देखने और जानने की लालसा में जिया होगा। 22 अप्रैल 1870 को पैदा हुआ एक इंसान, जिसका नाम व्लादीमिर इल्यीच लेनिन था, 21 जनवरी, 1924 को इस दुनिया को अलविदा कह गया लेकिन इसने पूरी दुनिया पर जो असर डाला वह आज भी बना हुआ है। उसने मजदूरों के नेतृत्व को राजनीति में स्थापित किया और मजदूरों का राज्य कायम किया। रूस में मजदूरों के एकताबद्ध मोर्चे को सोवियत कहा जाता था और लेनिन ने इन्हीं सोवियतों की मोर्चेबंदी में हिस्सेदारी करते हुए सोवियत रूस का निर्माण किया।
भारत में कई सारी कम्युनिस्ट पार्टियां हैं जिनके नाम के साथ लेनिन का नाम लेनिनवाद के रूप में लगा हुआ है। कई हैं जिनके साथ यह नाम न होने के बाद भी वे लेनिनवाद को मानती हैं। इन वादों के लेकर उनके बीच कभी काफी गहमागहमी थी, अब यह गहमागहमी भी दिखायी, सुनायी नहीं देती। हां, यूरोप और अमेरीका के मार्क्सवादी चिंतक लेनिन के भीतर स्टालिनवाद की खोज कर तानाशाही के कारणों के मूल में पहुंच जाने को बेताब हैं और इस तरह वे कुछ नयी उम्दा दार्शनिक बात करने की बेताबी से भरे हुए हैं। यह अध्ययन एशियाई देशों, खासकर चीन की औपनिवेशिक गुलामी से बचने के लिए अथक लड़ाई और मजदूर-किसानों की सत्ता स्थापित करते हुए नये जनवादी समाज की रचना के प्रयासों के अनुभवों का दरकिनार करता है; भारत और इंडोनेशिया जैसे देशों में किसानों के संघर्ष और चुनाव के अनुभवों को देखना गवारा नहीं करता; वह समकालीन लेनिनवादी-माओवादी आंदोलन को भी संशय की निगाहों से देखता है। मसलन, नेपाल के माओवादी आंदोलन पर की गयी टिप्पणियों को देखें, तो उनसे आप किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते। एक ऐसे ही अमेरिकी विचारक जो एक समय नेपाल की क्रांति को महान बताते थे, एकदम ही उसे पतनशील बताने लगे और फिर जिस मंच से वे दावा कर रहे थे उस मंच को ही उन्होंने तोड़ डाला।
आप सोच रहे होंगे, कि मैं यह सब बात क्यों कर रहा हूं! इन बातों का इस आपदा के दौर में क्या मतलब है। हां, यह सच है जब सिर पर चोट लगी हो, खून रिस रहा हो तो दवा की बात करनी चाहिए। जब मौत का साया घना हो रहा हो तब जिंदगी की बात करनी चाहिए। लगभग सालभर पुरानी बात है। ऐसा ही कुछ नजारा और दहशत चारों ओर थी। यह 150 साल पुरानी बात नहीं। यह महज एक साल पुरानी बात है। हां, तब मौत इतनी नहीं हो रही थी, जैसा आंकड़ों में दिखा। बदहवासी इतनी नहीं थी, जितनी अब है। लेकिन, बहुत कुछ ऐसा ही था और जो सबसे भयावह था वह मजदूरों का शहर से गांव की ओर पलायन। तब, इस देश की केंद्र और राज्य सरकारों ने क्या किया था? जो भी किया, चाहे जितना काम किया, वह हम जैसे देश की जनता ही थे जो सड़कों के किनारे खड़े हुए एक दूसरे की जान की चिंता में शरीक हुए। बहुत से मजदूर मर गये, जाते हुए मजदूरों के पक्ष में खड़े हुए लोगों में से कई लोग कोरोना का शिकार होकर मर गये। मैं नहीं मरा। मैं यहां लिख रहा हूं।
एक साल बाद एक बार फिर मजदूर शहर से गांव की तरफ जा रहे हैं। इस गुजरे साल के बीच में किसान ललकारते हुए दिल्ली की सीमाओं पर बैठ गये। वे खेत छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। वे खेत से उजड़ने के लिए तैयार नहीं हैं, लेकिन मजदूर एकदम ही उजड़कर शहर छोड़कर चल दिया। इतिहास के पन्नों में देखेंगे, तो यह पहली बार नहीं हो रहा है। यह कई बार हुआ है। आप कहेंगे, मजदूरों का शहरों पर मालिकाना हक नहीं है जैसा किसानों के पास है। एकदम सही। सोलह आने सच बात है। क्या मजदूर इस मालिकाने की बात कर रहा है? क्या सरकार यह मालिकाना देने की बात कर रही है? मैं यहां रूस और चीन में हुए मालिकाने के बदलाव की बात नहीं कर रहा हूं। जब उद्योगपति, कंपनी और सरकार जनता और मजदूर से कर के रूप में अधिशेष वसूल रही है, तो एक राज्य के नागरिक के बतौर, एक मजदूर और कर्मचारी के बतौर इस अधिशेष का कितना हिस्सा उसके जीवन पर खर्च हो रहा है?
गांव में अधिया बंटाई खेती करते हुए भूमिहीन किसान को उसके परिवार को जमीन से बेदखल कर देना इतना आसान नहीं था, इसके लिए जमींदार को बलप्रयोग करना होता था, किसानों का प्रतिरोध झेलना होता था। यदि आप मार्क्सवादी हैं तो यह बात कहने से नहीं हिचकेंगे कि पूंजीवादी उत्पादन पद्धति में यदि मजदूर संगठित नहीं है, अकेला है, तो यह दुनिया का सबसे कमजोर व्यक्ति है। हां, यह बात एकदम सही है। यदि हम एक एक मजदूर की जिंदगी में जाएं, तब यह कमजोरियां आर्थिक से लेकर मनोवैज्ञानिक कारणों में दिखेंगी लेकिन एक समूह के बतौर, एक वर्ग के बतौर यह समझना भी जरूरी है कि मजदूर ऐसा क्यों कर रहा है। इन्हीं सवालों में लेनिन को याद करना, उनकी रचनाओं को पढ़ना हमें एक समझदारी की ओर ले जा सकता है।
लेनिन जब रूस की राजनीति में कदम रख रहे थे, तब किसानों और मजदूरों दोनों का संघर्ष चल रहा था। किसान जमींदारों को उखाड़ फेंकने के लिए बेताब थे और मजदूर, मजदूरी और जीवन के अच्छे हालात को हासिल करने के लिए पूंजीपतियों से भिड़ रहे थे। रूस का शासक पुराने तरह का सम्राट था, अय्याशियों में डूबा रहने वाला। वह अपने ही जैसे रजवाड़ों और जमींदारों को बचाकर रखना भी चाह रहा था, लेकिन साथ ही आधुनिकता से लैस होकर अपना साम्राज्य और बढ़ा लेना चाह रहा था। उसकी महत्वाकांक्षाएं ब्रिटेन और फ्रांस जैसी नहीं थीं, लेकिन वह अपने पिछड़ेपन के बावजूद पूंजी और वित्त के निवेश के नाम पर अपने देश को गिरवी रखने के लिए भी तैयार नहीं था। इसका सबसे आसान तरीका था यूरोप में चल रहे युद्धों में हिस्सेदारी करते हुए रूस के अंधराष्ट्रवाद को बढ़ावा देना।
रूस की राजनीति में गजब का घालमेल था और इसका सीधा असर वहां की अर्थव्यवस्था के विकास और प्रबंधन पर पड़ रहा था। अंधराष्ट्रवाद की सनक में सैनिक, पुराने हथियारों के साथ लड़ते हुए मर रहे था। इतने बड़े विशाल देश में राजनीतिक अराजकता, मजदूरों पर दमन, किसानों का बदहाल जीवन और सैनिकों की मौत से बदतर स्थिति थी। इन तीनों ने उस समय रूस की राजनीतिक और आर्थिक जीवन पर निर्णायक असर डाला। लेनिन की नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी ने मजदूरों की पहलकदमी को निर्णायक बनाते हुए नारा दियाः रोटी और शांति। यह निर्णायक पहलकदमी थी और उन्होंने पुराने राज्य को खत्म कर एक नये राज्य की नींव रखीं। यह मजदूरों का पहला राज्य था।
हमारे यहां भी तो गांधी, नेहरू जैसे लोग थे जिन्होंने उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई की, भारत छोड़ो का नारा दिया। नेहरू तो रूस की क्रांति से काफी प्रभावित थे। मैंने यहां दो नेताओं को प्रतिनिधि के तौर पर लिया है जो कांग्रेस की नेतृत्वकारी धारा को आगे ले जा रहे थे। यहां दो और प्रतिनिधियों के बारे में भी बात करनी चाहिए। डॉ. आंबेडकर, जो परिवर्तन में सामाजिक न्याय, हिस्सेदारी और राज्य निर्देशित विकास की अवधारणा पर जोर दे रहे थे। सुभाष चंद्र बोस, जो उपनिवेशवाद के खिलाफ रेडिकल परिवर्तन के हिमायती थे। अंततः 1947 में जो आजादी हासिल हुई, उसके तहत राज्य किसे मिला? इस राज्य का जो राष्ट्र था उसकी सीमाएं कैसे तय की गईं? उसमें रहने वाले लोगों को प्रतिनिधित्व किस तरह दिया गया? अर्थव्यवस्था की संरचना और नये समाज में समाज के पुनर्निर्माण की क्या अवधारणा थी? ये वे सवाल थे, जिनके जवाब में हमारी आज की राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था और संस्कृति भी खड़ी है।
देश की विशाल बहुसंख्या, जो सिर्फ संख्या नहीं है जैसा कांशीराम ने ‘बहुजन’ की अवधारणा में दावा किया या यह वह ‘बहुमत’ नहीं है जिस पर सरकार बनाने का दावा पार्टियां करती हैं, यह बहुसंख्या सामाजिक और राजनीतिक अवधारणाएं हैं जिन पर अर्थव्यवस्था और राज्य टिका होता है। ये सामाजिक वर्ग और समुदाय हैं, जाति, भाषा समूह और कई स्तरों पर संगठित हैं। इनके प्रतिनिधित्व को वोट के अधिकार तक सीमित कर दिया गया। इन वर्गों और समुदायों को आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों से दूर रखा गया। राज्य निर्देशित विकास के मॉडल में मान लिया गया कि राज्य विकास से हासिल अधिशेषों को गरीब लोगों में वितरित करेगा, लेकिन वितरण की कोई सुनिश्चित व्यवस्था नहीं बनायी और न ही वितरण को हासिल करने वालों की भागीदारी को सुनिश्चित किया गया। जैसे, जमींदारों से हासिल जमीन, बंजर और सरकारी जमीनों के वितरण के लिए नौकरशाहों का सहारा लिया गया और किसान संगठन, किसान पंचायतों और यहां तक गांव के किसानों से सलाह मशविरे तक से गुरेज़ किया गया। इसके लिए अखिल भारतीय तो छोड़ दीजिए, गांव के स्तर पर भी इस काम को अमीन, तहसीलदार और जिलाधिकारियों पर छोड़ दिया गया जो चंद साल पहले तक इन्हीं किसानों से जबरदस्ती मालगुजारी वसूल करते थे।
राज्य निर्देशित का अर्थ राज्य का नियंत्रण था जिसमें मुख्य किरदार राज्य चलाने वाले निभा रहे थे, किसान की सक्रिय भूमिका को स्वीकार नहीं किया गया और जहां भी किसान सक्रिय हुए, वहां किसानों का बुरी तरह दमन किया गया। तेलंगाना किसान आंदोलन के दमन का इतिहास इस पक्ष को खोलकर रख देगा। यही स्थिति मजदूरों की थी। मजदूरी, आवास, शिक्षा और अन्य पक्षों का हल करने के लिए राज्य उद्योगपतियों के संगठन पर निर्भर करती रही। 1960 के दशक में जब काफी दबाव बना और उद्योगपतियों, मजदूर संगठनों और राज्य के बीच सम्मेलन तय हुआ तब राज्य ने अपना हाथ इस आधार पर खींच लिया कि वह एक संप्रभु स्वायत्त संस्थान है न कि एक ऐसी ईकाई जिस पर कोई निर्णय थोप दिया जाय। इस तरह मजदूरों की मजदूरी (न्यूनतम) ही नहीं उसके जीवन हालात का निर्णय लेने का अधिकार भी वह इसी संप्रभुता के दावे साथ करने लगा। आदिवासी समुदायों की जमीन पर अधिकार वह सिर्फ इसी संप्रभुता के आधार पर नहीं बल्कि उपनिवेशिक राज्य व्यवस्था के संप्रभु कानूनों के सहारे करने लगा। दलित और आदिवासी को सामाजिक न्याय के लिए आरक्षण की व्यवस्था की देख रेख भी खुद के प्रबंधन वाली व्यवस्था के तहत किया। यहां तक कि धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के बारे में निर्णय भी सरकारी प्रबंधनों के सहारे किया गया।
विकास और प्रगतिशीलता पर राज्य का दावा इतना मजबूत और निर्णायक था कि जब राज्य ने साहित्य अकादमी की स्थापना की तब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने लेखक संगठन को निष्क्रिय (बंद) कर देने का निर्णय ले लिया। सौभाग्य से कुछ साल बाद रामविलास शर्मा ने इसे फिर से जीवित किया।
राज्य निर्देशित विकास की इस अवधारणा में जो मूल समस्या थी, वह किसानों, मजदूरों और आम मेहनतकश जनता के श्रम के अधिशेषों के वितरण पर एकाधिकार था और वह इन आर्थिक-सामाजिक सक्रिय समूहों से खुद को अलहदा किये हुए था। नीतियों और वितरणों का खुलासा बजट के दौरान होता था और यह सबकुछ एकतरफा था। राज्य सिर्फ संप्रभु ही नहीं था बल्कि इन समूहों का माई-बाप हो गया। नेता, नौकरशाह, प्रबंधन और यहां तक कि गांव का मुखिया सभी माई-बाप बन गये। इनके साथ राजनीतिक संबंध सिर्फ वोट देने और आर्थिक संबंध सिर्फ कानूनी तौर तरीके जिसमें घूस देना जरूरी होता है, से ही बना रह गया। दूसरी ओर राज्य ने अपने संप्रभु होने और विकास करने के दावे के बीच आर्थिक और राजनीतिक तौर पर जमींदारों, भूस्वामियों, उद्योगपतियों, बैंकरों और यूरोप और अमेरिका के साथ अपनी संप्रभुता में हिस्सेदार बनाये रखा। इसे हम गुटनिरपेक्षता से लेकर अमेरिका के साथ खड़ा होने में देख सकते हैं। लेकिन, इससे भी अधिक वह मुद्रा कोष और विश्वबैंक के ‘विकास’ के मॉडल पर चलने के लिए बेताब रहा। विकास एक ऐसा शब्द बन गया जो गुब्बारे की तरह लगातार फूलता रहा है और वह उतना ही आसमान में ऊपर उठता गया है। वह आज सभी को दिखने लगा है लेकिन किसी भी घर की छत पर उतरते हुए उसे देखा नहीं जा सकता।
विकास के लिए राज्य द्वारा अधिशेष की कमाई कई स्तरों पर चलती रही है। आजकल वह बचत को हड़पने के लिए आगे बढ़ चुकी है। वह कर्ज लेने के लिए तैयार है। वह नये कर लगाने के लिए तैयार है। यह सबकुछ ट्रिकल डाउन सिद्धांत से आगे बढ़कर अब आम मेहनतकश के किसी भी तरह जीवन जी लेने के प्रयासों को भी आर्थिक क्रिया-कलाप में गिन रहा है। क्यों? क्योंकि इससे भी उसे राज्य के हिस्से के बतौर कर हासिल हो जाता है।
सत्तर साल में भारतीय राज्य में एक नागरिक, वर्ग, समुदाय, जाति, समूह को एक आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक सक्रिय हिस्सेदार के बतौर बहिष्कृत किया गया है। राज्य खुद को संप्रभु घोषित करते हुए इन समूहों का माई-बाप बन गया है। राज्य खुद को कल्ट बनाने में लगा हुआ है। इसकी भाषा देखिए, तब बात समझ में आती है। मैं हूं ना, मैं आपको भोजन कराऊंगा, आपको सुरक्षित रखूंगा, आपके खाते में पैसे डालूंगा… आदि आदि। एक समय था जब एक रूपये के नोट पर राज्य धारक को वादा करता था इसका इतना मूल्य है। अब वह धारक से इतना मजबूत हो चुका है कि धारक के हाथ में थमे हुए मूल्य को न सिर्फ शून्य कर सकता है बल्कि उसे रखना भी अपराध की श्रेणी में डाल सकता है। यह स्थिति सिर्फ उस मुद्रा में छुपे मूल्य के साथ राज्य का मनमानापन ही नहीं है। यह काम वह मजदूरों के साथ भी करता है जब बाजार में उसके उस श्रम की मांग को अचानक ही खत्म कर देता है जिसके आधार पर वह अपनी जीविका चलाता है। वह मजदूरों के श्रम का मूल्य उत्पादन की व्यवस्था और उसके नियमों के आधार पर नहीं ‘विकास’ की जरूरतों के आधार पर तय करता है।
यह स्थिति सिर्फ आर्थिक कारकों तक ही सीमित नहीं है। नागरिक अधिकारों का मूल्य राज्य ने इस कदर रौंद रखा है जहां जीवन, राज्य के प्रबंधनकर्ताओं जिसमें राजनीतिक पार्टियां भी शामिल हैं, के रहमोकरम पर निर्भर हो गया है। ऐसे में राज्य और नागरिक और इन समूहों के बीच संबंध क्या बचा है? क्या यह सिर्फ दमनकारी रिश्तों में ही बचा है? नहीं। अब भी एक संबंध बचा हुआ है और वह है वोट। यहां वह खुद की सत्ता का प्रदर्शन करने नहीं जाता और न ही खुद की दावेदारी करने जाता है। वह इस आधुनिक राज्य व्यवस्था में जो कुछ खो चुका है, जितना शक्तिहीन हो चुका है, बेबस और हताश है उसे हासिल करने के लिए वह वोट देने जाता है। वह इस या उस शक्तिशाली पार्टी, नेता के साथ खड़ा होता है और खुद को उतना ही मजबूत समझता है। यह सामूहिक मनोविज्ञान की वह दशा है जहां वह थोड़े से समय में हारता और जीतता है, मरता और मारता है, खुलकर चीखता और चिल्लाता है, पार्टियों के झंडे पहनकर अपनी आंकाक्षाओं को लहराता है। यही संबंध है, और यही बचा हुआ है। बाकी क्या बचा है?
जिन गरीबों के वोट से अरविंद केजरीवाल ने जीतने का दावा किया वह लॉकडाउन में हाथ जोड़कर अपील करता रहा कि दिल्ली छोड़कर मत जाओ लेकिन मजदूरों ने साफ कहा हमें आप पर भरोसा नहीं। खुद को जनता का मसीहा समझ रहे प्रधानमंत्री ने अपील की कि लॉकडाउन थोड़े समय के लिए है, शहर में बने रहिए, मजदूरों ने साफ कहा हमें आपकी बात पर भरोसा नहीं है। यही बात किसानों ने भी कही है, आपकी बात पर भरोसा नहीं है, कानून लाइए! किसान अब भी अपनी सक्रिय भूमिका बनाये रखने की जद्दोजहद में हैं।
लेनिन को याद करने का अर्थ सिर्फ मजदूर क्रांति के सपने को साकार करना नहीं है। अपने समाज को समझने का रास्ता भी है। राज्य की प्रकृति समझना है तो लेनिन को जरूर पढ़िए। राज्य समाज से ऊपर नहीं, वह वर्गीय सबंधों और सामाजिक संस्तरों से बाहर नहीं है। वह इसका हिस्सा है और खुद के संप्रभु होने का दावा करता है, लेकिन यदि यह दावेदारी इस हद चली जाय कि राज्य समाज से खुद को अलहदा कर ले और उस पर काबिज होकर मनमर्जी का राज चलाने लगे, उस राज्य के नागरिकों के अधिकारों का अस्तित्व राजनीतिक आर्थिक तो दूर कानूनी भी न हो तो, ऐसे राज्य का विश्लेषण करना हमें जरूर ही लेनिन से जरूर सीखना चाहिए।
यह लेख एक सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता ने जनपथ को लिख कर भेजा है