शहर में किसान यानी मिडिल क्लास की नापसंदगी का मौसम


यह मिडिल क्लास ही है जो अधिकतर बेहया शब्द का इस्तेमाल सबसे ज्यादा छुप-छुपा कर करता है। अच्छा, अधिकतर छुप-छुपा कर करने का यह मतलब कभी नहीं होता कि खुलम-खुल्ला कभी न करता हो। और क्यों छुप कर करता है? इसीलिए करता है क्योंकि मिडिल क्लास है! कोई और क्लास रहता तब या तो चिल्ला-चिल्ला कर ही करता, नहीं तो एक जो और क्लास होता है वो पता नहीं बेहया को अपनी जुबान पर लाना पसंद करता है भी या नहीं। जुबान पर नहीं ही लाता होगा, कुछ और बोल कर ही निकलता होगा। खैर, मिडिल क्लास तो करता है, छुप कर भी और सामने से भी। किसके लिए करता और कहां करता है, यह बात वो खुद भी जानता है और साथ में ये भोली दुनिया भी जानती है।

इस बेहया मिडिल क्लास की नापसंदगी की सूची बहुत लम्बी है और पसंद की उतनी ही छोटी। आज दिसंबर 2020 के ठण्ड में नापसंदगी का कारण बंद, हड़ताल, आन्दोलन है। और इनके पसंद की बात करना बेकार है क्योंकि वो इधर कुछ साल में ठंड, गर्मी या बरसात हो इनके लिए सब एक ही रहता है। क्यों एक ही रहता है? क्योंकि दिन भर की थकान को मिटाने और खुद के घर की एकता को बनाये रहने के लिए ये हर शाम साथ बैठ कर टीवी जो देखते हैं। और टीवी इनके पसंदीदा हीरो को दिखाता है। कभी टीवी में दाढ़ी अच्छी लगती है तो कभी कपड़ा! बस रोड पर बैठे छात्र, किसान अच्छे नहीं लगते क्योंकि वही लोग तो इनको ऑफिस जाने में, अस्पताल जाने में, मॉल घूमने जाने में तंग करते हैं।

और ये रोड पर बैठा छात्र, किसान क्या कर रहा है? वे लोग इन बेहया सब का ही आवाज बन कर बैठे हैं लेकिन वो लोग इनको आज पसंद नहीं आ रहे हैं। और आगे के कुछ सालों में भी पसंद नहीं आएंगे। अब इंतज़ार करना है इन लोगों को, टूट कर बिखर जाने का। अभी तो टीवी देख कर विश्‍वास हुआ जा रहा है, और विश्‍वास कायम रहेगा क्योंकि टीवी इतना सुन्दर बोलता हुआ दिखता ही है, विश्‍वास हो क्यों न?

अगर आपको अब भी लगता है कि किसान आंदोलन सिर्फ पंजाब का है, तो ये आवाज़ें सुनें!

इस बेहया मिडिल क्लास को यह मत समझ बैठिएगा कि ये जाहिल है। बहुत पढ़ा लिखा है, अपनी पढाई के दम पर ही खाता-पीता है, गाड़ी में भी घूमता है, हवाई जहाज में भी घूमता है। पर पढाई के साथ-साथ इनकी कुछ मज़बूरी भी है। इन लोग का जात है, धर्म है और आज का एक नया सोच है- बचे रहने का, नहीं तो गायब हो जाएंगे ये लोग। सही बात है, ये लोग जो गायब होना शुरू हुए तो अभी तक पूरा खतम नहीं हो पाये हैं। इस बारे में पूछिएगा तो ये आपको भारत का भूगोल घुमाएंगे और ले जाएंगे भारत के सबसे ऊपरी कोना पर। वहां ले जाने के बाद आपको सिर्फ वहां घुमाएगा ही नहीं, कुछ मरे हुए एक समय के लोगों को अपने मुँह से जहर उगलते हुए अस्थि भी बहाएगा। अब गाली तो सीधे-सीधे दे नहीं सकता है, मिडिल क्लास होने का कर्तव्य भी तो साथ-साथ निभाना है। फिर सब जहर उगलने के बाद कोई पूछ दे कि आप उस हिस्से को कब से जान रहे हैं तो अपने ज्ञान का हवाला देगा। आप चुप हो जाइएगा क्योकि ई सब वापस घर जाकर यूट्यूब ही खोलने वाला है।

अच्छा इस पढ़े-लिखे मिडिल क्लास में इनके बच्चे भी होंगे, वे क्या करते हैं? वे पढाई करते हैं, एन्जॉय करते हैं, ट्रिप पर हैं और एक चीज और करते हैं, गाली देते हैं! किसको? अफ़सोस होता है ये कहने में कि कभी राष्ट्रपिता को देते हैं तो कभी एक वक़्त के इनके ही राष्ट्र के राष्ट्रनिर्माताओ को देते हैं। क्यों देते हैं? क्योकि कभी-कभी जब घर में ही चचेरा, ममेरा, फुफेरा भाई-बहन आया रहता तो इनके पापा-मम्मी अपने बच्चों की नापतौल करते हैं, जिसमें जीके, इतिहास, केमिस्ट्री का फार्मूला ये सब उनका हथियार होता है। केमिस्ट्री का फार्मूला तो अब आप बदल नहीं सकते हैं तो हिस्ट्री को ही बदल कर आग लगा देते हैं!

बात-बात में बड़े लोग बताते हैं कि कुछ लोग अपना जितना ख़राब सच था उसको जलवा दिये तो कोई बताता है कि लाल झंडा वाला सब गुंडा होता है। हाँ, लाल झंडा वाला गुंडा कैसे बनता है, कौन बनाता है ये नहीं बताते। तो ये सब सुन-सुन कर ही हम लोग सब जान जाते हैं। अब आपको लगेगा पढता भी तो है इनका बच्चा सब? पर वो वाला पढाई भी तो पापा-मम्मी को खुश रखने के लिए नंबर लाने वाला होता है। हाँ, उसमें से भी दो तरह के बच्चे निकलते हैं, एक जो इसी नंबर लाने की पढाई को खुद में ढाल लेता है और कुछ करता है। दूसरा होता है मेरे जैसा मिडिल क्लास का बच्चा, जिसके पिता यही बोलते सालों गुजारते हैं कि, ‘क्या पढाई हो रहा है उ तो दिख ही रहा और आगे पता चलेगा ही’।

तो ऐसे में सबसे सरल रास्ता होता है कि कहानी सुन लिए और सुने तो सुने उसको घूम-घूम कर दोस्तों में, कभी बड़ों की बहस में कूद पड़ते हैं और महात्मा को तो गाली दे ही रहे हैं। अच्छा, इन बच्चों को कभी ये नहीं बोलिएगा कि पढ़ लो थोड़ा, फिर बात करना। कभी नहीं, क्योकि ये ऐसे ही बेहया मिडिल क्लास नहीं है, समझ देने पर इनके अंदर से सबसे ज्यादा बाहर जो आता है वो होता है, ईगो। उल्टा आपको सुनना पड़ेगा कुछ, और ईगो शांत करने के चक्कर में ये और उल्टा रास्ता पकड़ लेंगे। किताब नहीं पढ़ेंगे, गूगल करेंगे। और गूगल कहाँ ले जाता है उसका अंत नहीं है।

हमको भी कुछ दिन पहले ही पता चला कि सही में कोई अंत नहीं है इसका क्योंकि कुछ दिन पहले ही हम अपने दोस्त के फ़ोन में यूट्यूब खोले तो एक वीडियो आ रहा था जिस पर लिखा था, “क्या अमिताभ बच्चन, बच्चन नहीं असल में नेहरू हैं?” सोचिए, नाम नेहरू का बिगड़ना था, साथ में कौन-कौन नहीं पिसा गया!

शुरू में रोड पर बैठे छात्र और किसान की जो बात हुई, क्या उनका दिक्कत उनके तक ही रह जाती या सही में वे सब नौटंकी में बैठे हैं? दिक्कत तो आती है घूमते हुए इन बेहयाओं के पास भी। कब? जब इनके वही बच्चे बड़े होते हैं, बाहर जाते हैं, नौकरी करते हैं, तब। और तब भी जब सरकार स्कॉलरशिप नहीं देती है। बच्चों को, इस साल का और आगे आने वाले दो सालों का स्कॉलरशिप प्रोग्राम को सस्‍पेंड कर दिया जाता है, महामारी का खर्चा बताते हुए। और उसी वक़्त सरकार करोड़ो के बिल्डिंग, पुल का आधार रखती है। तब बुरा लगता है। और तब भी जब महंगाई समझ आने लगती है, जब मोहल्ला का माहौल बिगड़ने लगता है और जब चार घर छोड़ पांचवें घर में किसी शाम आग लग जाती है, तब। हाँ, चिंता नहीं करनी है, अभी वक़्त है ये सब देखने में। मानते हैं थोड़ा महंगाई नज़र आती होगी लेकिन जीवन में उससे बड़ा भी कुछ है और इनके साथ भी तो कोई है अभी, दाढ़ी वाला। वो असलियत में भले किसी और का हो लेकिन देखने पर तो अपना ही लगता है न!


लेखक पटना में बीबीए (द्वितीय वर्ष) के विद्यार्थी हैं


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