दरअसल, पिछले दिनों हुए नया ज्ञानोदय विवाद पर एक पुस्तिका प्रकाशित हुई थी जिसका नाम रखा गया ‘युवा विरोध का नया वरक’। मैंने सोचा कि साल बीतते-बीतते इस पर एक टिप्पणी जड़ दी जाए, सो तहलका हिंदी डॉट कॉम में मैंने अपने समीक्षा के स्तम्भ में इस पुस्तिका के बहाने विवाद पर रोशनी डालने की कोशिश की थी। अजीब है कि समाज-राजनीति के हर क्षेत्र में तहलका मचाने वाले इस माध्यम ने साल के सबसे बड़े साहित्यिक तहलके को पढ़ने के बाद छापने से मना कर दिया। इस पर कभी और बात करेंगे कि आखिर इसकी क्या वजहें हो सकती हैं, फिलहाल वह समीक्षा जस की तस जनपथ से गुज़रने वालों के लिए प्रस्तुत है…
हालांकि, पुस्तिका के प्रकाशन में ज़ाहिर तौर पर कुछ नए-पुराने युवा लेखकों की भूमिका है, लेकिन आश्चर्य तब होता है जब हम इसमें लिखने वालों की सूची में ज्ञानरंजन, राजेश जोशी, नासिरा शर्मा, कृष्णा सोबती, दिलीप चित्रे, अशोक वाजपेयी आदि वरिष्ठ लेखकों के नाम देखते हैं। दरअसल, विवाद शुरू तो हुआ था पत्रिका नया ज्ञानोदय के युवा विशेषांक में लेखकों के अपारम्परिक परिचय से, लेकिन बाद में लेखिका नासिरा शर्मा के बारे में पत्रिका में सम्पादक रवींद्र कालिया की टिप्पणी के चलते मैदान में उपर्युक्त वरिष्ठ आलोचकों-कथाकारों को उतरना पड़ा। खास बात यह है कि इस पुस्तिका के लिए विशेष तौर पर लिखने वाले कम हैं, यहां लेख व प्रतिक्रियाएं अधिकतर साभार ली गई हैं। विवाद के गर्म होने के दौरान कई लेखकों की प्रतिक्रियाएं जनसत्ता, सण्डे पोस्ट और राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हुई थीं। मोटे तौर पर यह पुस्तिका उन्हीं का एक संकलन है।
सबसे पहले पुस्तिका में ध्यान उसके आवरण पर जाता है। आगे और पीछे दोनों ओर प्रकाशित टिप्पणी से हमें हिंदी में कालिया विरोधी लेखकों की आत्ममुग्धता और प्रूफ की त्रुटियों की भयंकर बानगी मिलती है :
यहीं से यह स्पष्ट होने लगता है कि किस तरह सही मुद्दे पर प्रवृत्तिगत बात करने की बजाय इसे व्यक्ति निंदा का औज़ार बना कर खुद को स्थापित करने की चेष्टा की गई है। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि आज से आठ माह पहले जब युवा विशेषांक आया था, उपर्युक्त दायरे की आधा दर्जन ताकतें दिल्ली से चल रहे एक साम्राज्यवाद विरोधी लेखक मंच का हिस्सा हुआ करती थीं और वहां यह प्रस्ताव इन्होंने रखा था कि लेखकों के परिचय के खिलाफ अभियान चलाया जाना बहुत ज़रूरी है। पुस्तिका छापने की योजना वहीं परवान चढ़ी थी, लेकिन जब मंच में इस व्यक्ति केंद्रित कुत्सा अभियान को आम सहमति नहीं मिली, तो ये ताकतें उस मंच को कमज़ोर कर के बाहर निकल गईं।
यह बात बिलकुल दीगर है कि नया ज्ञानोदय के संपादक रवींद्र कालिया के दिल्ली आते ही साहित्यिक माहौल बदलने लगा था। उनकी संपादकीय क्षमता से पहले भी दिल्ली के युवा लेखक परिचित रहे होंगे, फिर पहले उनके दरबार में अपनी रचनाएं छपवाने के लिए मत्था टेकना और फिर कुछ की रचनाएं न छापे जाने से उद्वेलित होकर विरोध अभियान शुरू कर देना आखिर किस प्रवृत्ति का द्योतक है? इसी पुस्तिका में कृष्ण कल्पित ने एक जगह लिखा भी है :
‘…इस पूरे साहित्यिक विवाद में कुछ युवा रचनाकारों का जो रूप और संवेदना प्रकट हुई – वह सचमुच महत्वाकांक्षाओं के अंधेरों से भरी हुई थी। यह लड़ाई सड़कों पर लड़ी गई – एसएमएस के जरिए, लेखों के जरिए, ब्लॉग के जरिए, परचों के जरिए।’
ज़ाहिर तौर पर यह बात सच है कि युवा विशेषांक में लेखकों का परिचय बहुत अपमानजनक तरीके से चरित्रहनन की शैली में दिया गया था, लेकिन उसका विरोध जिस प्रवृत्तिगत स्तर पर किया जाना चाहिए था वह संभव नहीं हो सका। पत्रकारिता के खराब नमूने का विरोध करने के लिए वस्तुपरक विवेक को तिलांजलि देना कहीं से भी न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। इस लिहाज से पुस्तिका का हिंदी साहित्य में ‘कनटेन्ट’ के स्तर पर कोई खास योगदान नहीं दिखता।
हां, यह ज़रूर है कि हिंदी साहित्यिक पत्रकारिता जिस दौर में पहुंच चुकी है, उसकी तस्वीर हमें पूरे विवाद को समझने और पुस्तिका पढ़ने के बाद साफ मिल जाती है। दूसरे, जिस किस्म के संपादन और भाषा की उम्मीद सुधी लेखकों से की जानी चाहिए, उस पर पुस्तिका खरी नहीं उतरती है। कम दाम में खराब काग़ज़ पर छपाई का पर्याय संपादन की गलतियां नहीं होता।
आखिर में कहने को यही रह जाता है कि हिंदी साहित्य की मौजूदा आत्ममुग्ध तस्वीर से रूबरू होना हो तो इस पुस्तिका को पढ़ें। किस तरह मुद्दे को व्यक्ति में और मैक्रो को माइक्रो में तब्दील कर दिया जाता है, खुद को मार्क्सवादी कहने वाले लेखकों द्वारा दी गई यह ताज़ा मिसाल है। बाकी विश्लेषण खुद कुमार मुकुल अपने आलेख ‘नया ज्ञानोदय की परिचय पच्चीसी’ के नीचे जड़ी टिप्पणी में कर देते हैं- कि इस आलेख को ‘हंस’ में न छाप पाने के पीछे कथाकार संजीव का क्या तर्क था। उनके तर्क को विस्तार दें तो कह सकते हैं कि यह पुस्तिका साहित्यिक अपशिष्ट में फेंके गए ढेलों का ढूह भर है।
nirasha ya hatasha ka charam. vaise aap iske liye pahle bhi khyat rahe hain.
कुंठित अहमन्यता हिंदी की किसी भी विधा में लेखन करने वालों व्यक्तिचरित्र पर पूरी तरह कुछ इस प्रकार हावी है कि अब यह वर्ग-चरित्र या समाज -चरित्र के रूप में व्याख्यायित की जा सकती है। ‘इस’ दल या ‘उस’ दल,‘यह’दल या ‘वह’दल तो बहानामात्र हैं|नीतियाँ,मुद्दे,विचारधारा,प्रतिबद्धता,प्रश्न…आदि सब एक प्रकार का छद्म-मात्र हैं,अपनी गोटी जहाँ बैठ सके वहाँ स्थापित होने की प्रक्रिया की अनिवार्यता में अपनाया गया…. आडम्बरमात्र! किसी भी प्रश्न या मुद्दे पर बँटे पक्ष या प्रतिपक्ष की भूमिका संदिग्ध ही नहीं, अनिवार्यत: स्वार्थ है। स्वार्थ रहित व्यक्ति आज किसी के भी पक्ष में खड़ा नहीं होता क्योंकि सवाल असल में उनके अपने को रेखांकित करवाने-मात्र का होता है,न कि किसी बड़े हेतु के निमित्त जुटने -भर का। सो, चलती चाकी देख के दिया कबीरा रोय, दो पाटन के बीच में बाकी ….??