पिछले साल की 14 फरवरी याद है आपको? एक बड़ी अजीब घटना हुई थी उस दिन। सुबह से ही ट्विटर और अन्य सोशल नेटवर्किंग साइटों समेत एसएमएस से हमें याद दिलाया जाने लगा कि उस दिन शहीद दिवस है। बात आग की तरह फैली। विकीपीडिया पर कुछ लोगों ने भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की शहादत की तारीख 23 मार्च से बदल कर 14 फरवरी कर दी। उतनी ही तेज़ी से समाजवादी पार्टी की वेबसाइट पर भी यह बदलाव देखने में आया। शाम होते-होते मेरा सहज ज्ञान डोल गया। हास्यास्पद होने की हद तक यह बात चली गई जब मुझे दफ्तर में बैठे-बैठे इंटरनेट पर ही दोबारा जांचना पड़ा कि सही तथ्य क्या है। शहादत के सिर्फ अस्सी बरस बीतने पर इस देश की सामूहिक याद्दाश्त का यह शर्मनाक नज़ारा था, जिसमें मेरा भ्रम भी शामिल था।
दुनिया मेरे आगे, जनसत्ता |
बहरहाल, शहादत बचपन में बड़ी ‘फैसिनेटिंग’ चीज़ हुआ करती थी। मैंने सिनेमाहॉल में जो पहली फिल्म देखी, वह थी सन पैंसठ वाली मनोज कुमार की ‘शहीद’। ग़ाज़ीपुर के सुहासिनी थिएटर में 15 अगस्त 1985 को यह फिल्म दिखाई गई थी। मुझे पक्का याद है कि उस दिन मेरी तबीयत खराब थी, लेकिन मामा के साथ जबरदस्ती घर से हॉल तक आया था कि बड़े परदे पर फिल्म देख सकूं। तब हमारे यहां टीवी नहीं हुआ करती थी। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की भूमिका में मनोज कुमार, प्रेम चोपड़ा और आनंद कुमार की ठसक भरी चाल, मूंछों पर ताव और फांसी के फंदे को चूमते गुलाबी होंठ, चमकदार आंखें, अब तक सब कुछ याद है। इन्हीं छवियों से मिल कर मेरे लिए ‘शहीद’ शब्द की परिभाषा बनी थी। बनारस आया तो पहली बार इस परिभाषा को चुनौती मिली, जब देखा कि वहां बहादुर शहीद की एक मज़ार है। पता चला कि शहीद और भी हैं दुनिया में। अचानक एक दिन ज्ञान में इजाफ़ा हुआ। ठीक से याद नहीं, लेकिन शायद 1997-98 की बात है। चंदौली में शायद कोई मुठभेड़ हुई थी जिसमें एक पुलिस अधीक्षक मारे गए थे। सारे अखबारों ने उन्हें शहीद लिखा था। उसके बाद से शहीदों की झड़ी लग गई। करगिल युद्ध, अक्षरधाम हमला, संसद पर हमले से लेकर बटला हाउस और चिंतलनार तक शहीद थोक में पैदा होने लगे। आज रोज़ कोई न कोई शहीद होता है।
अब शहीद होना ‘कमिटमेंट’ का सवाल नहीं रह गया, नौकरी का सवाल हो चला है। आप जिसकी नौकरी करते हैं, उसी के लिए मरते भी हैं। मालिक ने शहीद का दर्जा दे दिया तो ठीक, वरना मौत बेकार। शायद इसीलिए इज़रायल का संविधान शहादत को सेलीब्रेट नहीं करता। वह जानता है कि जितने शहीद होंगे, लड़ाई का नैतिक आधार उतना ही मज़बूत होगा। हमारे यहां स्थिति थोड़ी दूसरी है। हमारी सरकारें अपने चाकरों को जीते जी बुलेटप्रूफ जैकेट तक तो दे नहीं पातीं। एक रस्म चल गई है कि ठीक है, आप दुश्मन से लड़ते हुए मरे तो आपका शहीद होना जरूरी है। ठीक ऐसे ही संसदीय बाड़ की दूसरी तरफ भी शहीद पाए जाते हैं। अभी पिछले दिनों सिकंदराबाद की लाल झंडा बस्ती में माओवादियों ने अपना शहीद दिवस मनाया था। वहां भी शहीद स्मारक होते हैं। सब कुछ एक सा ही है, बस फर्क इस बात का है कि आप बाड़ के किस ओर खड़े हैं। उससे तय होगा कि आपका अपना शहीद कौन है।
लेकिन इतना भर कह देने से काम नहीं चलने वाला, क्योंकि शहादत की बुनियादी कसौटी इस दुनिया में मौत मानी जाती है। इस देश की अधिकांश गरीब-गुरबा जनता ऐसी शहादत को ‘अफोर्ड’ नहीं कर सकती। यह भी कह सकते हैं कि रोज़ वह मर-मर के जीती है, इसलिए शहीद होना उसके लिए एक आदत सी बन गई है। अपना शहीद चुनना भी उसके लिए इतना ही मुश्किल काम है, क्योंकि उसके लिए पक्षधरता की ज़रूरत होती है और पक्षधरता से पेट नहीं भरता। असली समस्या तो तब पैदा होती है जब बिना वास्तविक पक्षधरता के आपको ‘शहीद’ होना पड़ता है। मसलन, अखबार या टीवी चैनल से एक संजीदा पत्रकार की नौकरी सिर्फ इसलिए जा सकती है कि उसने ‘नक्सली मुठभेड़ में तीन जवान शहीद’ की जगह लिख दिया ‘… तीन जवानों की मौत’। इसे हम मध्यवर्ग की बौद्धिक उलझन भी कह सकते हैं। ऐसे लोगों को अपनी क़ब्र पर लोटने का शौक़ होता है। बेशक, मैं खुद इस तबके का हिस्सा हो सकता हूं। एक और श्रेणी है जो शहीदों को टीशर्ट पर चिपकाए घूमती है, बगैर जाने कि लाल रंग से लिखा ‘चे’ कौन था।
ऐसा लगता है कि इस देश में शहीदों की संख्या अब ज़रूरत से ज्यादा हो गई है। बिल्कुल टीवी चैनलों की तरह, जिन्हें न कोई देखता है, न सुनता है। हां, ‘शहीदे आज़म’ बेशक एक ही है। शहीदे आज़म यानी सबसे बड़ा शहीद। भगत सिंह। अपने-अपने शहीदों को तो लोग बचा ही ले जाएंगे क्योंकि ‘आइडेंटिटी क्राइसिस’ के दौर में इससे बेहतर कोई उपाय नहीं। लेकिन शहीदे-आज़म को बचाना, उनकी विरासत को सहेजना, उनसे सीखना इस देश की सामूहिक जि़म्मेदारी बनती है। आखिर को, वो टेढ़ी गोल टोपी और तनी हुई मूंछ हमारी साझी स्मृति का हिस्सा है। हम सबने कभी न कभी लड़कपन में ही सही, अपनी मूंछ के सिरों को वैसे ही धारदार बनाया था। सोच कर देखिए। कोई शक?
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