(गतांक से आगे)
पैसा बोलता है
नागरगोजे का संकट दरअसल पैसे में छुपा है। विकल्प और विकल्प की राजनीति की राह में यहां धनबल और वोट की जातिवादी व सांप्रदायिक राजनीति रोड़ा बन कर खड़ी है। इसका दिलचस्प उदाहरण परभणी जिले का गंगाखेड़ तालुका है, जो वैसे तो दुष्काल से पर्याप्त प्रभावित है लेकिन सरकारी सूची में सिर्फ इसलिए अकालमुक्त है क्योंकि अंग्रेज़ों के ज़माने की पैसेवारी आधारित उत्पादन गणना में 50 पैसे के मानक से इसका हर गांव आगे है। गंगाखेड़ पर आने से पहले पैसेवारी की गणना पर एक नज़र डाल लेना दिलचस्प होगा। किसी गांव में 70फीसदी जो फसल पैदा की जाती है, उसे वहां की प्रमुख फसल माना जाता है और औसत पैदावार को एक रुपए के बेसलाइन पर निकाला जाता है। जो गांव 50पैसे से नीचे की पैदावार दिखाता है, उसे अकालग्रस्त घोषित कर दिया जाता है। बीड जिले के पत्रकार अतुल कुलकर्णी कलक्टर कार्यालय से निकाला एक दस्तावेज हमें देते हैं जिसमें 20 गांवों की पैदावार शून्य है। शून्य पैदावार वाले इन गांवों को 49 तक की पैदावार वाले गांवों के साथ एक ही अकालग्रस्त श्रेणी में रखा गया है। यानी इन सारे गांवों में समान रूप से टैंकर समेत योजनाएं लागू होंगी, लेकिन जिन 20 गांवों में खाने को अनाज तक नहीं है वहां टैंकर या मनरेगा की किसी अन्य योजना का क्या मतलब बनता है?
मराठा वर्चस्व का जवाब पैसे से: विधायक सीताराम गंढत |
परभणी के गंगाखेड़ तालुका का दामपुरी गांव इस श्रेणी में भी एक अपवाद की तरह हमारे सामने आता है जहां पैसेवारी के आधार पर पैदावार 50 से ज्यादा है, लेकिन लोगों के पास खेत नहीं हैं क्योंकि यहां की पहाड़ी बंजर ज़मीन में मामूली ज्वार या बाजरा के अलावा कुछ भी पैदा नहीं होता। यह इलाका एक ज़माने में वाम राजनीति का मज़बूत गढ़ हुआ करता था जब शेतकारी संगठन से यहां चुन कर विधायक आता था। उसके शिवसेना में चले जाने के बाद से यहां की राजनीति बदली। पिछले चुनाव में जब गंगाखेड़ सीट को आरक्षित श्रेणी से निकाला गया, तो अचानक मराठा उम्मीदवारों की कतार लग गई। मौके का फायदा उठाते हुए अचानक एक दलित निर्दलीय उम्मीदवार का यहां उदय हुआ। यह ऐसा-वैसा उम्मीदवार नहीं, हज़ारों करोड़ की संपत्ति वाले एक सहकारी बैंक मुंबई स्थित अभ्युदय बैंक का चेयरमैन था। इस उम्मीदवार ने मराठा वोटरों को लुभाने के लिए कुल 65 करोड़ रुपए अपनी सीट पर चुनाव प्रचार में खर्च किए। कहते हैं कि एक-एक वोटर की जेब में दो से तीन हज़ार रुपए आए। आज गंगाखेड़ से परभणी के रास्ते में खड़ी इस विधायक सीताराम गंढत की विशाल कोठी दामपुरी के बेरोज़गार लोगों को मुंह चिढ़ा रही है, जिनके पास 42 डिग्री तापमान में घर की बनी महुआ की शराब पीने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा है। जब अकाल की सरकारी सूची में नामौजूद दामपुरी का यह हाल है, तो इकलौते अकाल प्रभावित जिंतूर तालुका का हाल सिर्फ समझा ही जा सकता है जिसके कुल 30 गांव सरकारी सूची में अकालग्रस्त हैं। मरडेसगांव के संपन्न मराठा किसान विक्रम काले ठीक कहते हैं, ‘‘लोग वहीं जाएंगे जहां उन्हें फायदा दिखेगा।’’ विक्रम खुद स्वीकर करते हैं कि लोकसभा में उन्होंने शिवसेना को वोट किया और विधानसभा में एनसीपी के उम्मीदवार को। वे कहते हैं, ‘‘किसी एक पार्टी के साथ आस्था का कोई मतलब नहीं। जो जीतता है, उसे वोट करो।’’
अमीर मराठों का हिमाचली तीर्थ: काला अम्ब स्मारक |
यह विक्रम का पैसा बोल रहा है। वे इकलौते किसान मिले जिन्होंने अपने यहां ड्रिप सिंचाई प्रणाली लगाई हुई है। उनके पास पैसा है और तहसील कार्यालय तक पहुंच भी। इस दुष्काल में वे बीती जनवरी में हरियाणा-हिमाचल की सीमा पर काल अम्ब होकर आए हैं जां मराठों ने अहमद शाह अब्दाली के साथ पानीपत का तीसरा युद्ध लड़ा था। उन्हें मरते इंसानों की नहीं, पशुओं की फिक्र ज्यादा है। मेनका गांधी की संस्था के वे सक्रिय सदस्य हैं। उनके दोस्त सातपुते गंगाखेड़ तालुका के ही संपन्न किसान हैं जो अपने घर में प्रवेश से पहले परंपरा का हवाला देते हुए पानी से हमें पैर धुलने को कहते हैं। उनका लड़का दिल्ली से एमबीए कर रहा है। मराठवाड़ा का पंजाब कहे जाने वाले परभणी में मराठा अस्मिता म्हस्के बस्ती के मुकाबले एक दूसरे संस्करण में दिखती है, जब विक्रम हमसे कहते हैं, ‘‘मराठा हैं तो क्या हुआ, ओबीसी में शामिल किए जाने से हमें फायदा ही मिलेगा।’’ उनका इशारा शिवाजी के 13वें वंशज पुणे के संभाजी राजे की ओर है जिन्होंने मराठों को ओबीसी में शामिल किए जाने का चुनावी कार्ड खेलते हुए 4 अप्रैल को मुंबई में दो लाख की भारी रैली की थी।
इस इलाके में करीब बीस साल से खेत मजदूरों के बीच काम कर रहे नेता राजन क्षीरसागर का यहां के संकट पर अलग सोचना है, ‘‘संपन्न मराठा किसानों में अगर हम नीति के स्तर पर चेतना जगाकर उन्हें जागरूक कर सके, तो वे निचले तबके के किसानों को आसानी से समझा सकेंगे।’’ राजन के मुताबिक दुष्काल के लिए किए जा रहे राहत कार्य में तीन तबकों को पूरी तरह छोड़ दिया गया है- गन्ना मजदूर, मछुआरे और बंटाईदार। मछुआरों की समस्या हालांकि मराठवाड़े के इस इलाके की विशिष्ट हैं क्योंकि परभणी में पर्याप्त पानी पाया जाता है। यहां का मासोली बांध आज की तारीख में भी 100 फीसदी भरा हुआ है जिसमें उपयोग लायक 37फीसदी पानी है। यह बात अलग है कि बांध के कमान क्षेत्र में आने वाले आठ गांवों में से सिर्फ तीन में इसका पानी जा पा रहा है क्योंकि मामला फिर पैसे और उसके दबाव में जल संपदा के कुप्रबंधन पर आकर अटक जाता है। बांध की पृष्ठभूमि में गंगाखेड़ शुगर मिल खड़ी है जो आधिकारिक तौर पर इस बांध से 2 टीएमसी पानी लेती है और बाकी खेतों के रास्ते पाइपलाइन से चुरा लेती है। पानी से लबालब इस बांध से महज 30किलोमीटर दूर हालांकि परली शहर एक विडंबना बनकर उभरता है जहां का मशहूर पावर प्लांट जायकवाड़ी और मज़लगांव बांध से पानी रोके जानें के कारण पूरी तरह ठप पड़ा है।
दुष्काल के सवाल
मराठवाड़े में कई सवाल सिर उठाए खड़े हैं। कैग की रिपोर्ट कहती है कि पिछले दस साल में 70,000 करोड़ रुपया सिंचाई परियोजनाओं पर फूंक दिया गया और इलाके की सिंचाई संरचना में महज 0.1 फीसदी का इजाफा हुआ! आखिर इसका जिम्मेदार कौन है? जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) द्वारा 18 अप्रैल को जारी एक प्रेस विज्ञप्ति कहती कोल्हापुर के एक नौकरशाह की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहती है कि सिंचाई परियोजनाओं के ठेके दिए जाने में अजित पवार, नितिन गडकरी, गोपीनाथ मुंडे, सुनील देशमुख, विजय वडेट्टिवार जैसे नेताओं समेत पर्यावरण और वन मंत्रालय के अफसरों और लोकमत समूह के मालिक दरदा परिवार के लोगों ने पैसे खाए हैं। सवाल ये है कि आखिर इन पर कोई कार्रवाई क्यों नहीं होती? बीड के पाटोदा तालुका स्थित चुंबली गांव में एक के बाद एक 200बोरवेल और 200 से ज्यादा कुएं खोदने का जिम्मेदार कौन है? आखिर डोंगरकिन्ही में सात लाख रुपए खर्च करने के बावजूद जमीन के 500फुट नीचे पानी क्यों नहीं निकला? परभणी आखिर मराठवाड़ा का कैसा पंजाब है जहां के गंगाखेड़ तालुका से अकेले 50,000 लोग एक झटके में पलायन कर जाते हैं? सबसे बुनियादी सवाल यह है कि दुष्काल से पीड़ित जनता 1972 के बाद विकास के नाम पर हुए काम और तबाही से कोई सबक क्यों नहीं लेती?
महाराष्ट्र की राजनीति में विकास की बात कोई नहीं करता |
डॉ. कांगो दुष्काल को विशुद्ध राजनीतिक सवाल मानते हैं। इसे संबोधित करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत पर वे बल देते हैं। दिक्कत यह है कि मराठवाड़ा की राजनीति पूरी तरह सांप्रदायिक हो चुकी है। मराठवाड़ा में राजनीतिक तौर पर मुस्लिम विरोध और दलित विरोध बड़ा मसला है। यहां मुख्यधारा की राजनीति यही है। ग्राम पंचायतों से लेकर संसद तक महाराष्ट्र का सारा राजनीतिक विमर्श 1985 के बाद से इसी में तब्दील हो गया है। उससे पहले विकास के मसलों पर बात होती थी, इसीलिए उस वक्त वामपंथी दल यहां काफी मजबूत थे। कांगो कहते हैं, ‘‘वामपंथी लोग तो भले लोग हैं। सांप्रदायिक राजनीति पर यही कहेंगे न कि यह गलत है। और क्या कर सकते हैं?’’
इन तमाम सवालों का तात्कालिक और आसान जवाब गन्ना है। कांगो के मुताबिक यह जवाब न तो किसानों को पचेगा, न ही नेताओं को। वे इसे स्वीकार ही नहीं करेंगे क्योंकि तोते की गरदन की तरह गन्ने में सबकी जान कैद है। आम लोगों को नहीं लगता कि यह संकट आर्थिक नीति या विकास की दिशा से जुड़ा है। लोगों को लगता है कि हर हालत में सरकार को मदद करनी चाहिए। सरकार को भी यही नज़रिया चाहिए क्योंकि उसके बदले उसे पैसा आता है। चूंकि विकास योजनाओं की कोई सोशल ऑडिटिंग मौजूद नहीं है, इसलिए पैसा मिल-बांट कर खा लिया जाता है। कागज़ पर योजनाएं खूब हैं, पानी ही नहीं है। जब पानी की कमी हो जाती है, तो लोग मुंह छुपा लेते हैं। जिम्मेदारी किसकी है? जवाब आता है- कुदरती। लोगों को लगता है कि पैसा और सरकार की भूमिका हर चीज को हल कर देगी। यही असल पेंच है। आम तौर पर जुलाई में यहां बारिश होती है। पिछले साल सितंबर तक नहीं हुई। सरकार ने सर्वे करना शुरू कर दिया। लेट मॉनसून भी नहीं आया। उसके बाद फसलें बरबाद होने लगीं, तो छह महीने के भीतर निष्कर्ष निकाल लिया गया यह ‘अकाल’ है। इस ‘अकाल’ के नाम पर फंड भी केंद्र से मिला, लेकिन अब तक कलक्टर से लेकर सरपंच तक हर कोई किसी भी तरह के फंड के आने की बात से इनकार करता दिख रहा है। पैसा नीचे नहीं पहुंचा है।
फिलहाल बिना पैसे के जो मिल रहा है वह गनीमत है |
किसानों के जल संकट से सबक लेने के सवाल पर कॉमरेड राजन दो टूक कहते हैं, ‘‘किसान सबसे पहला सबक यह लेगा कि खेती छोड़ कर भागो।’’ इस बात को कांगो दूसरे तरीके से कहते हैं, ‘‘इस संकट को कुछ राहत तब मिलेगी जब पर्याप्त आबादी खेती-किसानी छोड़ देगी। बढ़ते शहरीकरण के कारण बीसेक साल में खेती का ढांचा पूरी तरह व्यावसायिक हो जाएगा। पानी खरीदने और बेचने की बात स्वाभाविक होगी। जिसके पास पैसा होगा, वह अपने खेत तक बांध से पाइपलाइन बिछा लेगा। पे टु यूज़ यानी उपयोग के लिए भुगतान वाली प्रणाली सहज हो जाएगी। तब धरती पर भार कम पड़ेगा और दुष्काल का दुश्चक्र टूटेगा।’’ आखिरी सवाल फिर रह जाता है कि जब पानी ही नहीं रहेगा तो खेती-किसानी करने वालों की तादाद कम होने पर भी दुष्काल का दुश्चक्र कैसे टूटेगा। राजन कहते हैं, ‘‘पानी सामाजिक संपदा है। इसके सामाजिक नियमन से ही समाधान मुमकिन है। मुनाफे के लिए इसका अराजक संकेंद्रण संकट को हल नहीं कर सकता।’’
एक उम्मीद जो तकलीफ जैसी है!
कम काम और कम समय में ज्यादा पैसे बनाने की आत्मघाती सामाजिक संस्कृति के बीच छिटपुट अच्छे काम भी हो रहे हैं जिनसे उम्मीद जगती है। मसलन, पत्रकार अतुल कुलकर्णी के मुताबिक बीड की 140छोटी और मध्यम बांध परियोजनाओं में से 90 में गाद निकालने का काम ग्रामीण खुद अपनी पहल पर कर रहे हैं। कुछ बड़े किसानों ने अपनी पहल पर ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई प्रणालियों की शुरुआत की है। नाबार्ड कुछ स्थानों पर वर्षाजल संग्रहण के लिए सीसीटी (कंटीन्यूड कंटूर ट्रेंच) नामक संरचनाओं का निर्माण करवा रहा है। फरवरी में बीड के लोगों ने भ्रष्टाचार पर लगाम कसने वाले अपने ईमानदार जिलाधिकारी का स्थानांतरण रोकने के लिए शहर में बंद किया था जिसके बाद दबाव में आकर राज्य सरकार को तबादले का आदेश वापस लेना पड़ा। यह अपने आप में एक दुर्लभ घटना थी।
बीड के चुबली गांव में कम्युनिस्ट पार्टी का दफ्तर और कामरेड चौहान |
सबसे अच्छी बात यह है कि मराठवाड़ा के तकरीबन हर शहर और गांव में अब भी कुछ ईमानदार और कर्मठ वामपंथी कार्यकर्ता बचे हुए हैं जो अस्मिता और वोट की राजनीति से इतर लोगों को विकास का सीधा पहाड़ा पढ़ाने में दिन-रात एक कर रहे हैं। कभी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में रहे और अब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के लिए काम कर रहे राजन क्षीरसागर का सब्र देखते बनता है जब वे आसान और गंवई मराठी में संवाद करते हुए दिन में शराब के नशे में धुत्त दामपुरी के भड़के हुए ग्रामीणों को पहले तो मनरेगा में पंजीकरण की शिक्षा देते हैं। फिर घंटे भर के भीतर उन्हें सरकार से काम मांगने के लिए रास्ता रोकने का आंदोलन करने के लिए प्रेरित कर लेते हैं। जब हम देखते हैं कि नामदेव चौहान अपने प्रयासों से रोजगार गारंटी के एक-एक कागज़ात इकट्ठा कर के तथ्यों को परिप्रेक्ष्य में रखते हैं, संसदीय राजनीति की बाध्यताएं तोड़ते हुए रणनीतिक तरीके से ग्रामीणों को शिक्षित करते हैं और आज भी दो कमरे के सादे मकान में गुज़र करते हैं, तो दुष्काल पर बहुत देर भरोसा नहीं टिकता।
दरअसल, यह दुष्काल सिर्फ पानी का नहीं है। सिर्फ अन्न का भी नहीं। मेहनत, ईमान, सहजता, साहस, शुचिता, यह सबका दुष्काल है। यह दुष्काल सामाजिक है, राजनीतिक है, नैतिक है। करीब सत्तर की उमर छू रहे वामपंथी कार्यकर्ता नागरगोजे बड़े क्लांत मन से कहते हैं, ‘‘सोचता हूं आज तक ये सब काम कर के क्या हासिल हुआ। कभी-कभार मोहभंग भी होने लगता है। फिर लगता है कि नहीं, हम नहीं तो आने वाली पीढ़ियां कम से कम हमारे काम का सुख भोग सकेंगी। दुष्काल हमारे समय में नहीं छंटे तो क्या, मरने के बाद ही सही। हम तो जैसे जीना था जी चुके, अब बदल कर क्या होगा।’’ नागरगोजे का दुख सच्चा है।
साढ़े चार सौ साल में पहली बार सूखी है बीड की खजाना बावली |
अनुपम मिश्र ने बीस साल पहले अपनी किताब ‘‘आज भी खरे हैं तालाब’’ में तमाम पुरानी बावलियों और तालाबों का जिक्र करते हुए लिखा था कि गाद (उन्होंने इसके लिए ‘साद’ का इस्तेमाल किया था) तालाबों में नहीं, हमारे समाज के दिमाग में भर गई है। खुदकुशी की लहलहाती फसलों से गुज़रते हुए अंत में बीड से सात किलोमीटर दूर 447 बरस पुरानी ऐतिहासिक खज़ाना बावली को देख कर अचानक उनकी बात याद हो आती है। इतिहास में यह बावली पहली बार सूखी है। इसे देखकर अवसाद पनपता है और डर लगता है।
नागरगोजे, नामदेव, डॉ. कांगो, देविदास, कॉमरेड राजन और ऐसे सैकड़ों लोग उन उम्मीदों का नाम हैं जो पुरानी बावलियों की तरह शहर को बचाए रखती हैं, जिनमें कभी गाद नहीं भरती। ऐसे लोगों को बचाना, ऐसी बावलियों को बचाना ही दुष्काल का जवाब है।
दुष्काल में भी बची हुई हैं कुछ उम्मीदें |
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