(कवयित्री शुभमश्री को मिले भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार पर विवाद लगातार जारी है। उनकी कविताओं का हर कोई अपने तरीके से मूल्यांकन कर रहा है और पक्ष या विपक्ष में आवाज़ें आ रही हैं। ऐसे में यह जानना ज़रूरी हो जाता है कि पुरस्कार के निर्णायक कथाकार उदय प्रकाश ने क्या सोच कर ‘पोएट्री मैनेजमेंट’ को इस बार का भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार दिया। निर्णायक के वक्तव्य के बाद शायद कुछ धूल छंटे और स्वस्थ बहस का रास्ता खुले। जनपथ पर पढ़ें निर्णायक उदय प्रकाश का 2016 के भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार पर आधिकारिक वक्तव्य – मॉडरेटर)
समकालीन युवा कविता का सबसे प्रतिष्ठित और बहुचर्चित भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार इस बार युवा कवयित्री शुभमश्री, (जन्म 1991) की कविता ‘पोएट्री मैनेजमेंट‘ को देने का निर्णय लिया गया है।
यह कविता नयी दिल्ली से प्रकाशित होने वली अनियतकालिक पत्रिका ‘जलसा-4‘ में प्रकाशित हुई है।
बहुत कम उम्र और बहुत कम समय में शुभमश्री ने आज की कविता में अपनी बिल्कुल अलग पहचान बनाई है। कविता की चली आती प्रचलित भाषिक संरचनाओं, बनावटों, विन्यासों को ही किसी खेल की तरह उलटने-पलटने का निजी काम उन्होंने नहीं किया है बल्कि समाज, परिवार, राजनीति, अकादेमिकता आदि के बारे में बनी-बनाई रूढ़ और सर्वमान्य हो चुकी बौद्धिक अवधारणाओं के जंगल को अपनी बेलौस कविताओं की अचंभित कर देने वाली ‘भाषा की भूल-भुलइया’ में तहस-नहस कर डाला है। हमारे आज के समय में शुभमश्री एक असंदिग्ध प्रामाणिक विद्रोही (rebel) कवि हैं। सिर्फ पच्चीस वर्ष की आयु में इस दशक के पिछले कुछ वर्षों में उनके पास ऐसी अनगिनत कविताएं हैं, जिन्होंने राजनीति, मीडिया, संस्कृति में लगातार पुष्ट की जा रहीं तथा हमारी चेतना में संस्कारों की तरह बस चुकी धारणाओं, मान्यताओं, विचारों को किसी काग़ज़ी नीबू की तरह निचोड़ कर अनुत्तरित सवालों से भर देती हें। औश्र ऐसा वे कविता के भाषिक पाठ में प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली किसी गंभीर बौद्धिक मुद्रा या भंगिमा के साथ नहीं करतीं, बल्कि वे इसे बच्चों के किसी सहज कौतुक भरे खेल के द्वारा इस तरह हासिल करती हैं कि हम हतप्रभ रह जाते हैं। इतना ही नहीं वे अब तक लिखी जा रही कविताओं के बारे में बनाये जाते मिथकों, धारणाओं और भांति-भांति के आलोचनात्मक प्रतिमानों द्वारा प्रतिष्ठित की जाती अवधारणाओं को भी इस तरह मासूम व्यंजनाओं, कूटोक्तियों से छिन्न-भिन्न कर देती हैं कि हमें आज के कई कवि और आलोचक जोकर या विदूषक लगने लगते हैं। उनकी एक कविता ‘कविताएं चंद नंबरों की मोहताज हैं’ की इन पंक्तियों के ज़रिए इसे समझा जा सकता है:
‘भावुक होना शर्म की बात है आजकल और कविताओं को दिल से पढ़ना बेवकूफ़ी / शायद हमारा बचपना है या नादानी / कि साहित्य हमें जिंदगी लगता है और लिखे हुए शब्द सांस / कितना बड़ा मज़ाक है कि परीक्षाओं की तमाम औपचारिकताओं के बावजूद / हमें साहित्य साहित्य ही लगता है प्रश्नपत्र नहीं / खूबसूरती का हमारे आसपास बुना ये यूटोपिया टूटता भी तो नहीं… नागार्जुन-धूमिल-सर्वश्वर-रघुवीर सिर्फ आठ ंनबर के सवाल हैं।’
अपने भाषिक पाठ में बच्चों का खेल दिखाई देतीं शुभमश्री की कविताएं गहरी अंतर्दृष्टि और कलात्मक-मानवीय प्रतिबद्धता तथा निष्ठा से भरी मार्मिक डिस्टोपिया की बेचैन और प्रश्नाकुल कर देने वाली अप्रतिम कविताएं हैं।
शुभमश्री ने किसी कर्मकांड या रिचुअल की तरह रूढ़, खोखली, उकताहटों से भरी पिछले कुछ दशकों की हिंदी कविता के भविष्य के लिए नयी खिड़कियां ही नहीं खोली हैं बल्कि उसे जड़-मूल से बदल डाला है। जब कविता लिखना एक ‘फालतू’ का ‘बोगस काम’ या खाते-पीते चर्चित पेशेवरों के लिए ‘पार्ट टाइम’ का ‘बेधंधे का धंधा’ बन चुकीं थीं, शुभमश्री ने उसे फिर से अर्थसंपन्न कर दिया है।
उनकी कविताएं हमारे समय की कविता के भूगोल में एक बहुप्रतीक्षित दुर्लभ आविष्कार की तरह अब हमेशा के लिए हैं।
उदय प्रकाश
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