सम्पादक को मदारी होना चाहिए, बन्दर नहीं


अवनीश मिश्र

मुझे तो अव्वल ये आज तक पता ही नहीं चला कि जनसत्ता छपता क्यों है? और ऐसे क्यों छपता है जैसे मरे हुए का पिंडदान करना है? और अगर इसे ऐसे ही छपना है तो किसी संपादक की क्या ज़रूरत है? खैर, जनसत्ता जैसे छपता हो छपे और जिन्हें जनसत्ता से बौद्धिक खुराक मिलती हो मिले, मंगलेश डबराल प्रकरण पर कुछ सवाल जिनका जवाब कोई दे तो मेहरबानी होगी.

मंगलेश डबराल राकेश सिन्हा के साथ मंच पर बैठे थे, ये तस्वीर वर्चुअल स्पेस में साझा क्यों गई? और इससे कॉमरेड की राजनीति पर सवाल कैसे खड़ा हुआ? और कैसे योगी आदित्यनाथ से राकेश सिन्हा की तुलना की जा सकती है?

उदय प्रकाश पर
उदय प्रकाश ने योगी आदित्य नाथ से पुरस्कार लिया. उदय प्रकाश के पक्ष में जनसत्ता के सम्पादक ओम थानवी का तर्क- “उन्हें पता नहीं था.” “वहां कोई विवादास्पद एजेंडा नहीं था.” उदय प्रकाश का तर्क…” ये व्यक्तिगत कार्यक्रम था.”
सवाल: कार्यक्रम व्यक्तिगत था. लेकिन पुरस्कार तो उस लेखक को दिया जा रहा था जिसका सामाजिक व्यक्तित्व है, क्या उनकी शब्दावली में “क्षमा करें” पद नहीं था? या वे मोहनदास की तरह भयभीत थे और यह मानने से इनकार कर रहे थे कि मैं ही उदय प्रकाश हूं?  या वे होरी की तरह ऐसे मर्यादावादी हैं कि पारिवारिक कार्यक्रम खराब ना हो जाए इसलिए जाने दो अपना क्या बिगड़ता हैका तर्क मंच पर गढ़ लिया?

खैर मुझे उस वक़्त भी उस तूफ़ान का कोई मतलब नज़र नहीं आया था. हिंदी का लेखक लिखता है, और बस लिखता है। वह पॉलिटिकल स्टैंड नहीं लेता। हकीकत यही है कि उसके पॉलिटिकल स्टैंड से आज किसी को शायद ही कोई फर्क पड़ता है। कम से कम वह खुद यही मानता है। दिक्कत बस यही थी कि उदय प्रकाश ने पुरस्कार लेने और उसके बाद भी कोई “चूक” नहीं मानी. वे इस बात को सिरे से नजरअंदाज कर गए कि मोहनदास को मोहनदास बनाने में योगी आदित्यनाथों की कितनी भूमिका होती है। डॉक्टर वानकर को अंत में किससे प्रार्थना करनी पड़ती है? (उम्मीद यही है कि इस टिप्पणी को उदय जी आलोचना की तरह नहीं घिनौनी साजिश की तरह देखेंगे…)

मंगलेश डबराल पर

मंगलेश डबराल ने आरएसएस विचारधारा वाले राकेश सिन्हा के मंच से सिनेमा पर बात की. उनसे सम्मान-पुरस्कार नहीं लिया. आप अगर किसी को अपने मंच पर बुलाते हैं या किसी के मंच पर जाते हैं तो सम्मान लेते या देते नहीं, बहस की परम्परा को मजबूत करते हैं। आप राकेश सिन्हा जैसे लोगों के साथ भी संवाद नहीं करेंगे, उन्हें त्याज्य, फॉरबिडेन  मानेंगे तो आपके पास दूसरे विचारधारा वाले लोगों पर गोली चलाने के अलावा क्या रास्ता बचता हैयह एक किस्म की हिटलरशाही नहीं है तो और क्या है? क्या संघ की विचारधरा से लड़ने के लिए आप नया संघ बना चाह रहे हैं? अगर चाह रहे हैं तो बता दीजिये, आपने कंसन्ट्रेशन कैम्प कहां खोलने की योजना बनायी है?  खैर, मंगलेश जी को उस मंच पर जाने में “चूक” की कौन सी बात जान पडी ये वे ही जानें.
ओम थानवी पर
जनसत्ता में मंगलेश डबराल प्रकरण पर ओम थानवी का पहला लेख ऐसे लिखा गया मानो रात में लिखने को कोई विषय ना मिल रहा हो। अचानक ब्लॉग पर कुछ मसाला दिखा और सोचा कि तीन- चौथाई तो ब्लॉग कतरनों से हो जायेगा। बाकी का देख लिया जाएगा। इसी बहाने एक विवाद भी खडा होगा और इसी बहाने एक और टॉपिक। उसमें भी आधा लेख कतरनों से पूरा हो ही जाएगा…। किसी ज्वलंत विषय पर लिखना था तो बेबस प्रधानमंत्री पर लिखते। घमंडी (और अब भ्रष्ट भी) गृहमंत्री पर लिखते। अपने घर-परिवार-कुनबे पर लिखना था तो मीडिया के भ्रष्टाचार पर लिखते। कुछ नहीं सूझा तो एक पत्रकार और कवि पर ही बन्दूक तान दी।और ताने ही हुए हैं। हद है कि गोली भी दाग रहे हैं। सम्पादक की भूमिका विवादों में रेफरी की हो सकती है, ना कि बेवजह विवादों को जन्म देने वाले की। सम्पादक को मदारी ही होना चाहिए न कि बन्दर…।

अंत में हिन्दी पट्टी पर


इस “दिलचस्प” बहस के बाद हिन्दी पट्टी पर आपको शर्म ही आ सकती है। जहां एक राज्य की मुख्यमंत्री छात्रों को खुलेआम धमकाते हुए माओवादी कह रही हो, देश की सरकार इतनी भ्रष्ट घोषित हो चुकी हो कि प्रधानमंत्री पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाना मवेशी को हांक लगाने जैसा हो गया हो, लूट संस्कृति का हो- ऐसे में किसी ज़माने के एक प्रमुख अखबार का सम्पादक व्यक्तिगत हिसाब ठीक करने के लिए अखबार के आधे पन्ने को रंग रहा है… यहीं आपको ऊपर पूछे गए एक सवाल का जवाब भी मिल जाएगा. जनसत्ता के इस दुर्दिन के कारण भी आपकी समझ में आ जायेंगे. विडंबना ये है कि ये सारी बहस और इस पर यह पिछले 25  मिनट से गूगल पर लिखी जा रही ये टिप्‍पणी (मुझे यूनीकोड में टाइपिंग नहीं आती) किसी को कहीं नहीं ले जाती. धन्य हो हिंदी पट्टी. धन्य हो…

(लेखक पेशे से पत्रकार हैं, हिंदी के स्‍कॉलर हैं और
दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में हिंदी की कक्षाएं भी लेते हैं)
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