भूमिहारों का परचा और आइसा की स्‍याही: मुखिया के बहाने एक फ्लैशबैक


व्‍यालोक
बिहार में ब्रह्मेश्वर सिंह की हत्या के बाद दो दिनों तक बिहार की पूरी व्यवस्था को कुछ ‘सौ’ गुंडों के हवाले कर तमाशबीन बने नेताओं और प्रशासकों की ज़रा तस्वीर देखिए। उसे दिखानेवाले सो-कॉल्ड खबरनवीसों का अंदाज़ देखिए, सब कुछ सिरे से झलकने लगता है। ब्रह्मेश्वर सिंह, जो 26 हत्याकांडों में अभियुक्त था, जिनमें से दजर्नों में महज ज़मानत पर था, जो सात साल भूमिगत और नौ वर्ष जेल में रहा था, वह ब्रह्मेश्वर अखबारों और टीवी में उन्मादी मीडिया द्वारा ‘मुखियाजी’ से नीचे तो नहीं ही, उससे ऊपर के सम्मानजनक संबोधनों से नवाज़ा जा रहा था।


याद आता है अपने जेएनयू के मार्च 1999 का वह वक्त जब बिहार जहानाबाद के सेनारी में करीब तीन दर्जन भूमिहार जाति के लोगों की हत्या कर दी थी और प्रगतिशीलता के हमारे इस अड्डे में उस घटना की निंदा करते हुए फर्जी नाम से एक पर्चा लिखा। किसी ने बताया कि उस पर्चे को आइसा के एक क्रांतिकारी ने लिखा था। तब जेएनयू में निकले जुलूस में एक खास जाति के विद्यार्थियों ने मशाल जुलूस निकाला था, जिसमें नब्बे फीसद लोग अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के थे, हालांकि एबीवीपी ने आधिकारिक तौर पर खुद को उस जुलूस से अलग रखा था। लेकिन पार्टी लाइन को छोड़ कर उसमें शामिल होने वाले ‘क्रांतिकारी’ भी खासी तादात में थे।
उधर हमारे डीजीपी सांप्रदायिक सद्भाव बनाने की बात कर रहे थे, जब राज्य की राजधानी पूरे चार घंटों तक हुड़दंगियों के हवाले रही, तब भी उनके हिसाब से ह्यशवयात्राह्ण शांतिपूर्ण रही। आरा से शवयात्रा को पटना लाने की अनुमति दी गयी, जबकि सीआरपीसी की धारा 144 के तहत राज्य के मुखिया के पास पूरे अधिकार थे इसे निरस्त करने के। अगर अनुमति दी गयी, तो उसे नियंत्रित करने के इंतज़ाम क्यों नहीं थे?
विमल मित्र ने अपने एक उपन्यास में हमारे राष्ट्रीय चरित्र का विश्लेषण करते हुए कहा है, ह्यहम सभी दोषी हैं, मुलजिम हैं…मूल रूप में सड़े हुए।’ हालिया घटना ने इसी बात को फिर से साबित किया है। दरअसल, बिहार कहीं से बदला नहीं था, न बदलेगा, वह अपनी सामंती प्रवृत्तियों के साथ आज भी उतने ही गहरे पंक में धंसकर जी रहा है। आप पटना में बाइक चलाते वक्त भी इसका नज़ारा कर सकते हैं। रैश ड्राइविंग के आप कभी भी शिकार हो सकते हैं, बदतमीज़ी-बदज़ुबानी का नमूना आपको कहीं भी मिल सकता है। कहीं भी आपको अपना परिचय देनेवाले वाक्य तो कभी भी मिल जाएंगे, ह्यचीन्हते नहीं हो क्या बे, हम किसके भाई (या भतीजा, बेटा, नाती, पोता वगैरह) हैं?ह्ण दरअसल, सामंती खून की रवानी की यही निशानी भी है, जो अल्पसंख्यक होने पर  सभ्यता का लबादा ओढ़ लेता है, कानूनपसंद नागरिक बन जाता है।
कुल जमा यह, कि कानून-व्यवस्था की वापसी और बिहार के विकास की जो भी बात हम कर लें, हमारा सामंती, अर्द्ध-शिक्षित और कूढ़मगज समाज अपने मूल संस्कारों को बस छिपाए ही रखता है, दफनाता नहीं। ज़रूरत होते ही उसके अंदर का जानवर पूरी तीव्रता से वार करता है।
ब्रह्मेश्वर को मुखियाजी का संबोधन देने वाली और महान समाज-सेवक बतानेवाली मानसिकता भी वही है- सामंती और हिंसक। दिलचस्प यह है कि ऐसी ज़ुबान मौका पड़ते ही मानवतावादी हो जाती है, गांधीवादी भी हो जाती है, हिंसा और हिंसा में कोई फर्क नहीं देखती, हत्या को तो बस निंदा का ही विषय बताती है। यह मानसिकता भूल जाती है कि हत्या और हत्या में फर्क होता है, बहुत बड़ा फर्क होता है। यह भूल जाती है कि बथानीटोला में मारे गए दलितों और सेनारी में मारे गए भूमिहारों के खून में फर्क है। यह भूल जाती है कि बथानीटोला के सभी अभियुक्त हाईकोर्ट से छूट जाते हैं, सेनारी और बारा के नहीं। यह भूल जाती है कि ब्रह्मेश्वर की हत्या के बाद उसे स्वतंत्रता सेनानी साबित करने की होड़ लगती है, लेकिन किसी महतो, मंडल, दुसाध वगैरह की मौत के बाद उसे माओवादी बता दिया जाता है।
बेहतर होगा कि हम यह सच स्वीकार कर लें। तब हम आराम से रहेंगे, वरना तो बस कयासों और खयालों का दौर चलता रहेगा। जैसे कि प्रसिद्ध अथर्शास्त्री शैबाल की ह्यगट फीलिंगह्ण है कि यह हत्या और उसके बाद की प्रतिक्रिया, नीतीश राज को ह्यडी-स्टैबिलाइजह्ण करने की साजिश है। वहीं, मेरे कुछ मित्रों का मानना है कि खुद नीतीश बिहार में कुछ उसी तरह का जातिगत ध्रुवीकरण करना चाहते हैं, जैसा नरेंद्र मोदी ने सांप्रदायिक तौर पर गुजरात में किया। वह दलितों को बताना चाहते हैं कि देखो, सवर्ण अब भी कितने हिंसक और खतरनाक हैं।
बहरहाल, कयास हैं, समीकरण हैं और उलझे हुए सिरे हैं। इन सबके बीच दलितों के गांवों में है एक सहमी हुई खामोशी, और शायद एक प्रतीक्षा भी- अगली प्रतिक्रिया की।

(व्‍यालोक पेशे से पत्रकार हैं, बरसों पहले जेएनयू में एबीवीपी की राजनीति में सक्रिय रहे। माया, ईटीवी, दैनिक भास्‍कर, संडे इंडियन जैसे संस्‍थानों में नौकरी, बैगा आदिवासियों के बीच सामाजिक काम, वेबर शैंडविक के साथ पीआर, एनएफआई की फैलोशिप, ऐक्‍शन एड, प्रदान आदि में एनजीओबाज़ी और मिथिला विश्‍वविद्यालय में अंशकालिक अध्‍यापन जैसे विविध अनुभव। इधर के बरसों में पत्रकारिता-राजनीति-सामाजिकता से भ्रमभंग की अवस्‍था में गृह प्रवास। आजीविका के लिए अनुवाद और स्‍वतंत्र लेखन)  
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14 Comments on “भूमिहारों का परचा और आइसा की स्‍याही: मुखिया के बहाने एक फ्लैशबैक”

  1. आप जब घटना-विशेष अथवा छान-बीन के लिए लिखते हैं तो उस क्रम में कोई भटकाव न केवल सामग्री को सतही बना देता है बल्कि लेखन की मंशा पर पर भी प्रश्न हों जता है. जे.एन.यू तथा "मुखिया" मंडन तक तो तार्किक है किन्तु फिर पटना या समूचे बिहार के आचरण पर टिप्पणी करने लगा क्या दो अलग विषय नहीं बन जाते? अगर आप संयमित लेखन नहीं करते तो आप गंभीरता से नहीं लिए जायेंगे. कोई विषय चुनिए फिर उसी पर रहें.

  2. बहुत सही अभिषेक गुरु, व्यालोक को भी आखिर कामरेड बनाकर ही छोड़े.

  3. मेरे विचार से किसी टिप्पणी की आवश्यकता नहीं है। सब अति समझदार हैं और अब हमारी समस्या भी यही है। इस दुनिया में कोई भी बदलाव अब प्रकृति की दखल से ही मुमकिन लगता है, वरना सब ऐसे ही चलता रहेगा।

  4. बहुत गहराई में चले गये सर, लेकिन आपके सारे तर्क सिरे से ख़ारिज कर दिए जाएंगे…लेकिन फ्लैश बैक के बहाने काफी कुछ जानने को मिला और लेखनी के एंगल के हिसाब से कभी आप कामरेड तो कभी दक्षिणपंथी भी बनाए जाते रहेंगे

  5. एक बात और सर…थोड़ी ईमानदारी के साथ…मुझे ख़ास समझ में नहीं आया…शायद मेरा स्तर अभी उस लेवल तक नहीं पहुंच पाया है…ज्यादा फैल गया मामला…कभी यहां तो कभी वहां तो कभी कहीं और…इसलिए एकबार और पढ़ने की कोशिश करता हूं

  6. बंधु, आपका दृष्टिकोण कब बदल गया……! लोगोँ को खबर भी नही हुई. अगर लेख की भावना ईमानदार है तो मानसिकता परिवर्तन की बधाई स्वीकार करेँ. बहुत सारी असहमतियोँ के बावजूद लेख अच्छा लगा.

  7. पाठक जी आपकी बात से ही शुरू करते हैं.. कि ब्रह्मेश्वर की हत्या के बाद जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आयीं, उसने हमारे राजनीतिक और सामाजिक चरित्र के दोगलेपन का एक बार फिर से फाश कर दिया। ज़रा फ्लैशबैक में चलें, तो हत्या के बाद जिस तरह की प्रतिक्रियाएं (सधी, संतुलित और राजनीतिक तौर पर नफा-नुकसान को देखते हुए) इन चरित्रहीन पार्टियों का चेहरा सामने लाकर रख दिया है…शब्दों का ज्ञान ज्ञानी होने का भ्रम पैदा कर अपने अज्ञानता को छिपाने का साधऩ तलाशा जा रहा है…..वो लोग खतरनाक होते हैं जो दोहरी जिंदगी जीते हुए खुद के साथ साथ समाज के लिए भी खतरा बने रहते हैं…आज वर्तमान परिदृश्य में सब कुछ बदला बदला है नगर बंधुओं की जगह मोहल्लों ने ली है कोठे की जगह दरबारों ने…चरित्रहीन माननीय और पूजनीय हो गये हैं..इस सब मं यदि कोई नहीं है तो वह है कृष्ण अर्जुन…..कहा जा सकता है सब साधन दूषित हो गये तो साधक कैसे बच सकता है ….

  8. बहुत अच्छे सर … यादों के परदे में कैद कई चलचित्र एकाएक तैर गए ,,, वह समाज मानो सामंतवाद पिछडेपन और डर के साये में जाने कब तक कैद रहने के लिए अभिशप्त है …

  9. Asking questions are genuinely nice thing if you are not understanding anything entirely, but this article presents fastidious understanding even.

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