हफ़्ता वसूल: साहेब के पैकेज के जश्न में गुम हो गयीं मजदूरों की सिसकियां…


इस हफ़्ते के समाचारपत्रों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ज़रिये घोषित 20 लाख करोड़ रूपये के विशेष पैकेज को बड़ी प्रमुखता से छापा है. 13 मई के ज़्यादातर हिंदी, अंग्रेजी और उर्दू के अख़बारों ने अपने पहले पेज पर यह खबर आठ कॉलम में छापी. इसमें वंचित तबके के लिए क्या है? कहीं यह सरकार के खिलाफ बढ़ रही नाराज़गी से ध्यान हटाने का एक पैंतरा तो नहीं?

इन सवालों को अखबारों ने नज़रअंदाज़ किया है. पैकेज की सियासत को आलोचनात्मक ढंग से देखने और प्रवासी मजदूरों की बदहाली को केंद्र में रखने के बजाय, ज़्यादातर न्यूज़पेपर इस पर जश्न मनाते हुए दिखे हैं.

मिसाल के तौर पर ‘दैनिक जागरण’ (मई 13) की ‘लीड स्टोरी’ का शीर्षक देखिए: “भारत निर्माण के लिए 20 लाख करोड़”. उसी दिन ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ प्रथम पृष्ठ पर ‘हेडलाइन’ कुछ यूँ थी: “आत्मनिर्भरता के लिए अपूर्व पैकेज”.

सरकार के प्रति ‘सकारात्मक’ सुर्खी लगाने में अंग्रेजी अख़बार हिंदी समाचारपत्रों से बहुत पीछे नहीं थे. ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ ने प्रधानमंत्री के पैकेज को “आत्मनिर्भर भारत के लिए 20 लाख करोड़ रूपये का ‘बूस्ट’” (प्रोत्साहन) कह कर तारीफ़ की है. ‘इकनॉमिक टाइम्स’ ने इस पैकेज को कोरोना के खिलाफ ‘मोदी वैक्सीन’ कहा: “मोदी वैक्सीन: 20 लाख करोड़ रूपया+बड़ा सुधार”.

उर्दू के अख़बारों ने भी इस खबर को अपनी लीड स्टोरी बनायी. जहां हैदराबाद से प्रकाशित ‘सियासत’ ने इस खबर को आठ कॉलम में प्रकाशित किया, वहीं दिल्ली से छपने वाले ‘इन्केलाब’ ने इसे सिर्फ पांच कॉलम तक ही महदूद रखा. उर्दू अख़बारों की सुर्खियां हिंदी और अंग्रेजी अख़बारों की तुलना में कुछ कम एकतरफा नज़र आयीं.

‘सियासत’ की सुर्खी पर ज़रा नज़र डालिए: “कोरोना के बहाने मोदी का ‘स्वतंत्रता दिवस भाषण’, आर्थिक पैकेज के बगैर विवरण घोषणा”. वहीं ‘इन्केलाब’ की सुर्खी थी: “नये रंग रूप में होगा चौथे दौर का लॉकडाउन”.

साहेब के इस पैकेज का जश्न मनाने में न्यूज़पेपर एक दूसरे से मुकाबला करते हुए नज़र आये, मगर ‘दैनिक जागरण ने सबको पीछे छोड़ दिया. इसमें ख़बरें ऐसे परोसी गयी थीं मानो यह ‘न्यूज़’ कम हो और ‘सम्पादकीय’ ज्यादा हो. पूरी खबर में दो बातों को प्रमुखता से रखा गया: पहला, प्रधानमंत्री की प्रसंशा और दूसरा, राष्ट्रवाद का तड़का.

‘दैनिक जागरण’ की लीड स्टोरी की कुछ पक्तियां आप के सामने प्रस्तुत हैं: “कोविड-19 की वजह से जारी लॉकडाउन से पस्त आम जनता और त्रस्त उद्योग जगत को जिस भरोसे की ज़रूरत थी, उसे पूरा करने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोई कसर नहीं छोड़ी है”.

फिर ‘दैनिक जागरण’ ने यह भी दावा किया कि यह सदी भारत की सदी है. “मंगलवार को राष्ट्र के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 20 लाख करोड़ रुपये के आर्थिक पैकेज और मनोबल बढ़ाने वाले भाषण के जरिये स्पष्ट कर दिया कि जिंदगी कोरोना के आसपास सिमटी नहीं रहेगी. भारत सचेत तो रहेगा लेकिन क़दम नहीं रोकेगा. 21वीं सदी को भारत की सदी बनाना है.”  

यही नहीं ख़बर में आर्थिक सुधार के नाम पर मजदूरों के अधिकारों से सम्बंधित कानून को “जटिल” करार दिया गया और लिखा गया कि इसे “तार्किक” बनाने की ज़रूरत है: “भारत में लेबर कानून को लेकर कई जटिलताएं हैं. इसके लिए एक तार्किक कानून बनाये जाने की ज़रूरत है. तभी निवेश को आसानी से भारत लाया जा सकता है.”  

तार्किक अर्थात ‘रैशनल’ के नाम पर मजदूरों के अधिकारों पर हमले पहले भी हुए हैं फिर भी राष्ट्रीय अख़बारों का जी नहीं भरा है. अन्य अख़बारों की तरह ‘दैनिक जागरण’ इस सच्चाई पर खामोश है कि ‘प्रॉफिट’ के लिए मजदूरों का शोषण तार्किक कैसे हो सकता है.

देश में जहां लाखों मजदूर लॉकडाउन में खाने और पीने के लिए तरस रहे हैं, सवारी नहीं होने की वजह से वे पैदल ही अपने वतन लौट रहे हैं. सैकड़ों मीलों के सफ़र में कुछ खुशनसीब अपने घर पहुंच पा रहे हैं, कुछ रास्ते में ट्रेन से कट कर मर जा रहे हैं, तो कुछ दूसरे थकान से मर जा रहे हैं.

यह भी तो तार्किक नहीं है कि लोकतंत्र का स्तंभ कहे जाने वाला मीडिया आर्थिक पैकेज पर जश्न मनाये और दूसरी तरफ मजदूरों की सिसकियों पर खामोश रहे.

मगर ख़बरों और सम्पादकीय कॉलम में ‘दैनिक जागरण’ ने वंचित समुदाय के सवालों को केंद्र में नहीं रखा है. “आत्मनिर्भरता का मंत्र” के शीर्षक से प्रकाशित सम्पादकीय (मई 13) में भी ‘दैनिक जागरण’ ने वही सुर और ताल बनाये रखा है: “उन्होंने [मोदी ने] इस बड़े पैकेज के ज़रिये आपदा को अवसर में बदलने के लिए कमर कस ली है.” 

अंग्रेजी अख़बारों की रिपोर्टिंग हिंदी अख़बारों के मुकाबले कम झुकी हुई थी मगर इन्होंने भी अपने खबरों और सम्पादकीयों में जमीनी हकीकत को सामने नहीं रखा. ‘श्रमिक बाज़ार में एक बदलाव’ की सुर्खी से ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ ने एक ‘एडिटोरियल’ (मई 13) को छापा है. इसमें भी प्रधानमंत्री की भूरी-भूरी प्रशंसा ही की गयी है. मजदूरों की समस्या के नाम पर एकाध घड़ियाली आंसू तो बहाये गये हैं मगर इसके सामाधान के लिए राज्य सरकारों को ही आगे आने को कहा गया है.

“सोमवार के दिन मुख्यमंत्रियों के साथ अपनी मीटिंग में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पहली बार प्रवासी मजदूरों की समस्याओं पर बात रखी है जो लॉकडाउन के बाद से पूरे देश में फ़ैल गया है….राज्यों को यह इस बात का ख्याल रखना है कि जब मजदूर लौट कर अपने गाँव जाएं तो यह संक्रमण के फैलाव का सबब न बने”.

सवाल तो यह भी उठाना चाहिए कि संक्रमण रोकने के लिए केंद्र सरकार ने क्या किया है? अगर बड़े शहरों में इन मजदूरों का ख़याल रखा जाता तो इनको पैदल अपने गाँव जाने की ज़रूरत भी तो न होती? मगर इन सवालों को सम्पादकीय ने पूरी तरह से दरकिनार कर दिया है.

मजदूरों की हालत पर कुछ लिखने के बजाय ‘पिंक डेली’ ने आर्थिक सुधार की मांग तेज़ कर दी है. आर्थिक सुधार दरअसल शब्दों का एक जाल है जिसका असल मकसद मजदूरों के अधिकारों को और भी हड़प लेना है. अपने सम्पादकीय में ‘इकनॉमिक टाइम्स’ ने जहां ‘आत्मनिर्भरता’ के नाम पर देश के बाज़ारों को विदेशी कंपनियों के लिए बंद किये जाने का विरोध किया है, वहीँ इस पैकेज के साथ आर्थिक सुधार की गति को तेज़ करने का समर्थन किया है.


अभय कुमार जेएनयू से पीएचडी हैं. इनकी दिलचस्पी माइनॉरिटी और सोशल जस्टिस से जुड़े सवालों में हैं. आप अपनी राय इन्हें debatingissues@gmail.com पर भेज सकते हैं. 


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