तन मन जन: बिल गेट्स का ‘वैक्सीन राष्ट्रवाद’ और नई दहशतें


भारत में जन स्वास्थ्य का सवाल आज पहले से ज्यादा गम्भीर है। एक बड़ी आबादी के लोगों की सेहत की बात जब सरकार से ज्यादा निजी कम्पनियां करने लगें तो समझ लेना चाहिए कि आपकी जिन्दगी अब बाजार के लिए एक प्रोडक्ट है और उसे जब चाहे खरीदा बेचा जा सकता है। इन दिनों देश धीरे-धीरे कोरोना के भय से मुक्त हो रहा है लेकिन सन् 2015 में आज के कोरोना वायरस संक्रमण की भविष्यवाणी कर चुके दुनिया के जाने माने उद्योगपति, माइक्रोसॉफ्ट के को-फाउन्डर बिल गेट्स ने आगाह किया है कि अगले 4-6 महीने में कोरोना वायरस संक्रमण की स्थिति और खतरनाक हो सकती है। बिल गेट्स की बात की पुष्टि आईएचएमई (इन्स्टीच्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एण्ड इवैलूएशन) ने की है जिसका अनुभव बताता है कि अभी कोरोना वायरस संक्रमण से 2 लाख से भी ज्यादा मौतें होंगी।

कोरोना को लेकर अगले 4-6 महीने की यह भविष्यवाणी दरअसल कोरोना की आड़ में चल रहे व्यापारिक षड्यंत्र का भी संदेह पैदा करती है। बिल गेट्स ने अभी हाल ही में अपने एक बयान में कहा है कि अमरीका में कोरोना वायरस संक्रमण के रिकार्ड मामले सामने आए हैं। इनमें रिकार्ड मौतें भी हुई हैं लेकिन इसमें सबसे ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि इस चुनौती से निबटने में वहां की सरकार से जो उम्मीदें थी वह पूरी नहीं हुई। समझा जा सकता है कि अमरीका जैसे शक्तिशाली और शिक्षित देश की जब यह स्थिति है तो भारत और विकासशील देशों की हालत क्या होगी?

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बिल गेट्स ने भविष्य की महामारियों को लेकर भी एक भविष्यवाणी की है। उन्होंने दावा किया है कि भविष्य की महामारी कोरोना से भी दस गुणा ज्यादा खतरनाक होगी। बिल गेट्स ने दुनिया भर की सरकारों से भविष्य की महामारी से अपने नागरिकों को बचाने की अपील की है। इसके लिए बिल गेट्स टीके की बात करते हैं। उनका कहना है कि यदि कोरोना का टीका होता तो इतनी मौतें नहीं होतीं। अब आप यह समझ सकते हैं कि बिल गेट्स का फोकस टीका है। और यहीं यह भी जान लें कि बिल गेट्स टीका के निर्माण व प्रचार के लिए बनी वैश्विक कम्पनी गावी (ग्लोबल एलाएन्स फॉर वैक्सीन एण्ड इम्यूनाइजेशन) के भी अध्यक्ष हैं। अपनी अपील में बिल गेट्स वैक्सीन राष्ट्रवाद का जिक्र करते हैं

वैक्सीन राष्ट्रवाद का मतलब अपने अपने देश के लिए अपनी अपनी वैक्सीन। यानि कोई भी देश अपने यहां वैक्सीन बनाता है और उसे पहले अपने नागरिकों के लिए सुरक्षित रखता है तो यह वैक्सीन राष्ट्रवाद है। आमतौर पर कई देश वैक्सीन बनने से पहले ही सम्बन्धित कम्पनी से ‘‘प्री परचेज एग्रीमेन्ट’’ कर लेते हैं। इससे वैक्सीन के वैश्विक वितरण या विपणन में दिक्कत आती है। अपनी कम्पनी गावी की मदद से बिल गेट्स दुनिया को यही समझाना चाहते हैं कि आप बीमारियों/महामारियों से लड़ने के लिए गावी से हाथ मिलाइए। हमारे पास वैक्सीन की वैश्विक वितरण व्यवस्था है।

वैक्सीन राष्ट्रवाद शब्द भी वैश्वीकरण के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है। इसके कई मतलब निकल सकते हैं। एक तो यह कि वैश्वीकरण के दौर में राष्ट्रवाद का मतलब पिछड़ापन या संकीर्णता है। सन्देश साफ है कि वैश्विक युग में राष्ट्रवाद जैसी संकीर्णता से बाहर निकलें देश, लेकिन जो असली मकसद है वह है विश्व व्यापार की स्वतंत्रता के बहाने व्यापारिक एकाधिकार का। दरअसल, अब जब परमाणु हथियारों की वैश्विक उपलब्धता सरेआम है ऐसे में दुनिया पर वायरस एवं महामारियों के जरिये एकाधिकार कायम किया जाए। इसके लिए विश्व व्यापार की अग्रणी कम्पनियां आपसी होड़ में हैं। याद कीजिए सन् 2009 में जब एच1एन1 फ्लू फैला था तब भी कई देशों ने वैक्सीन की जमाखोरी की थी तब आस्ट्रेलिया ऐसा पहला देश था जिसने एच1 एन2 की वैक्सीन बना ली थी और उसने उस वैक्सीन के दूसरे देशों में निर्यात पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। उस दौरान कुछ अमीर देशों ने कई फार्मा कम्पनियों के साथ प्री परचेज एग्रीमेन्ट कर लिया था। केवल अमरीका ने ही 6 लाख वैक्सीन खुराक का एग्रीमेन्ट किया था। ऐसे में विश्व व्यापार में बाधा आई थी। फिर बिल गेट्स ने गावी के माध्यम से वैश्विक टीकाकरण का प्रचार शुरू किया था।

यहां मध्यवर्ग के भोले भाले लोगों को मैं यह बताना चाहता हूं कि महामारियों और बीमारियों के आतंक के बहाने कम्पनियां अपने एनजीओ के माध्यम से यह प्रचार करने में लगी हैं कि वायरस महामारियों का एकमात्र उपचार या निवारण है वैक्सीन या उसकी दवा। जाहिर है उच्च तकनीक वाली वैक्सीन या दवा पर चन्द बड़ी कम्पनियों का एकाधिकार है क्योंकि दवा के क्षेत्र में एकाधिकार कानून पहले से लागू है। ऐसे में हर आम व्यक्ति किसी बीमारी या महामारी के दहशत की स्थिति में केवल कम्पनियों के प्रचारित समाधान या दवा या वैक्सीन पर ही भरोसा करेगा। यह बड़ी कम्पनियों की कमाई का एक नया क्षेत्र है जो इस समय दुनिया भर मे हथियारों के बाजार के बाद दूसरे नम्बर पर है। टीवी इन्टरनेट के युग में दुनिया का मध्यम वर्ग किस नशे में है यह आसानी से समझा जा सकता है। अमरीका में अभी अभी ‘‘ट्रम्पमैनिया’’ दुनिया ने देखा। भारत में ‘‘मोदीमैनिया’’ आसानी से देख सकते हैं। ऐसे ही रशिया में पुतिनमैनिया, चीन, इजराइल आदि कई देशों में अन्धभक्तों का पागलपन कैसे किसी भी गैर तार्किक उत्पाद का बाजार बना देता है, समझा जा सकता है। मैं यहां यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि राष्ट्रवाद के नाम पर अन्धभक्त लोगों को आप बीमारी या महामारी के डर से कुछ भी बकवास के लिए तैयार कर सकते हैं। जैसे कोरोना वायरस को भगाने के लिए ताली, थाली बजवाना इत्यादि।

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अब थोड़ा यह समझ लें कि वैश्वीकरण के दौर में भारत के लोगों के स्वास्थ्य की वास्तविक स्थिति क्या है? अभी हाल ही में एक वैश्विक एनजीओ ‘‘आक्सफैम’’ने भारत के सन्दर्भ में एक रिपोर्ट जारी किया है। ‘‘टाइम टू केयर’’ शीर्षक से जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 1990 के दशक में देश में शुरू हुए वैश्वीकरण के बाद उपभोग विषमता बढ़ी है। खासकर 1993-94 से 2004-05 के दौरान शहरी क्षेत्र में उपभोग विषमता अधिक तेजी से बढ़ी है। जाने माने अर्थशास्त्री चांसल और पिकेटी ने अध्ययन और विश्लेषण में पाया कि 1980 के दशक में व्यक्तियों की आय जो 6 फीसद थी वह 2015 तक आते आते 22 फीसद तक पहुंच गई। इस दौरान जो आर्थिक वृद्धि हुई उसका 12 फीसद हिस्सा ऊपर के मात्र 0.1 फीसद लोगों ने प्राप्त किया जबकि नीचे मे 50 फीसद लोग मात्र 11 फीसद ही पा सके। इसका सबसे बुरा असर लोगों की सेहत पर पड़ा। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत के 1 फीसद व्यक्तियों के पास 95 करोड़ लोगों (70 फीसद) से चार गुणा ज्यादा सम्पत्ति है जो इस दुनिया की 60 फीसद आबादी है। भारत का 2018-19 का कुल बजट 24.42 लाख करोड़ रु. का था जबकि भारत के केवल 63 लोगों के पास इससे भी ज्यादा कम की सम्पत्ति है। सन् 2010-20 के दौरान दुनिया भर में लोगों में असमानता बढ़ी है। इस एक दशक में दुनिया के अरबपतियों की संख्या दो गुनी हो गई है।

‘टाइम टू केयर’ रिपोर्ट में महिलाओं की स्थिति पर एक विस्तृत चैप्टर है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में महिलाओं से भेदभाव के कई मामले हैं। राजनीतिक स्तर से लेकर आर्थिक, सामाजिक और स्वास्थ्य जैसे मामलों में महिलाओं के साथ भेदभाव होता है। उदाहरण के लिए, ग्रामीण क्षेत्र में रह रही महिलाओं का बीएमआई (बॉडी मास इन्डेक्स) शहरी महिलाओं की अपेक्षा 11 फीसद कम है। रिपोर्ट के अनुसार महिलाएं भारत में रोजाना 3.26 अरब घंटे काम करती हैं जिसका उन्हें कोई आर्थिक भुगतान नहीं किया जाता। यह काम सेवा के नाम पर कराया जाता है और उससे होने वाली आय पर पुरुषों का कब्जा है। यदि इन कार्यों का भुगतान हो तो भारतीय अर्थव्यवस्था में महिलाओं का योगदान लगभग 19 लाख करोड़ रुपये बढ़ जाएगा जो भारत के शिक्षा बजट (लगभग 93 हजार करोड़ रुपये) से 20 गुणा ज्यादा है। आर्थिक दिक्कतों की वजह से देश में 70 फीसद महिलाएं अपनी स्वास्थ्य जांच समय पर नहीं करा पातीं जिससे उन्हें आगे चलकर गम्भीर बीमारियों के चंगुल में फंसना पड़ता है। मासिक धर्म सम्बन्धी अनियमितता एवं दिक्कतों की वजह से महिलाएं सर्जिकल कैंसर, ब्रेस्ट कैंसर तथा हार्मोन सम्बन्धी बीमारियों के चंगुल में फंस जाती हैं जो समय पर जांच कर उन्हें बचाया जा सकता है। रिपोर्ट का विश्लेषण करेंगे तो पता चलेगा कि वैश्वीकरण के दौर में महिलाओं के स्वास्थ्य की स्थिति पहले से भी ज्यादा खराब हुई है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने यह माना है कि गरीबी और बीमारी का आपस में गहरा रिश्ता है। विश्व बैंक के आंकड़े के अनुसार वर्ष 2005 से 2015 के दौरान भारत में 40 फीसद लोग जो गरीब थे वे गरीब ही रहे। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में 26.9 करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करते हैं। इस आंकड़े के अनुसार अत्यधिक गरीबी में रहने वालों की संख्या 11.1 करोड़ है। क्रॉनिक पावर्टी रिसर्च सेन्टर (सीपीआरसी) के अनुसार भारत में दो भारत हैं। क्रॉनिक पावर्टी रिपोर्ट 2014-15 के अनुसार दक्षिण एशिया में कोई 50 करोड़ लोग बेहद गरीब हैं जो अपने बीमारी पर एक रुपया भी खर्च करने की स्थिति नहीं रखते। इनकी औसत दैनिक आमदनी 85 रुपये से भी कम है। जाहिर है ये लोग गम्भीर संक्रामक रोगों से ग्रस्त हो जाने के बाद पूरी मानवता के लिए संकट पैदा कर सकते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार हर साल लाखों लोग पहली बार अत्यधिक गरीब (क्रॉनिक पावर्टी) के शिकार हो रहे हैं जिसमें ज्यादातर लोग टीबी (टयूबरकुलोसिस), चर्म रोग, श्वास रोग, मूत्र सम्बन्धी रोगों के शिकार हैं।

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इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में मौजूदा सरकार ने सन् 2014 में यह वायदा किया था कि अगले 2 वर्षों में देश में गरीबी खत्म हो जाएगी। यहां ध्यान देने की बात है कि सतत विकास लक्ष्य 2030 के अनुसार पूरी दुनिया से गरीबी को खत्म करना है। 25 सितम्बर 2017 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी की कार्यकारिणी की बैठक में यह वायदा किया था कि देश से गरीबी हटाना उनकी प्राथमिकता है। ‘‘न्यू इन्डिया मिशन’’ के तहत भी उनकी सरकार का यह वायदा प्रमुख है लेकिन दुर्भाग्य कि मोदी सरकार को अब यह पता भी नहीं है कि देश में कितने गरीब हैं क्योंकि आंकड़े 2015 के बाद उपलब्ध ही नहीं हैं। सन् 2019 के बाद से देश में उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण रिपोर्ट भी जारी करना बन्द कर दिया गया है। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय सांख्यकी विभाग (एनएसओ) हर पांच साल में घरेलू उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण जारी करता है। संयोग से एनएसओ की 2019 की रिपोर्ट लीक होने से यह पता चल पाया कि वर्ष 2018 की तुलना में वर्ष 2019 में गरीबी दूर करने के प्रयास लगभग हुए ही नहीं। मानव विकास सूचकांक में भारत की स्थिति पड़ोसी देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, म्यांमार और श्रीलंका से भी तुलनात्मक रूप से पीछे है।

मैं गरीबी और स्वास्थ्य के मुद्दे पर यह बताना चाह रहा हूं कि यदि आप सेहत की बात करते हैं तो आपको पहले व्यक्ति की आर्थिक स्थिति में सुधार लाना होगा। सेहत का सीधा सम्बन्ध व्यक्ति की दैनिक आय जुड़ा है। ऑक्सफैम की रिपोर्ट ‘‘टाइम टू केयर’’ का फिर से जिक्र करें तो देश में लोग भले ही गरीबी की सरकारी रेखा से बाहर आ रहे हैं मगर वे एक अलग प्रकार की गरीबी में फंस भी रहे हैं। पहले असमानता स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा तक पहुंच पर आधारित थी लेकिन अब नई गरीबी तकनीकी, शिक्षा व जलवायु से जुड़ गई है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में दोनों तरह की गरीबी है। देश में जहां बड़ी संख्या में लोग स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा से वंचित हैं वहीं बहुत से लोग अब नये प्रकार की गरीबी के शिकार हो रहे हैं। यदि यही स्थिति रही तो भारत के लिए सतत विकास लक्ष्य 2030 को हासिल करना सम्भव नहीं होता। यूएनडीपी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (प्रशासक) अचिम स्टेनर के अनुसार भारत में सम्पत्ति और सत्ता का असमान वितरण यहां के लोगों में आपसी द्वंद्व पैदा कर रहा है जिससे आन्तरिक झगड़े बढ़ेंगे और लोग बड़े पैमाने पर सड़क पर आएंगे।

बहरहाल महामारियों व वैक्सीन के शोर के बीच मैं आम लोगों से यही अपील करना चाहता हूं कि वे जन स्वास्थ्य के लिए समाज में वाजिब चेतना के प्रसार के लिए सहयोग करें। मैं मानता हूं कि वैश्वीकरण के दौर में निजी कम्पनियों का जलवा है और सरकार भी उन्हें ही समर्थन कर रही है। ऐसे में जनपक्षीय जन स्वास्थ्य की बात आसान नहीं फिर भी आम लोगों के जन स्वास्थ्य की रक्षा के प्राकृतिक व टिकाऊ तरीके पर मैं लगातार आपको जागरूक करता रहूंगा। आप अपनी आंखें और दिमाग खुला रखें ताकि कम्पनियों के झांसे में फंसने से बच सकें। कोरोना वायरस संक्रमण की बात हो या तीन दशक पहले एचआईवी/एड्स की बात, मैंने पूरी जिम्मेवारी से लोगों को जागरूक बनाने के लिए तथ्यात्मक लेखन और प्रयास किया। आप समझ भी रहे होंगे कि ये रोग बीमारी से ज्यादा प्रोपगेन्डा की तरह फैलाए गए और इनके नाम पर बाजार (दवा कम्पनियां) ने कितना मुनाफा कमाया। आगे भी ऐसे हथकण्डे चलते रहेंगे मगर आप अपने को इतना जागरूक बना लें कि कोई कम्पनी आपको कम से कम बेवकूफ तो नहीं बना सके।

लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं


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