संविधान निर्माताओं ने भारत में गणतंत्र की जो परिकल्पना की थी उसका मूल अभिप्राय था, गण (समाज) के लिये तंत्र की स्थापना। ‘गण’ की पहचान के लिये संविधान की भूमिका में स्पष्ट रूप से लिखा गया था,” हम जो भारत के नागरिक हैं. ” यानि हम ही इस स्वतंत्र भारत के नियंता हैं। भारत के नागरिकों की कोई भिन्न पहचान संविधान निर्माता नहीं चाहते थे। उनके अनुसार भारत तभी सशक्त बन सकेगा जब भारत के लोगों की केवल एक ही पहचान हो कि वे स्वतंत्र भारतीय नागरिक हैं। पंथ, भाषा, प्रांत, जाति, वर्ण, संप्रदाय आदि रूढ़िवादी पारम्परिक व्यवस्थाएं, भारतीयता के सामने गौण होंगी। परन्तु संविधान में पांथिक या जातिगत कुछ अस्थायी व्यवस्थाएं भी रखी गयीं जिससे समाज में गैरबराबरी ख़त्म हो सके। उपेक्षित, उत्पीड़ित और किसी तरह की सुविधा व सम्मान से वंचित तबकों का उत्थान हो सके।
वे एक वैज्ञानिक समाजवादी समाज की कल्पना कर रहे थे। लेकिन यह नहीं हो सका। वोट की राजनीति और व्यक्तिगत राजनीतिक स्वार्थों के चलते एक ओर वे अस्थायी व्यवथाएं पूरी तरह सुदृढ़ बन गयीं। वहीं इसके चलते सभी राजनीतिक दलों में अपने वोट बैंकों को सुरक्षित करने की जबर्दस्त होड़ है कि वे कितनी अधिक से अधिक और विभाजनकारी व्यवस्थाओं का निर्माण कर सकते हैं। यहाँ गणतंत्र की आत्मा समाप्त हो गई। उसकी मूल भावना क्षत विक्षत हो गई। धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद के अर्थ सुविधानुसार बदल गए। यह जान लेना आवश्यक है कि ‘गण’ शब्द का ठीक-ठीक अर्थ क्या है।
गण का मुख्य अर्थ है-समूह और इसलिए गणराज्य का अर्थ होगा, समूह के द्वारा संचालित राज्य, अथवा बहुत से लोगों के द्वारा होने वाला शासन। एक जैन ग्रंथ में गण की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि मानव समाज के सम्बन्ध में गण मनुष्यों का ऐसा समूह है जिसका मुख्य गुण है मन-युक्त अथवा विवेक-युक्त होना।
देवीप्रसाद चट्टोपध्याय अपने अध्ययन में लोकायत में ‘बुद्ध’ को एक जनजाति समाज का बताते हैं।
बौद्ध मतानुसार गण वह है- “जिसमें समझ और महान बुद्धि है वह स्वयं या दूसरे या दोनों को नुकसान पहुंचाने का विचार नहीं कर सकता। बल्कि वह न केवल अपने, दूसरों के, दोनों के और समस्त विश्व कल्याण के लिए सोचता है। इस तरह से वह समझ और विशाल बुद्धि का प्रदर्शन करता है।’’
‘गण’ मूलतः वैदिक शब्द था। वहाँ ‘गणपति’ और ‘गणनांगणपति’ ये प्रयोग आए हैं। इस शब्द का सीधा अर्थ समूह था। देवगण, ऋषिगण पितृगण-इन समस्त पदों में यही अर्थ अभिप्रेत है। भारतीय संस्कृति में प्रत्येक गांव एक गण समूह होता था वह अपने कार्यों और उत्तरदायित्वों के प्रति स्वयं उत्तरदायी होता था। उसके ऊपर किसी अन्य का कोई अधिकार नहीं होता था। भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार उस भूभाग के समस्त गण गणपति का चुनाव करते थे जो उन्हें आवश्यकतानुसार सलाह देता था विशेषकर खेती और पशुओं की समृद्धि के लिए।
गणपति एक संवेदनशील समाजचितक समूह था जो कालांतर में देवता का रूप ले बैठा और उसकी अवधारणा एक ही प्राणी के रूप में कर ली गई। तमाम गणपतियों का मार्ग दर्शक एक गणाधिपति समूह होता था जिसे कालांतर में ईश्वर के रूप में स्वीकार लिया गया।एशियाई पद्धति के तहत गण समाज का आशय गण समाजों की सामूहिक उत्पादन पद्धति से था। सब लोग मिलकर श्रम करते थे, श्रम फल पर सबका मिला-जुला अधिकार होता था; संपति पर, उत्पादन के साधनों पर, गण समाज के सदस्यों का सामूहिक स्वामित्व था पहले कहा जाता था कि कोई भी कानून संविधान की मूल भावनाओं के विपरीत नहीं होगा।आजादी के आंदोलन के दौरान देश के लोगों में धर्म, भाषा या प्रांत को लेकर किसी भी प्रकार का अलगाव नहीं था।
वर्तमान दौर में बेशक हमने अनेकों क्षेत्रों में तकनीकी उन्नति की है, लेकिन हमने विश्वास के आपसी रिश्तों और सामाजिक ताने-बाने को खो दिया है। खो दिया है आधी रात को स्वतंत्र घूमने के आनंद को। मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों की सड़कों पर अब रात में सैर करने में भी डर लगता है। आज नकली भोज्य पदार्थों, नकली दवाइयों, भयानक प्रदूषण तथा महँगी चिकित्सा के कारण हमने स्वस्थ रहने के अपने अधिकार को भी खो ही दिया है।
जातिवादी और साम्प्रदायिक सोच, अलगाववाद, भ्रष्टाचार, गुंडागर्दी, अपराध, नेताओं और पुलिस की मनमानी, सूदखोरी, जमाखोरी, कारपोरेटीकरण, मुक्त अर्थव्यवस्था और अधिकाधिक लाभ अर्जित करने की सोच और चालाकी से भरी राजनीति यह सब देश और जनता की असल आजादी में बाधक बन चुकी है।
जीववैज्ञानिक मान्यता के अनुसार ‘गण’ जीववैज्ञानिक वर्गीकरण में जीवों की एक श्रेणी होती है। एक गण में एक-दूसरे से समानताएँ रखने वाले कई सारे जीवों के कुल आते हैं।
ध्यान दें कि हर जीववैज्ञानिक कुल में बहुत सी भिन्न जीवों की जातियाँ-प्रजातियाँ सम्मिलित होती हैं। गणों के नाम अधिकतर लातिनी भाषा में होते हैं क्योंकि जीववैज्ञानिक वर्गीकरण की प्रथा 17वीं और 18वीं सदियों में यूरोप में शुरू हुई थी और उस समय वहाँ लातिनी ज्ञान की भाषा मानी जाती थी। यह रवायत अभी तक चलती आई है।
आधुनिक काल में इस्तेमाल होने वाली वर्गीकरण व्यवस्था 18वीं शताब्दी में कार्ल लीनियस नामक स्वीडिस वैज्ञानिक ने की थी। मानव एक जीववैज्ञानिक जाति है जिसका वैज्ञानिक नाम ‘होमो सेपियन्स’ है। स्तनधारी एक जीववैज्ञानिक वर्ग है जिसमें स्तनधारी जानवरों वाले सभी गण आते हैं – यानी इस वर्ग में मनुष्य, भेड़िये, व्हेल, चूहे, घोड़े और कुत्ते सभी सम्मिलित हैं।
अब प्रश्न यह है कि हमारे गणतंत्र में क्या ‘गण’ की कोई महत्त्वपूर्ण स्वीकृति, पहचान या अस्मिता शेष है? फिर इस गणतंत्र के क्या मानी हैं। आजादी के 73 वर्ष बाद जब हम अपनी स्वतंत्रता की समीक्षा करते हैं तो यह स्पष्ट पता चलता है कि इस स्वतंत्रता का हमने कितना राजनीतिक दुरुपयोग किया है।
मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, लचर कानून व्यवस्था, गरीब और अमीर के बीच बढती खाई, निरंकुश राजनेता, ढुलमुल प्रशासन और दूरदृष्टि का अभाव यही हमारे गणतंत्र की पहचान बन गई है। इसिलए गणतंत्र दिवस के आयोजनों से गण यानि जन दूर होता चला जा रहा है या जानबूझकर किया गया है, सिर्फ तंत्र, यानि सरकार समारोह मना रही है।
आज जब दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसान गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में गणतंत्र का उद्घोष करने के लिए ट्रैक्टर परेड करना चाहते हैं तो सरकार हर हाल में उन्हें इस आयोजन से दूर रखना चाहती थी। जबकि यह तो गणतंत्र के महत्व को गौरवान्वित करने वाली बात है। लेकिन उल्टा इसे एक अवांछित कदम बताया जाता रहा है। अंततः दिल्ली पुलिस को झुकना ही पड़ा और ट्रैक्टर परेड की अनुमति दे दी। लेकिन दुखद यह कि एक घिनौना भाष्य इस आंदोलन को बदनाम करने लिए सरकार पोषित मीडिया द्वारा लगातार प्रचारित किया जाता रहा है।
कवि रघुवीर सहाय के मुताबिक –
‘‘राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है
मखमल टमटम बल्लम तुरही
पगड़ी छत्र चंवर के साथ
तोप छुड़ा कर ढोल बजा कर
जय-जय कौन कराता है
पूरब-पश्चिम से आते हैं
नंगे-बूचे नरकंकाल
सिंहासन पर बैठा
उनके तमगे कौन लगाता है
कौन कौन है वह जन-गण-मन
अधिनायक वह महाबली
डरा हुआ मन बेमन जिसका
बाजा रोज बजाता है।’’
स्पष्ट है कि वे हमें हिकारत की नजर से देखते हैं और हम उनके बनाये रिवाजों पर चलने को विवश हैं क्योंकि वे ही हमारे भाग्यविधाता हैं।
(शैलेंद्र चौहान वरिष्ठ कवि-आलोचक हैं।)