बिहार चुनाव: सामाजिक न्याय का घोषणापत्र


बिहार विधानसभा-2020 का चुनाव ऐसे समय में हो रहा है जबकि ब्राह्मणवाद व पूंजीवाद के गठजोड़ का हमला तेज है. ब्राह्मणवादी सवर्ण वर्चस्व और देशी-विदेशी पूंजीपतियों के द्वारा देश के संपत्ति-संसाधनों पर कब्जा आगे बढ़ रहा है. बहुजनों की चौतरफा बेदखली और सामाजिक-आर्थिक गैर-बराबरी बढ़ती जा रही है. संविधान को तोड़-मरोड़ कर फिर से मनुविधान और लोकतंत्र को कमजोर कर तानाशाही थोपा जा रहा है. केन्द्र सरकार के साथ नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली बिहार की एनडीए सरकार भी कदमताल करती रही है.

विभिन्न स्त्रोतों से हासिल तथ्यों-आंकड़ों से स्पष्ट है कि आज भी भारत में मनुसंहिता पर आधारित वर्ण-जाति व्यवस्था का श्रेणीक्रम पूरी तरह लागू है. भारत में बहुसंख्यकों की नियति आज भी इससे तय होती है कि उन्होंने किस वर्ण-जाति में जन्म लिया है. वर्तमान लोकसभा में ओबीसी सांसदों का प्रतिशत 22.09 है जबकि आबादी में इनका अनुपात न्यूनतम 52 प्रतिशत है. 21 प्रतिशत सवर्णों का लोकसभा में प्रतिनिधित्व 42.7 प्रतिशत है. ग्रुप-ए के कुल नौकरियों के 66.67 प्रतिशत पर 21 प्रतिशत सवर्णों का कब्जा है. 52 प्रतिशत ओबीसी वर्ग के पास ग्रुप-ए के सिर्फ 13.1 प्रतिशत पद हैं. ग्रुप बी के कुल पदों के 61 प्रतिशत पदों पर सवर्ण काबिज हैं. कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में शिक्षक से लेकर प्रिंसिपल-कुलपति तक के पद पर सवर्णों का दबदबा है. न्यायपालिका (हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट) में 90 प्रतिशत से अधिक जज सवर्ण हैं. मीडिया भी सवर्णों के कब्जे में ही है. राष्ट्रीय संपदा में ओबीसी की हिस्सेदारी सिर्फ 31 प्रतिशत है, जबकि सवर्णों की हिस्सदारी 45 प्रतिशत है, दलितों की हिस्सेदारी सिर्फ 7 प्रतिशत है. कुल भूसंपदा का 41 प्रतिशत सवर्णों के पास है, ओबीसी का हिस्सा 35 प्रतिशत है और एससी के पास 7 प्रतिशत है. लेकिन नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बहुजनों की चौतरफा बेदखली का अभियान आगे ही बढ़ रहा है.

कोरोना महामारी के दौर में भी मेहनतकश बहुजनों के प्रति केन्द्र-राज्य सरकारों की चरम क्रूरता सामने आई है. नरेन्द्र मोदी सरकार ब्राह्मणवादी सवर्ण शक्तियों और पूंजीपतियों की सेवा में लगी रही. आपदा को अवसर में बदलते हुए नरेन्द्र मोदी सरकार ने आर्थिक तबाही के दौर में भी मेहनतकशों पर बड़ा हमला बोल दिया. लागत के डेढ़ गुना कीमत पर अनाज की सरकारी खरीद की गारंटी देने और कर्ज मुक्त करने के बजाय केन्द्र सरकार ने किसानों के खिलाफ पूंजीपतियों के पक्ष में कृषि संबंधी तीन कानूनों को थोप दिया है. मजदूरों को भी बंधुआ हालात में धकेल देने और पूंजीपतियों को मनमानी की छूट देने के लिए श्रम कानूनों को बदल दिया है. निजीकरण की गति भी बढ़ा दी गई है. रेलवे के साथ-साथ कोल इंडिया, बीपीसीएल, एलआईसी, बीएसएनएल, एयर इंडिया आदि को बेचने का अभियान जारी है. निजीकरण अंततः सामाजिक न्याय विरोधी होता है, सामाजिक-आर्थिक गैरबराबरी बढ़ाता है, आरक्षण जैसे सामाजिक न्याय के प्रावधान को प्रभावहीन बनाता है. अभी हाल में ही कोरोना महामारी के बीच में मंत्रिमंडल ने नई शिक्षा नीति-2020 के ड्राफ्ट को पास किया है. शिक्षा के अधिकार से बहुजनों की बेदखली और शिक्षा को पूंजीपतियों के हवाले कर देने की ही साजिश आगे बढ़ रही है. आर्थिक संकट और पूंजीपति पक्षधर नीतियों की मार बहुजनों पर ही ज्यादा पड़ती है, क्योंकि वही मेहनतकश हैं. कोरोना महामारी के दौर में लॉकडाउन का भी एससी, एसटी व ओबीसी पर ही ज्यादा मार पड़ी है. अध्ययन बताते हैं कि अप्रैल के महीने में सवर्णों के तीन गुना दलितों ने रोजगार खोया है. दूसरी तरफ सवर्णों के शासन-सत्ता व अन्य क्षेत्रों में वर्चस्व की गारंटी के लिए 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले ही 10प्रतिशत आरक्षण दिया जा चुका है, जिसका असर साफ तौर पर दीख रहा है. अब एससी, एसटी व ओबीसी के आरक्षण को अंतिम तौर पर ठिकाने लगाने की साजिश की जा रही है. सुप्रीम कोर्ट ने भी केन्द्र सरकार के साथ आरक्षण के खिलाफ मोर्चा संभाल रखा है. ब्राह्मणवादी जातिवादी, सांप्रादायिक व पितृसत्तावादी हिंसा चरम पर है. लोकतांत्रिक आवाज का दमन भी जारी है. लोकतांत्रिक आंदोलन के कार्यकर्ताओं व बुद्धिजीवियों को दमनकारी कानूनों का इस्तेमाल कर जेलों में ठूंसा जा रहा है.

बिहार ने सामाजिक न्याय के 30 वर्षों के राज में भी सामाजिक-आर्थिक न्याय के साथ विकास की दिशा में उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल नहीं की है. कोरोना महामारी और लॉकडाउन के दौर ने बिहार के विकास के शर्मनाक तस्वीर को सामने ला दिया है. नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट में भी विकास के सूचकांकों में बिहार आखिरी पायदान पर है. नीतीश कुमार द्वारा उछाले गये तमाम नारे-दावे भी क्रूर मजाक बन कर रह गये हैं. उन्होंने भी सामाजिक-आर्थिक न्याय के साथ विकास के बुनियादी एजेंडा पर काम नहीं किया. भूख-बदहाली-पलायन-पिछड़ेपन के दुष्चक्र में बिहार फंसा हुआ है जिसके बोझ तले बहुजन दबे हुए हैं. इस दुष्चक्र से बिहार को बाहर निकलने और सामाजिक-आर्थिक न्याय का भूमि सुधार बुनियादी व प्राथमिक प्रश्न है. लेकिन नीतीश कुमार ने अपने ही कार्यकाल में गठित भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों भी ठंडे बस्ते में डाल दिया. विकास और रोजगार सृजन की बुनियाद कृषि विकास ही बन सकता है और कृषि विकास भूमि सुधार के बगैर नहीं हो सकता है. कृषि के साथ सरकारी शिक्षा-चिकित्सा व्यवस्था की बदहाली भी ऊंचाई पर है और नीतीश कुमार ने अपनी सरकार के शुरुआती दौर में शिक्षा सुधार के लिए गठित कॉमन स्कूल सिस्टम आयोग की जरूरी सिफारिशों को भी भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों की तरह ठंडे बस्ते में डाल दिया. लगभग दो वर्षों को छोड़कर शेष समय नीतीश कुमार के साथ भाजपा साझीदार रही है. सुशासन और न्याय के साथ विकास के आवरण में आरएसएस-भाजपा का एजेंडा आगे बढ़ता रहा है. सुशासन के नाम पर पुलिस दमन व अफसरशाही और न्याय के नाम पर सामाजिक अन्याय की ताकतों का दबदबा व विकास के नाम पर लूट का मॉडल ही आगे बढ़ा है. ब्राह्मणवादी जातिवादी-सांप्रदायिक व पितृसत्तावादी हिंसा नई ऊंचाई पर है. नीतीश कुमार ने अंततः बिहार में सवर्ण पुनर्उत्थान का रास्ता बनाया है.

नरेन्द्र मोदी सरकार के बहुजनों पर बढ़ते चौतरफा हमले और बिहार में सवर्ण पुनर्उत्थान के परिदृश्य में विधानसभा चुनाव हो रहा है. लेकिन,चुनाव के राजनीतिक परिदृश्य में बहुजन पक्ष अनुपस्थित है. सामाजिक न्याय का एजेंडा चुनावी राजनीतिक विमर्श में नहीं है. विपक्षी पार्टियों के घोषणा पत्र में वादों-दावों के बीच से सामाजिक न्याय का छोर गायब है. सत्ता-शासन की संस्थाओं, संपत्ति-संसाधनों व उद्योग-कारोबार में बहुजनों की आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी का एजेंडा नहीं है. बहुजनों के पक्ष से चुनाव के मैदान में सीधे-सीधे बोलने के लिए कोई विपक्षी राजनीतिक पार्टी और गठबंधन तैयार नहीं है. विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी-राजद आर्थिक न्याय की बात करते हुए ‘ए टू जेड’ की बात कर रही है. राजद ने भी ब्राह्मणवादी सवर्ण शक्तियों के सामने पूर्णतः सरेंडर कर दिया है. सामाजिक न्याय को छोड़कर आर्थिक न्याय व विकास के कार्यभार को पूरा किया ही नहीं जा सकता. बिहार में नीतीश कुमार के सहारे आगे बढ़ी भाजपा अब उनको भी ठिकाने लगाने आगे बढ़ चुकी है. सवर्ण धुरी पर सजती राजनीति चुनाव के मैदान में साफ तौर पर दीख रही है.
90 के बाद पहला चुनाव है, जब 85 प्रतिशत बहुजनों के बजाय राजनीति सवर्णों की ओर झुक गई है. एनडीए और विरोधी गठबंधनों में शामिल पार्टियों के टिकट वितरण से भी यह साफ तौर पर दीख रहा है. अतिपिछड़े-पसमांदा खासतौर पर उपेक्षित हैं. राजनीतिक भागीदारी में उल्लेखनीय परिवर्तन आया है. लेकिन 2015 में भी सवर्ण विधायक लगभग 22 प्रतिशत चुने गये हैं और अतिपिछड़ों की विधानसभा में भागीदारी अब भी आबादी के अनुपात से आधी है.

2014 में नरेन्द्र मोदी के केन्द्र की सत्ता में आने के बाद से बहुजनों ने सड़कों पर मजबूत लड़ाई लड़ी है. 2 अप्रैल 2018, 5 मार्च 2019 के भारत बंद और सीएए-एनआरसी-एनपीआर विरोधी लड़ाई में देश के पैमाने पर दलितों-आदिवासियों-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों ने ताकत दिखाई है. बिहार में भी जमीन से बहुजन आंदोलन उठ खड़ा हुआ है, नीले झंडे की सड़कों पर दावेदारी सामने आई है. लेकिन इसके विपरीत बहुजनों के आकांक्षा-आक्रोश से जुड़े सामाजिक न्याय के महत्वपूर्ण मुद्दे चुनावी राजनीतिक परिदृश्य से गायब हैं. इस परिस्थिति में सड़क पर चलने वाले बहुजन आंदोलन को बहुजन पक्ष और सामाजिक न्याय के मुद्दे चुनाव में पेश करना ही चाहिए.

एजेंडा:

  • एससी, एसटी व इबीसी-बीसी आरक्षण को सख्ती से लागू करना
  • तमिलनाडु की तर्ज पर आबादी के अनुपात में आरक्षण की गारंटी
  • मीडिया सहित निजी क्षेत्र में भी आबादी के अनुपात में एससी-एसटी-इबीसी-बीसी के लिए आरक्षण
  • असंवैधानिक सवर्ण आरक्षण को बिहार में लागू न करने और क्रीमी लेयर के असंवैधानिक प्रावधान को रद्द करने के साथ ही कॉलेजियम सिस्टम को खत्म कर भारतीय न्यायिक सेवा आयोग के गठन व हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट में आबादी के अनुपात में आरक्षण लागू करने जैसे प्रस्तावों को विधानसभा से पारित करना
  • प्रोन्नति में एससी, एसटी व ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करना
  • विधानसभा में अतिपिछड़ों और विधान परिषद में दलित-आदिवासी व अतिपिछड़ों को आबादी के अनुपात में आरक्षण की गारंटी करना
  • ठेका-पट्टा में एससी, एसटी व इबीसी-बीसी को आबादी के अनुपात में आरक्षण
  • उद्योग व कारोबार में एससी, एसटी व इबीसी-बीसी की आबादी के अनुपात में हिस्सेदारी की गारंटी करना
  • 2021 में जनगणना के साथ जाति जनगणना के पक्ष में खड़ा होना
  • रेलवे, कोल इंडिया, एलआईसी, बीएसएनएल सरकारी क्षेत्रों-उपक्रमों के निजीकरण के खिलाफ ताकत से खड़ा होना
  • शिक्षा के निजीकरण पर रोक, सबको एकसमान-गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की गारंटी के लिए कॉमन स्कूल सिस्टम आयोग की सिफारिशों को लागू करना
  • स्वास्थ्य सुविधाओं के निजीकरण पर रोक, स्वास्थ्य के अधिकार को कानूनी अधिकार बनाना
  • सबको भोजन के अधिकार की गारंटी और जन वितरण प्रणाली को सार्वभौमिक बनाना
  • लागत के डेढ़ गुना कीमत पर किसानों के अनाज के सरकारी खरीद की गारंटी के लिए कानून बनाना
  • सरकारी जमीन पर बसे भूमिहीनों-झुग्गीवासियों को पुनर्वास के बगैर उजाड़ने पर रोक, भूमिहीनों के भूमि अधिकार व कृषि विकास के लिए बिहार सरकार द्वारा गठित भूमि सुधार आयोग की सिफारिशों को लागू करना
  • काम के घंटे 8 रखना, श्रमिकों के अधिकार की रक्षा करना
  • बेरोजगारी बढ़ाने वाली नीतियों पर रोक, स्थायी व सम्मानजनक रोजगार नहीं तो सम्मानजनक बेरोजगारी भत्ता देना, ठेका-मानदेयकर्मियों-दैनिक वेतनभोगियों का स्थायीकरण, समान काम के लिए समान वेतन,एसीसी-एसटी-ओबीसी बैकलॉग भरने की प्राथमिकता के साथ सरकारी रिक्त पदों पर नियुक्ति, रोजगार को मौलिक अधिकार बनाने के पक्ष में खड़ा होना
  • सम्मानजनक जीवन यापन के लिए न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण,न्यूनतम मजदूरी की गारंटी
  • एनपीआर रोकना
  • 2 अप्रैल 2018 व 5 मार्च 2019 भारत बंद, सीएए-एनआरसी-एनपीआर विरोधी आंदोलन सहित अन्य लोकतांत्रिक आंदोलनों में आंदोलनकारियों पर दर्ज फर्जी मुकदमे की वापसी की गारंटी
  • सफाई के काम के आउटसोर्सिंग पर रोक, सफाईकर्मियों के सुरक्षा, अधिकार व स्थायी नियुक्ति की गारंटी
  • ब्राह्मणवादी जातिवादी, पितृसत्तावादी व सांप्रदायिक हिंसा के खिलाफ त्वरित न्याय की गारंटी

ब्राह्मणवादी सवर्ण पुनर्उत्थान के दौर में सामाजिक न्याय की पार्टियों ने पूर्णतः समर्पण कर दिया हो तो केवल ‘भाजपा हराओ’ के नारे के साथ भाजपा विरोधी गठबंधन के पीछे खड़ा नहीं हुआ जा सकता है बल्कि बहुजन आंदोलन का स्वतंत्र हस्तक्षेप जरूरी हो जाता है. स्वतंत्र हस्तक्षेप का कतई मतलब नहीं है कि चुनावी हस्तक्षेप ही करें. जरूर ही भाजपा को खारिज करने के आह्वान के साथ सामाजिक न्याय के एजेंडा को खड़ा करना होगा और सामाजिक न्याय की पार्टियों से भी जवाब-तलब करना होगा, एजेंडा पर पक्ष पूछना होगा. इस रास्ते चुनाव में भी बहुजन दावेदारी को बुलंद करना होगा.


रिंकु यादव, राजीव यादव
94719 10152, 9452800752
सामाजिक न्याय आंदोलन (बिहार) और रिहाई मंच की ओर से जारी


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जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

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