अभी बीते 30 अगस्त को सामने आयी रिर्पोटों के अनुसार जर्मनी में कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए लगाये गये प्रतिबंधों के खिलाफ हुए प्रदर्शन के दौरान 300 लोगों को पुलिस ने गिरफ्तार किया। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार 29 अगस्त को बर्लिन की सड़कों पर विरोध प्रदर्शन के लिए करीब 38,000 लोग उतरे। बाद में सैकड़ों प्रदर्शनकारियों ने जर्मनी के संघीय संसद भवन रीश्टैग पर धावा बोलने की कोशिश भी की।
इस दौरान कुछ प्रदर्शनकारियों ने 1871-1981 के जर्मन रीश के झंडे लहराये और नाज़ी प्रतीकों को दिखाया। टीवी फुटेज में ऐसे कुछ लोगों को रीश्टैग बिल्डिंग की ओर दौड़ते हुए देखा जा सकता है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोनो वायरस प्रतिबंधों का विरोध करने वाले लोगों ने कई रैलियां निकाली हैं। ऐसे प्रदर्शन कई दूसरे यूरोपीय शहरों में भी हुए, जिनमें प्रदर्शनकारियों ने वायरस को एक धोखा बताया है। दरअसल, ऐसे प्रदर्शन छोटे-छोटे अनेक देशों में हो रहे हैं, जिनकी ख़बरें हम तक नहीं पहुंच रही हैं। हां, कोविड का वायरस है ही नहीं, ऐसा मानने वालों की संख्या बहुत कम है। कुछ लोग यह आवश्यक मानते हैं और इसके प्रमाण देते हैं कि यह वायरस बायो-इंजीनियरिंग का नतीजा है।
कोरोना के कारण लगाये गये प्रतिबंधों और 5जी सहित दूसरे मुद्दों के विरोध में लंदन के ट्रफल्गर स्क्वायर में हजारों लोग एकत्र हुए थे। इसी तरह का विरोध प्रदर्शन पेरिस, वियना और ज्यूरिक में भी हुआ था। प्रदर्शनकारी मास्क पहनने के कानून का विरोध कर रहे हैं तथा कोविड के नाम पर लगाये गये प्रतिबंधों को एक वैश्विक षडयंत्र मान रहे हैं।
इन प्रदर्शनों का मूल स्वर यह है कि कुछ शक्तियां कोविड के नाम पर दुनिया का भयादोहन कर रही हैं।
भारत व अन्य देशों में कुछ बुद्धिजीवीगण इस विरोध प्रदर्शन को दक्षिणपंथ द्वारा प्रायोजित “कांस्पिरेसी थ्योरी” पर आधारित कह रहे हैं। क्या इन बुद्धिजीवियों का विरोध महज नाज़ी प्रतीकों से है? अगर ऐसा है तो यह उचित है, लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। लगता है कि दक्षिणपंथ, नाज़ी प्रतीक आदि एक आड़ है, जिनके पीछे छुप कर हम अपने नव-सृजित भय के संसार का आनंद ले रहे हैं। जैसे कभी-कभी विशालकाय वातानुकूलित अंधेरे हॉल में कुछ स्नैक्स (अल्पाहार) के साथ किसी भुतहा फिल्म का आनंद लेते हैं। हम जानते हैं कि वहां से बाहर निकलते ही रोशनी होगी, जीवन सामान्य होगा लेकिन आज जो कुछ घटित हो रहा है वह सिनेमा हॉल का परदा नहीं है। अर्थव्यवस्था और तकनीक पर काबिज होकर कुछ लोगों ने विश्व को ही सिनेमाहॉल बना दिया है और यह साफ तौर पर बिना योजना के नहीं हुआ है। कोविड नामक बीमारी, कोरोना-2 नामक वायरस भले ही मौजूद हो, लेकिन उसके भय को जिस प्रकार सायास अनुपातहीन बनाया गया है, वह एक कांस्पिरेसी का हिस्सा है।
उनकी कोशिश है कि इस रंग-पटल पर सिर्फ उनकी फिल्में चलें। हो सकता है कल यह फिल्म बदल जाए। भुतहा के बाद आपको कोई रोमांटिक फिल्म दिखायी जाए, लेकिन आजादी के प्रकाश वाली हमारी वह असली जगह खत्म हो चुकी होगी।
सवाल यह है कि अगर कोविड के नाम पर लगाये गये प्रतिबंधों का विरोध “कांस्पिरेसी थ्योरी” पर आधारित है तो यह थ्योरी क्या कहती है?
क्या यह उन लोगों के खिलाफ है, जो लॉकडाउन के कारण भुखमरी के कगार पर पहुंच गये हैं? क्या यह भारत, नेपाल, बांग्लादेश की उन छात्राओं के खिलाफ है, जिनकी पहली पीढ़ी स्कूल में पहुंची थी? जिनके माता-पिता का रोजगार खत्म हो गया और जिन पर देह-व्यापार के दलाल डोरे डाल रहे हैं? क्या यह उन लाखों लोगों के खिलाफ कांस्पिरेसी है जो किडनी, हृदय रोग, कैंसर आदि रोगों से पीड़ित थे और लॉकडाउन के कारण इलाज नहीं मिलने से मर गये? क्या यह उन लोगों के खिलाफ कांस्पिरेसी है, जिन्होंने भारत जैसे देशों में पहली बार गरीबी रेखा को पार किया था, लेकिन लॉकडाउन के कारण वापस अपनी जगह पर धकेल दिये गये हैं? क्या यह मध्यम वर्ग के उन लोगों के खिलाफ कांस्पिरेसी है जो एक मनुष्य के रूप में अपनी आजादी से इश्क करते हैं?
इन प्रतिबंधों का विरोध करने वालों की राजनीति चाहे जो भी हो, लेकिन हमें यह तो देखना ही चाहिए कि यह किसके खिलाफ है। साथ ही यह भी समझने की कोशिश भी करनी चाहिए कि एक वैचारिक समूह के रूप में हम किसके पक्ष में खड़े हो रहे हैं।
ऐसा कोई भी बुद्धिजीवी जो जनता से जुड़ा हो, जो उसके दुखों को समझता हो, इन प्रतिबंधों के पक्ष में नहीं हो सकता। चाहे वह किसी भी राजनीतिक धारा में विश्वास रखता हो।
यह कौन सी चेतना है जो हम में से कई लोगों को बिग टेक, बिग फार्मा और डिजिटल तकनीक के सहारे अपना वैश्विक राजनीतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक साम्राज्य बनाने वालों के सपनों को पूरा करने के लिए प्रेरित कर रही है?
लेखक असम विश्वविद्यालय के रवींद्रनाथ टैगोर स्कूल ऑफ लैंग्वेज एंड कल्चरल स्टडीज में सहायक प्राध्यापक हैं