नेपाल पर कुछ ज़रूरी सवाल: विष्‍णु शर्मा का पत्र


समकालीन तीसरी दुनिया के ताज़ा अंक में नेपाल पर लिखे संपादकीय और आवरण कथा पर विष्‍णु शर्मा का यह पत्र आज आया है। कायदे से यह पत्र तीसरी दुनिया के संपादक को भेजा जाना चाहिए था, लेकिन जनपथ को भेजा गया। विष्‍णु शर्मा का आग्रह था कि इस पत्र को जनपथ पर लगा दिया जाए। संपादकीय और लेख पढ़ने के लिए नीचे दिए आवरण चित्र पर क्लिक करें, पूरी पत्रिका खुल जाएगी। सूचना के लिए बता दें कि विष्‍णु शर्मा की नेपाल पर विस्‍तृत राय महीने भर पहले जनज्‍वार नाम की वेबसाइट पर आ चुकी है और वहां इस विषय पर लंबी बहस भी चल चुकी है। पत्रकारिता के बुनियादी कायदों के मुताबिक जनपथ ने इस पत्र को पत्रिका के संपादक आनंदस्‍वरूप वर्मा को फॉरवर्ड कर दिया है, लिहाज़ा यहां यह पत्र एक स्‍वतंत्र टिप्‍पणी के रूप में ही लिया जाना चाहिए।

प्रति,

संपादक

जनपथ डॉट कॉम

आपकी वेबसाइट पर समकालीन तीसरी दुनिया का नया अंक पढ़ने को मिला इसलिए यह पत्र मैं आपको लिख रहा हूं। नेपाल पर विशेष तौर पर केंद्रित इस अंक में वहां की संविधान सभा के भंग होने पर संपादकीय सहित कुछ महत्वपूर्ण सामग्री प्रकाशित हुई है जिस पर विचार करना ज़रूरी है। अपने संपादकीय में आनंद स्वरूप वर्मा ने स्वीकारा है कि माओवादी सेना का ‘राष्ट्रीय’ सेना में एकीकरण ‘शायद…सबसे बड़ी भूल थी’। उन्होंने यह भी माना है कि आज माओवादियों के पास अपने बचाव का कोई उपाय नहीं है। लेकिन जो बात उन्होंने स्पष्ट नहीं की वह यह है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है। क्यों आनंद स्वरूप वर्मा आज भी प्रचण्ड-बाबूराम को इसके लिए जिम्मेदार मानने से बचने की कोशिश कर रहे हैं। क्यों उनकी कलम यह नहीं लिख पाती कि किरण समूह लगातार इसके खिलाफ पार्टी के अंदर और बाहर आवाज़ उठाता आया था और है। तब आनंद स्वरूप वर्मा इस समूह को ‘अतिजनवादी’, ‘वामपंथी उग्रवादी’ जैसे तमाम साम्राज्यवादी नामों से अलंकृत कर रहे थे।

इसके अलावा इस अंक में उन्होंने इंडोनिशिया की कम्युनिस्‍ट पार्टी के बरबाद हो जाने पर भी सामग्री प्रकाशित की है जो लगातार माओ की उस बात को प्रमाणित करती है कि एक पार्टी के पास यदि सेना नहीं है, उसके पास अपना कहने को कुछ नहीं होता। यह सब समझते हुए भी इतने लंबे समय तक (मुख्य रूप से चार साल तक) आनंद स्वरूप वर्मा की शंकास्पद खामोशी का क्या कारण है। जब मैने अपने लेखों के जरिए आनंद स्वरूप वर्मा की ‘गलतियों’ पर प्रकाश डालने की कोशिश की तो उन्होंने इसके वैचारिक पक्ष को नकार कर इसे ‘व्यक्तिगत’ मामला बताकर खारिज करने की पूरी कोशिश की। पूरे मामले को उन्होंने और उनके सहयोगियों ने विष्णु बनाम आनंद स्वरूप वर्मा बनाने का प्रयास किया। आज उनका संविधान सभा के विघटन पर आंसू बहाना और माओवादियों के संकट पर अफसोस जाहिर करना क्या मेरी उस बात को प्रमाणित नहीं करता कि आनंद स्वरूप वर्मा इतिहास से सबक नहीं लेते बल्कि उसे अपनी सुविधा के हिसाब से गढ़ते हैं।

क्या आनंद स्वरूप वर्मा अब अपने भारतीय और नेपाली पाठकों से इस बात की माफी मांगेंगे कि उन्होंने चार साल तक प्रचण्ड और बाबूराम की गलतियों पर पर्दा डाला, इसे वैचारिक जामा पहनाया और इन ‘भूलों’ को व्यापक जनता के बीच स्वीकार्य बनाने में सहयोग किया। क्या वे भी नेपाली जनता के खलनायक प्रचण्ड और बाबूराम की तरह इस गुनाह में शामिल नहीं हैं।

धन्यवाद,

विष्णु शर्मा
एस-60
सेक्टर-12
नोएडा (यूपी)- 201301  

Read more

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *