पोर्टलैन्ड के आंदोलन से क्या “दलित लाइव्स मैटर” के लिए हम कुछ रोशनी ले सकते हैं?


अभी हाल ही में हुई जॉर्ज फ्लॉयड की बेरहम हत्या ने पूरे अमरीका को मानो कुछ अस्थिर कर दिया, यथास्थिति को झँकझोर दिया गया हो। जिस प्रकार सारे अमरीका में उस हादसे के लेकर विरोध प्रदर्शन हुए, उसी प्रकार से पोर्टलैन्ड शहर में भी मई महीने के अंत से विरोध प्रदर्शन आरम्भ हुए। प्रदर्शनकारियों की प्रधान मांग पुलिस व्यवस्था में सुधार और पुलिस बर्बरता की वारदातों की जांच-पड़ताल थीं, जो कि प्राय: सारा अमरीका ही मांग रहा था। दूसरे शहरों-कस्बों में विरोध प्रदर्शन शुरुआत के कुछ हफ़्तों के बाद स्वाभाविक रूप से घटते गये, लेकिन पोर्टलैन्ड में नियमित रूप से विरोध-प्रदर्शन चलता रहा। 2001 के दौरान चले ऑक्युपाइ मूवमेंट के ही स्थल पर रात-दिन यह विरोध प्रदर्शन चलत रहा। 

अमरीका में किसी भी प्रकार के विरोध की सार्वजनिक अभिव्यक्ति कुछ दिनों पहले तक एक अपवाद समान रही है। जहाँ अश्वेत जनसंख्या अधिक हो वहां तो फिर भी समय-समय पर कई प्रकार के प्रतिरोध होते रहते हैं लेकिन जहाँ श्वेत आबादी बहुसंख्यक हो वहां ‘प्रोटेस्ट कल्चर’- विरोध की परंपरा- ज़रा हलकी रही है। पोर्टलैन्ड और सीएटल अमरीका के पश्चिमी तट के दो प्रमुख शहर हैं जिसमें श्वेत लोग बहुसंख्यक हैं। सीएटल तो दुनिया भर में माइक्रोसॉफ्ट, अमेज़न एवं बोइंग जैसी कंपनियों के हेड-ऑफिस के लिए मशहूर है लेकिन इसी सीएटल शहर में 1999 में वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाइजेशन (WTO ) की विषम व शोषक नीतियों के विरुद्ध घमासान विरोध हुए थे। विरोध करने वाले थे श्वेत युवक-युवतियां और वह तबका, जिसे आज एनार्किस्ट (अराजक) कहा जा रहा है।  

पोर्टलैन्ड राजनैतिक सोच में प्रगतिशील अवश्य रहा है लेकिन एक ध्यान देने की बात यह भी है कि 2019 तक इस शहर में श्वेत-प्रभुता (व्हाइट सुप्रीमेसी) में विश्वास रखने वाले लोगों का गढ़ सा बन गया था। प्राय: रोज़ ही शहर में अपने वर्चस्व का दावा करने के लिए श्वेतों की टोलियां प्रदर्शन किया करती थीं।  

पोर्टलैन्ड जैसी जगह पर वर्तमान के दृढ़ प्रतिरोध का क्या विशेष कारण है, यह कहना थोड़ा मुश्किल है लेकिन उसकी कुछ ऊर्जा, कुछ रोष, कुछ उद्दंडपन, कुछ अराजकता और कुछ फासीवाद-विरोधी जूनून अपने पश्चिम-तटीय पडोसी, कामरेड-नगरी सीएटल शहर जैसा ज़रूर है।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अभी पोर्टलैन्ड की ख़बरें फैली हुई हैं पर कुछ ही दिन पहले तक सीएटल में तो शहर के बीचोंबीच, सरकारी दफ्तरों और इमारतों के सामने एक स्वतन्त्र विरोध क्षेत्र (“ऑटोनोमस प्रोटेस्ट ज़ोन”) बना दिया गया था जहाँ विरोधियों ने पुलिस को आने की अनुमति नहीं दी। इस ज़ोन को हाल ही में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के आदेश पर अर्ध-सैन्य बलों ने भंग किया।

पोर्टलैन्ड में अब तो आम नागरिक भी विरोध के साथ जुड़ गए हैं। खासकर माताओं के कई स्वैच्छिक गठन अब वयस्क विरोधियों को पुलिस के आँसू गैस और उनके हमलों से संरक्षण देने के लिए इकट्ठा हो गयी हैं। उनका कहना है कि जॉर्ज फ्लॉयड ने अपने आखिरी क्षणों में अपनी माँ को पुकारा था और उनके लिए यह एक अत्यंत मार्मिक क्षण बन गया था। एक बार फिर ध्यान देने वाली बात यह है कि ये माताएं अधिकतर श्वेत हैं।

एक प्रताड़ित, हाशिये वाले अश्वेत-वर्ग के मुद्दों को लेकर उच्च और मध्य वर्गीय श्वेतों का ऐसा प्रतिरोध और ऐसी एकजुटता को देख हाल ही में अमेरिका के प्रख्यात अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने एक लेख छापा है जिसका शीर्षक कुछ ऐसा है- “पोर्टलैन्ड, जो अमरीका के सबसे श्वेत-शहरों में से एक है, ने ब्लैक लाइव्स मैटर आंदोलन को कैसे अपनाया।”

जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के विरोध-प्रदर्शनों में अमरीका-भर में श्वेत वर्ग की बहुत भारी हिस्सेदारी रही है। अश्वेत-वर्ग की आशंकाएं, कि क्या यह श्वेत-वर्ग का समर्थन आडंबर-मात्र तो नहीं, कहीं उनके आंदोलन को पृथक न कर जाये- जायज़ और स्वाभाविक है लेकिन जैसा कि कई समीक्षकों ने कहा है – इस बार के प्रतिरोध पहले से कहीं गहरे और गंभीर रहे हैं। संपूर्ण समाज में – और खासकर श्वेत समाज में – एक नयी जागरूकता सी दिखायी दी है।  

भारत के लिए पोर्टलैन्ड जैसे शहरों में चलते नस्लवाद के विरुद्ध भीषण प्रतिरोध सोचने के लायक कई बिंदु खड़े करते हैं।  

क्या हम भी जाति-व्यवस्था, जाति-भेद, आदिवासी-उत्पीड़न व उनके विस्थापन जैसे मुद्दों पर एकजुट होकर और अपनी-अपनी विचारधाराओं को संयम में रख कर सामाजिक और सियासी ताकतों का सामना कर सकते हैं?

हाल की कोरोना-महामारी ने तो अन्याय के खिलाफ हमारे विविध संघर्षों को शिथिल सा ही कर दिया है, ऐसा प्रतीत होता है।इसी दौरान दलितों पर अत्याचार जारी रहे। प्रवासी श्रमिकों के साथ इतना ज़बरदस्त अन्याय हुआ पूरे देश के सामने परन्तु हमारी श्रमिकों के आंदोलन और ट्रेड यूनियन उस विशाल त्रासदी का कोई उचित जवाब नहीं दे पाए।  

जिस तरह श्वेतों पर आज तक यह आरोप लगता आया है कि वे अपने नस्लवादी अतीत का खुल कर और सच्चाई के साथ सामना नहीं करते, ठीक उसी प्रकार से हमारे समाज पर भी जातिवाद का प्रश्नचिह्न है।   

अमरीका तो एक सम्पूर्णतः पूंजीवादी देश है जिसने श्रमिकों के संगठनों और अश्वेतों के उग्र आन्दोलनों का बेरहमी से दमन किया है। उसके स्कूल-कॉलेज में राजनीति नाम-मात्र के लिए रह गयी है। असली राजनैतिक अखाड़े में उसकी दो ही पार्टियां हैं। उसकी पुलिस व्यवस्था व्यापक और आधुनिकतम हथियारों से लैस है। जब उस संकुचित-अवसर वाले क्षेत्र में, कोरोना-महामारी के बीच, उसकी आम जनता ने अन्याय के विरोध में अपनी आवाज़ बुलंद की है, तो क्या भारत के नागरिक, जो अपनी लोकतांत्रिक परंपरा पर गर्व करते हैं और पल भर में विभिन्न जन-आंदोलन गिनवा देते हैं, क्या वे भी निडर होकर अपने बीच के अन्यायों से लड़ सकते हैं?

क्या बाबासाहेब अम्बेडकर के जाति-उन्मूलन के आह्वान को हम स्वीकार कर उस कार्य पर लगन के साथ कार्यरत हो सकते हैं? क्या हम भी अपने अतीत और सामाजिक संरचना और विश्वासों को आलोचनात्मक नज़र से देख सकते हैं – या फिर वे “होली काउ” – एक पवित्र-पावन प्रतीक ही बने रहेंगे? क्या नव-उदारवादी नीतियों से आदिवासियों के हक़ और उनके विस्थापन के मामले में हम एक संयुक्त जवाब दे सकते हैं?

सामाजिक बदलाव एक लम्बे दौर की प्रक्रिया होती है पर हमारे प्रत्यक्ष निजी और सामाजिक प्रवृत्ति, मनोभाव, नज़रियों और रुख में परिवर्तन की एक मिसाल अमरीका में एक अनअपेक्षित तरीके और अप्रत्याशित रूप से दिख रही है लेकिन एक और बिंदु उभर के आता है पोर्टलैन्ड जैसे विरोध-प्रकरण में।

विचार और मत-परिवर्तन की विस्तृत सच्चाई तो हमें बाद में ज्ञात होगी, हालांकि कुछ मान्य मतगणना प्रतिष्ठान, जैसे कि प्यू रिसर्च का अनुसंधान दर्शाता है कि अमरीका की नयी पीढ़ी में वास्तव में नस्लवाद के प्रति विमुखता उभरी है।

इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए भी पोर्टलैन्ड जैसे उदाहरणों का महत्त्व इस बात में है कि नस्लवाद के अन्याय से संघर्ष और उसके उन्मूलन की दिशा में एक दृढ़, अटल संकल्प नज़र आता है, मानो प्रदर्शनकारी यह कह रहे हैं बुलंद आवाज़ में कि “अब और नस्लवाद और सियासी दमन हम नहीं सहेंगे।” वे लोग किस प्रकार का समाज चाहते हैं और किन उसूलों पर समझौता नहीं करेंगे, यह उन्होंने साफ़ कर दिया है अपने शारीरिक प्रतिरोध से।  

ऑक्युपाइ की तरह पोर्टलैन्ड का यह विरोध भी दैहिक है, भौतिक है- अप्रत्यक्ष या परोक्ष (वर्चुअल) नहीं। भारत में भी जातिवाद, पूँजीवाद जैसी विकृतियों के खिलाफ जो भी अभिव्यक्ति होनी है वह प्रत्यक्ष और वास्तविक रूप से ज़ाहिर करनी होगी। एक और जात-पात-तोड़क मंडल की भाँति हम मैदान से पीछे नहीं हट सकते। हमें भी “दलित लाइव्स मैटर” का आंदोलन सक्रिय और सफल करना होगा।  


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