14 अप्रैल 2025 को सामाजिक आंदोलनों के एक सच्चे सिपाही अनिल चौधरी का निधन हो गया। उनकी अंतिम यात्रा में निगमबोध घाट पर उनके परिवार, मित्रों और देश भर के जमीनी कार्यकर्ताओं ने उन्हें अंतिम विदाई दी। अनिल जी का जीवन चार दशकों से अधिक समय तक सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और जन आंदोलनों के लिए समर्पित रहा।
अनिल चौधरी का सामाजिक जीवन जेएनयू में छात्र राजनीति से शुरू हुआ, जहां वे स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (SFI) के सक्रिय सदस्य थे। वे जेएनयू छात्र संघ के महासचिव बने, जबकि सीताराम येचुरी अध्यक्ष थे। उनकी सहजता और संवादशीलता ने उन्हें सभी विचारधाराओं के छात्रों के बीच प्रिय बनाया। उनके नेतृत्व में जेएनयू में राजनीतिक मतभेदों के बावजूद आपसी सम्मान और संवाद की संस्कृति बनी रही।

अनिल जी ने PRIA और सीपीआइ(एम) से अलग होकर स्वतंत्र वामपंथी विचारधारा को अपनाया। उन्होंने PEACE (Popular Education and Action Centre) की स्थापना की, जो सामाजिक शिक्षा और जन आंदोलनों के समन्वय का केंद्र बना। बाबरी मस्जिद विवाद के दौरान बढ़ती सांप्रदायिकता से व्यथित होकर उन्होंने INSAF (Indian Social Action Forum) की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो देश भर में 750 से अधिक संगठनों को जोड़ता है।
विचारधारा और मार्गदर्शन
मैंने अनिल गुरु को हरिद्वार में SFI के दौरान जाना और 1999 में PVCHR में पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनने के बाद उनसे गहरा संपर्क हुआ। उनकी शिक्षाओं ने मुझे बाल श्रम, भूमि सुधार और शिक्षा के अधिकार को जोड़ने की समझ दी, जो टाइम मैगज़ीन के अप्रैल 1996 के संस्करण में प्रकाशित हुआ, हालांकि VOP (वॉयस ऑफ पीपुल) में कुछ वैचारिक मतभेदों के कारण वे PEACE पर केंद्रित हो गए।

PEACE द्वारा प्रकाशित पुस्तकों, विशेषकर दलित चिंतक डी. नागराज की रचनाओं ने मेरी वैचारिक यात्रा को एक नया मोड़ दिया। उनकी गहन और आलोचनात्मक दृष्टि ने मुझे ‘नव-दलित आंदोलन’ की अवधारणा को समझने और अपनाने की प्रेरणा दी। यह आंदोलन केवल जाति व्यवस्था के खिलाफ नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक सामाजिक परिवर्तन की दिशा में उठाया गया कदम है, जो चार मुख्य व्यवस्थागत शोषणों को चुनौती देता है:
- जाति आधारित भेदभाव — जो सदियों से दलितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से हाशिये पर धकेलता रहा है।
- पितृसत्तात्मक सामंतवाद — जो महिलाओं, खासकर दलित और वंचित वर्ग की महिलाओं के ऊपर दोहरे शोषण की संरचना खड़ी करता है।
- सांप्रदायिक फासीवाद — जो धार्मिक ध्रुवीकरण और नफ़रत फैलाकर समाज में विभाजन पैदा करता है और अल्पसंख्यकों के अस्तित्व पर सवाल खड़े करता है।
- नव-उदारवादी आर्थिक नीतियां — जो गरीबों, किसानों, श्रमिकों और छोटे व्यापारियों को और भी अधिक आर्थिक असुरक्षा की ओर धकेलती हैं, जबकि चंद कॉरपोरेट्स को सत्ता और संसाधनों पर नियंत्रण देती हैं।
नव-दलित आंदोलन इन सभी शोषणकारी ढांचों का विरोध करते हुए एक ऐसा वैकल्पिक भारत रचने का सपना देखता है जो समानता, न्याय, और समावेश पर आधारित हो। यह आंदोलन दलित चेतना को बहुजन एकता, मानवाधिकारों, स्थानीय ज्ञान (indigenous wisdom) और लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ जोड़ता है।
यह आंदोलन सिर्फ़ प्रतिरोध नहीं, बल्कि पुनर्निर्माण की एक क्रांतिकारी पहल है— और इस वैचारिक दिशा की नींव अनिल चौधरी जैसे मार्गदर्शकों की शिक्षाओं से ही बनी।
व्यक्तिगत संबंध और प्रेरणा
हालांकि मैं उनकी संस्था या गठबंधन का हिस्सा नहीं था, लेकिन अनिल जी मेरे गुरु और मार्गदर्शक रहे। मेरी जीवन की सफलताएं और आलोचनात्मक सोच, मेरे दादा और हाशिये के लोगों के साथ-साथ, अनिल जी की शिक्षाओं का परिणाम हैं।
अनिल गुरु से मिली सीख: संगठन कोई प्राइवेट लिमिटेड कंपनी नहीं होता
अनिल गुरु ने मुझे यह गहरी समझ दी कि कोई भी संगठन एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी नहीं होता, बल्कि वह एक दृष्टिकोण और मिशन को ज़मीनी स्तर पर उतारने का माध्यम होता है। संगठन का उद्देश्य सिर्फ़ व्यवस्थागत काम करना नहीं होता, बल्कि वह न्याय, समानता और मानव गरिमा की भावना को साकार करने का एक रास्ता होता है — जिसे सच्ची निष्ठा, परिश्रम और प्रतिबद्धता से आगे बढ़ाना होता है।
अनिल गुरु का जीवन व्यक्तिगत और व्यावसायिक दोनों ही क्षेत्रों में किसी भी प्रकार के बहिष्कार (exclusion) और शोषण (exploitation) के विरुद्ध रहा। मैंने भी उनके दिखाए रास्ते पर चलते हुए जीवन में बहुत कुछ अर्जित किया, लेकिन साथ ही मुझे निजी पारिवारिक जीवन में कई तरह की साज़िशों और धोखे का भी सामना करना पड़ा। फिर भी, उनके विचार और शिक्षाएं मेरे भीतर जीवित रहीं और मुझे मजबूत बनाए रखीं। आज मैं आत्मबल और संतोष के साथ कह सकता हूं कि अनिल गुरु जैसे विचारशील मार्गदर्शक की सीख ने मुझे संकटों में भी टिके रहने की ताकत दी।
मैं पूरी तरह से अभिषेक श्रीवास्तव की उस बात से सहमत हूं कि समय बहुत तेज़ी से बदल रहा है। अनिल गुरु के जाने से अभिषेक ने मुझसे कहीं अधिक खोया है, लेकिन मैं भी खुद को बेहद अकेला महसूस करता हूं। कैंसर से पहले अनिल जी ने मुझसे मोबाइल पर बात की थी। उन्होंने मुझे साज़िशों का सामना करने के लिए कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए और कुछ बहुत मूल्यवान जानकारियां साझा कीं। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि “लोभ सबसे बड़ा खतरा है”। उन्होंने यह भी सिखाया कि संघर्ष के समय भी हमें अपने शत्रुओं की भी मानव गरिमा और मानवाधिकारों का सम्मान करना चाहिए।
उनकी यही गहरी सोच उन्हें एक आम कार्यकर्ता से बहुत ऊपर ले जाती है। वे केवल एक व्यक्ति नहीं थे, बल्कि एक जीवंत विचारधारा थे जो हम जैसे कई लोगों में आज भी जीवित है।
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वो जो सवाल करता रहा… : अनिल चौधरी की याद में
विरासत और प्रेरणा
अनिल चौधरी का जीवन हमें सिखाता है कि कैसे संस्थागत सीमाओं से परे जाकर, विचारधारा और प्रतिबद्धता के साथ सामाजिक परिवर्तन लाया जा सकता है। उनकी शिक्षाएं और संघर्ष हमें आज भी प्रेरित करते हैं कि हम लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के लिए निरंतर प्रयासरत रहें।
उनकी स्मृति में, हम सभी को उनके आदर्शों पर चलने का संकल्प लेना चाहिए।
वे चले गए, लेकिन उनके विचार और मूल्य हम जैसे अनेक कार्यकर्ताओं में आज भी सांस ले रहे हैं— हर संघर्ष, हर आंदोलन और हर उस प्रयास में जहां मानव गरिमा और सामाजिक न्याय की बात होती है।
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