बहरी अंग्रेजी हुकूमत को चेताने के लिए भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल 1929 को दिल्ली की केन्द्रीय असेंबली में बम फेंका था जिसकी गूंज लन्दन तक सुनाई दी। ऐसा ही एक और बम आज से ठीक 110 साल पहले दिल्ली शहर के ही चांदनी चौक इलाके में फेंका गया था जब सर्वशक्तिमान ब्रिटिश साम्राज्य का सर्वोच्च अधिकारी वायसराय हार्डिंग बड़े ठाठ-बाट से हाथी पर सवार होकर अपनी नयी राजधानी में प्रवेश कर रहा था। यह आलेख उसी बमकांड की कहानी है जिसके बारे में आज बहुत कम लोग जानते हैं, लेकिन अपने समय में उसने अंग्रेजी साम्राज्य की जड़ें हिला दी थीं!
इस बहादुराना कारनामे को अंजाम दिया था चार प्रान्तों के क्रांतिकारियों ने: बंगाल के जुगांतर दल, पंजाब की भारत माता सोसाइटी, दिल्ली के मास्टर अमीरचंद ग्रुप और राजपूताना के रणबांकुरों ने। इन सब क्रांतिवीरों के मुखिया और हार्डिंग बम केस के मास्टरमाइंड थे महान देशभक्त रास बिहारी बोस!
कौन थे रास बिहारी बोस
जिस समय बम फेंका गया, बोस देहरादून स्थित फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया में एक क्लर्क के रूप में कार्यरत थे। उनकी सच्चाई कोई नहीं जानता था। उन्हें बंगाल के जुगांतर दल ने दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पंजाब और राजपूताना में क्रन्तिकारी संगठन कायम करने के खास उद्देश्य से भेजा हुआ था। इस गुप्त कार्य में उन्हें सहयोग मिला इलाहाबाद के पंडित सुन्दरलाल का, दिल्ली के लाला हरदयाल, मास्टर अमीरचंद (जो सेंट स्टीफंस कॉलेज में प्रोफेसर थे) और लाला हनुमंत सहाय का, राजपूताना के बारहठ परिवार और जोधपुर रियासत का तथा पंजाब की भारत माता सोसाइटी का।
1905 में बंगाल के विभाजन के साथ ही क्रांतिकारी आन्दोलन ने जोर पकड़ लिया था। खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने 30 अप्रैल 1908 को मुज्जफरपुर में एक अंग्रेज अधिकारी की गाडी पर (जिसमें असल में कोई और बैठा हुआ था) बम फेंक कर सशस्त्र क्रांतिकारी आन्दोलन का श्रीगणेश कर दिया था। इसके बाद कई कार्रवाइयां हुईं और अंग्रेजों का दमनचक्र भी तेज हो गया। खुदीराम को फांसी पर लटका दिया गया, उनके साथियों को कालापानी भेज दिया गया। इस कारण लाला हरदयाल जैसे कई क्रांतिकारी विदेश कूच कर गए। लन्दन में मदनलाल धींगरा ने सरेआम ब्रिटिश अधिकारी कर्जन वायिली को गोली से उड़ा दिया और हंसते-हंसते फांसी चढ़ गए। अब अंग्रेज साम्राज्यवादी अपने घर में भी महफूज नहीं थे। डर के मारे उन्होंने बंगाल विभाजन के अपने फैसले को पलट दिया, लेकिन क्रांतिकारियों से बचने के लिए वे लोग अपनी राजधानी कलकत्ता से नयी दिल्ली ले आए क्योंकि अब तक बंगाल ही सशस्त्र क्रान्ति का केंद्र था।
बंगाल के क्रांतिकारियों ने इसे एक चुनौती की तरह लिया। चंद्रनगर के जुगांतर दल ने अपने बेहद सक्षम कार्यकर्ता रास बिहारी बोस को उत्तर भारत जाकर क्रांतिकारी आन्दोलन संगठित करने का काम सौंपा। बोस उस वक्त मात्र 25 वर्ष के थे, लेकिन सेना में प्रशिक्षण लिए हुए एक बेहद मंझे हुए क्रान्ति-योद्धा थे। उन्होंने देहरादून के एफ़आरआइ विभाग को अपना बेस बनाया और उत्तर प्रदेश, पंजाब, दिल्ली एवं राजपूताना के क्रांतिकारियों से संपर्क स्थापित किए। लाला हरदयाल के दिल्ली ग्रुप के कई साथियों को उन्होंने अपने दल में शामिल किया। इन लोगों ने ‘लिबर्टी’ और ‘स्वाधीन भारत’ नामक पर्चे निकाले जिसमें अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह का आह्वान किया गया।
दिल्ली-पंजाब के सूरमा और राजपूताना के शेर
दिल्ली में उस समय हरदयाल का जो ग्रुप सक्रिय था उसके प्रमुख नेता थे मास्टर अमीरचंद, लाला हनुमंत सहाय, अवध बिहारी लाल और भाई बालमुकुन्द। इनमें से कई दिल्ली के प्रसिद्ध महाविद्यालय सेंट स्टीफंस कॉलेज से जुड़े हुए थे। कॉलेज के आधिकारिक इतिहासकार डेविड बेकर बताते हैं कि इन लोगों ने कॉलेज के अन्दर 70-80 लड़कों का एक गुप्त संगठन बना लिया था। दिल्ली के अलावा पंजाब और राजपूताना में भी क्रांतिकारी सक्रिय थे। सन 1907 में लाहौर में सरदार अजीत सिंह (भगत सिंह के सगे चाचा) और सूफी अम्बा प्रसाद ने ‘भारत माता सोसाइटी’ की स्थापना की, लेकिन जल्द ही इन दोनों को देश छोड़ कर जाने पर मजबूर होना पड़ा। उनके साथियों ने प्रचार के लिए कई समाचारपत्र निकाले। यूपी के इलाहाबाद में भी ‘स्वराज्य’ और ‘कर्मयोगी’ प्रेस स्थापित की। यह ग्रुप भी बोस के संपर्क में था।
राजपूताना के भीलवाड़ा का बारहठ परिवार पूरी लगन के साथ स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ा हुआ था। परिवार के मुखिया केसरी सिंह क्रांतिकारियों के सहयोगी थे और उन्होंने अपने पुत्र प्रताप सिंह और अपने अनुज जोरावर सिंह दोनों क्रान्ति पर न्योछावर कर दिए। भीलवाड़ा के पड़ोस में जोधपुर रियासत थी जहां भाई बालमुकुन्द नौकरी करते थे। वे भविष्य में गदर पार्टी के नेता बने भाई। वे परमानन्द के सगे भाई थे। बालमुकुन्द की पत्नी भी अत्यंत भावुक महिला थीं। आगे चलकर बालमुकुन्द की शहादत के समय उन्होंने भी अपने प्राण त्याग दिए।
कैसे दिया गया बम कांड को अंजाम
दिसंबर 1911 में ब्रिटिश सम्राट जॉर्ज पंचम ने दिल्ली में एक दरबार लगाया जिसमें हिन्दुस्तान के सभी राजे-रजवाड़ों को आमंत्रित किया और दो महत्वपूर्ण ऐलान किए: बंगाल विभाजन की निरस्तीकरण और राजधानी का कलकत्ता से नयी दिल्ली स्थानान्तरण। ये कदम क्रांतिकारी आन्दोलन को कमजोर करने के लिए उठाए गए थे, जिसका केंद्र उस समय बंगाल था। बंग-भंग की वापसी नरम दल के नेताओं को अपनी ओर करने का एक प्रयास था। अगले साल वायसराय हार्डिंग ने घोषणा की कि वे दिसंबर में एक भारी जुलूस के साथ दिल्ली में प्रवेश करेंगे और अंग्रेजी साम्राज्य का शक्ति प्रदर्शन करेंगे। क्रांतिकारियों के लिए यह खुली चुनौती थी और उन्होंने इसे स्वीकार किया। रासू-दा ने दिल्ली, यूपी, पंजाब और राजपूताना के क्रांतिकारियों के साथ मिलकर एक गुप्त योजना पर काम करना शुरू कर दिया।
आखिरकार ये योजना फलीभूत हुई 23 दिसंबर 1912 को, जब चांदनी चौक के एक मकान की छत से जोरावर सिंह, प्रताप सिंह और बसंत कुमार बिस्वास ने (जो कि एक महिला के वेष में थे) सरेआम हजारों लोगों की उपस्थिति में हार्डिंग के ऊपर बम फेंका। बम के धमाके से हार्डिंग के साथ हाथी पर सवार छत्रपाल मारा गया और स्वयं हार्डिंग और उसकी पत्नी को भी गंभीर चोट आयी। बिस्वास, जोरावर और प्रताप बड़ी आसानी से भीड़ का फायदा उठाते हुए गायब हो गए। इस कार्य को अंजाम देने के लिए रासू-दा बिस्वास को खास देहरादून से लाए थे जहां वे उनके रसोइये के वेश में रहते थे।
अम्बाला में फांसियां
अपने सर्वोच्च अधिकारी पर बम के हमले से, वो भी ऐसे विशेष मौके पर, अंग्रेज सरकार बौखला गई। उसने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया, लेकिन बोस और उनके साथियों को पकड़ नहीं पायी। आखिरकार उसने हार मानकर बम फेंकने वाले को पकड़ने के लिए दस हजार रुपये के भारी-भरकम ईनाम की घोषणा कर दी। फिर भी कई महीनों तक उसके हाथ कुछ नहीं लगा। उलटे क्रांतिकारियों ने लाहौर के लॉरेंस गार्डन में एक और बम धमाका कर दिया। ये कमाल था रासू-दा की प्लानिंग का। वे चुपचाप एफआरआइ जैसे सरकारी संस्थान में अंग्रेजों की नाक के नीचे काम करते रहे। फिर भी कुछ गद्दारों की वजह से अंतत: लाला हनुमंत सहाय, अमीरचंद, बालमुकुन्द, अवध बिहारी और बसंत कुमार बिस्वास पकड़े गए। भीलवाडा के केसरी सिंह भी गिरफ्तार कर लिए गए।
इन लोगों पर दिल्ली षड्यंत्र केस के नाम से मुकदमा चला और 5 अक्टूबर 1914 को फैसला सुना दिया गया। हनुमंत सहाय को सजा-ए-कालापानी मिली, केसरी सिंह को बीस साल की सजा और बाकी चार शूरवीर अगले साल अम्बाला जेल में फांसी पर चढ़ा दिए गए। बस रासू-दा अंत तक पुलिस की गिरफ्त में नहीं आए।
चेतना का संचार
हार्डिंग बम काण्ड ने एक नई क्रांतिकारी चेतना का संचार किया। विदेश में बैठे हरदयाल जैसे क्रांतिकारी जो निराश हो चुके थे, एक बार पुनः सक्रिय हुए और अमेरिका और कनाडा में रह रहे भारतीयों के साथ मिलकर उन्होंने गदर पार्टी (जिसका उस समय नाम था हिन्दुस्तानी एसोसिएशन ऑफ दि पैसिफिक कोस्ट) की स्थापना की। गदर पार्टी के शूरवीरों ने प्रथम विश्व युद्ध आरम्भ होते ही ब्रिटिश साम्राज्य पर हमला बोल दिया और एक बार फिर उन्हें नेतृत्व प्रदान किया हार्डिंग बमकांड के महानायक रास बिहारी बोस ने, जो इस बार भी अंग्रेजों के हाथ न आए।
गदर आन्दोलन के विफल होने के बाद वे जापान चले गए और आगे चलकर वहीं पर उन्होंने आजाद हिन्द फौज की स्थापना की, जिसका नेतृत्व अंतत: नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने संभाला। रासू-दा की मृत्यु एक आजाद मुल्क (जापान) की हवा में सांस लेते हुए 21 जनवरी 1945 को हुई। उनकी मृत्यु के दो साल बाद आखिरकार उसी दिल्ली के लाल किले पर तिरंगा लहराया जिसकी गलियों में कभी उन्होंने बहरों को सुनाने के लिए एक जोरदार धमाका किया था!
लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।
कवर तस्वीर साभार: Shortpedia