उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में 5 सितंबर को हुई किसान महापंचायत के बारे में वर्कर्स यूनिटी पर दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सरोज गिरी के साथ बातचीत प्रकाशित हुई है। वीडियो के बारे में चैनल कहता है कि महारैली की बहुत बड़ी सफलता के बावजूद जनता और किसान नेताओं के बीच एक दूरी नजर आयी। इसी विषय पर यह बातचीत केंद्रित रही।
प्रोफेसर साहब आरोप लगा रहे हैं कि खिचड़ी जल्दी से पकाते क्यों नहीं। प्रोफेसर साहब आतुर हुए जा रहे हैं। पूछ रहे हैं क्या योजना है। मोर्चा कह रहा है कि बिना कानून रदद् किये नहीं जाएंगे। 9 महीना बैठ कर उसने अपने इरादे की मजबूती ही जाहिर की है। उधर आर-पार की लड़ाई लड़ने को तैयार जनता विद्वान प्रोफेसर खोज लेते हैं। वहां मौजूद कार्यकर्ता जो नेता का भाषण सुने बगैर निकल जा रहे हैं और शहर भर में तारी हैं उससे मोर्चे का आकलन भी कर दे रहे हैं। प्रोफेसर लगातार विरोधाभासी बातें कहते हैं।
दरअसल, वो अपनी किसी बेचैनी को मोर्चे के सर मढ़ते दिखते हैं। विद्वान प्रोफेसर का एक दुख ये भी है कि वैसी नहीं है जैसी होती रही है। उनकी यह आलोचना एक मोर्चा और किसी सुगठित पार्टी के भेद को मिटा कर की जा रही है। पार्टी की जिम्मेदारी मोर्चा के सर मढ़ना बिल्कुल भी ठीक नहीं जान पड़ता। भारत में चुनाव को लेकर प्रगतिशील खेमों के भिन्न-भिन्न विचार हैं। संयुक्त मोर्चे की कार्रवाई का आधार चुनाव के प्रति सिर्फ एक नजरिया ही नहीं हो सकता, लेकिन सिर्फ बीजेपी विरोध भी एक सक्रिय राजनीतिक कार्रवाई हो सकती है, जो अलग—थलग कार्रवाइयों को भी प्रेरित करने की संभावना रखती है।
विद्वान प्रोफेसर की नजर में यह आयोजन बुद्धिजीवी किस्म का, सिविल सोसायटी टाइप का आंदोलन हो रहा है। विद्वान प्रोफेसर का यह मूल्यांकन मोर्चे द्वारा लिए जा रहे कार्यक्रम को लेकर है। फिर जनांदोलन किसे कहा जाए? क्या किसी जनांदोलन की शर्त यह हो सकती है कि उसे कार्यक्रम बतौर सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी का सक्रिय चुनावी विरोध नहीं करना चाहिए।
विद्वान प्रोफेसर का कहना है कि जनता के आर-पार कर देने की जनता की ललक खोज लेते ही नेतृत्व जनता से दूर हो जाता है। एक बार फिर मोर्चा-पार्टी के बीच अंतर भुला दिया जाता है।
प्रोफेसर साहब कह रहे हैं लोग फोकस नहीं कर रहे हैं। उठ-उठ कर चले जा रहे हैं। व्यवस्था बना कर रखो कहा जा रहा है मंच से… ये तो उनके मन की चरम खलबलाहट है। हजारों की भीड़ है। किसान चाहते हैं कानून वापस हो जाएं। नहीं होंगे तो बॉर्डर पर ही जमे रहेंगे। आंदोलन अपने उतार—चढ़ाव के कितने रचनात्मक दौरों से गुजरा है कि तमाम बातों के बाद भी देश की राजधानी दिल्ली के तीन बॉर्डरों पर खूंटे गड़े हैं और हरियाणा के करनाल में नये खूंटे गड़ गए हैं।
विद्वान प्रोफेसर इतिहास को परखने की उस विधि का इस्तेमाल नहीं करते दिखते जिसे उन्होंने खुद ही अनगिनत बार पढ़ा-पढ़ाया होगा। कोई दागिस्तानी लेखक-शायर जरूर इस लहजे में कहता कि अगर वीरान सर्द रात में एक अदद चिंगारी के मायने नहीं मालूम तो आप भारी भूल कर रहे हैं। और चिंगारी को भूसे के ढेर पर पटक देने से भी अच्छे नतीजे की उम्मीद करना नासमझी होगी, चिंगारी को सुलगाए रखना सबसे जरूरी है।
विद्वान प्रोफेसर बता रहे हैं कि आंदोलन के फॉर्म में बीजेपी ही नहीं आरएसएस को जड़ से हिला सकने का मौका गंवाया जा रहा है (क्योंकि लोग आर-पार की लड़ाई के लिए खड़े हैं)।
संदीप बता रहे हैं कि किस तरह से मंच बनाया गया, बैठने का इंतज़ाम किया गया, लंगरों की व्यवस्था की गयी, बहुत बड़ी कमेटी बनी है। कई राज्यों और खासकर दक्षिण और पूर्व के राज्यों से लोग आये हैं। प्रोफेसर बता रहे हैं कि आंदोलन ने दिलों की दूरी खत्म कर दी। हलुवा खिलाते मुस्लिम युवकों का वह खास जिक्र करते हैं, फिर पूछ रहे हैं… उस दूरी खत्म होने का कुछ नतीजा आना तो चाहिए! इस दूरी के खत्म होने से क्या हासिल हुआ है यह गंभीर जमीनी शोध का विषय है। एकता के अंडरकरंट को लेकर जनचौक पर प्रकाशित यूसुफ किरमानी की आलोचनात्मक रिपोर्ट भी पढ़ने योग्य है।
इधर 27 सितंबर को भारत बंद के संयुक्त किसान मोर्चा के आह्वान को देश के दस बड़े मजदूर संगठनों ने समर्थन देने का संयुक्त निर्णय लिया है।
बावजूद इन तमाम बातों के विद्वान प्रोफेसर जिस चीज के निकल आने का खुद बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं उसके बारे में भले ही उन्होंने कुछ साफ नहीं किया लेकिन इसके न निकल पाने के लिए मोर्चे को जरूर जिम्मेदार ठहरा देते हैं।
अंत तक भी उस आर-पार को परिभाषित किये बगैर यह साफ नहीं है कि संयुक्त मोर्चे को कृषि कानूनों के रद्द हो जाने की स्थिति में कृषि कानूनों को रद्द करने के लिए उठे आंदोलन को खत्म करने का दोषी न मान लिया जाए।
लेख सामाजिक कार्यकर्ता हैं