चुनाव आते-जाते रहेंगे, लेकिन अब भी न संभले तो कहीं देश के साथ खेला न हो जाए!


खेला होबे और विकास होबे की जबरदस्त टक्कर के मध्य सचमुच खेला हो गया। ममता बनर्जी स्वयं हार गयीं लेकिन उनकी पार्टी ने जबरदस्त जीत हासिल की। यह सचमुच एक ऐसे क्रिकेट मैच का वाकया लगा जहां कप्तान तो शून्य पर आउट हो गया, लेकिन अपने कुशल नेतृत्व से टीम को जीत की दहलीज के पार ले गया। इस चुनाव ने एक बार फिर इस विशाल लोकतंत्र के जनमानस के सम्मुख कई प्रश्नों को विचाराधीन छोड़ा है, लेकिन उनसे सीख कौन लेगा वह अगले दौर में दिखेगा।

भारत के प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, रक्षामंत्री के साथ एक विशाल फौज और अकूत धन लिए भाजपा ने बंगाल चुनावों में अपना सब कुछ झोंक दिया। स्वयं प्रधानमंत्री ने अमर्यादित शब्दों और कटाक्ष से ममता पर शब्दभेदी बाणों की बौछार लगा दी। गृहमंत्री भी कम न रहे, लेकिन परिणाम लोगों के सम्मुख है। यहां गौर करने की बात यह है कि जिस सभ्यता और संस्कृति की दुहाई देते मोदी थकते नहीं है, क्यों उन्होंने अमर्यादित कटाक्ष ममता पर किये? क्या आपने शर्म की सारी दीवारें तोड़ दीं? वाक्यों का विश्लेषण करने वाले विद्वानों का समूह मोदी के आचरण को कभी नहीं सराहेगा। बेशक अभी वो चुप रहे, लेकिन भविष्य में उनके कार्यों को, उनके बातों का और अकर्मण्‍यता का मूल्यांकन अवश्य किया जाएगा।

मीडिया का तो क्या ही कहें, कोई लुट्येन्स मीडिया और कोई गोदी मीडिया पर चर्चा कर रहा है। क्या वास्तव में लुट्येन्स मीडिया है? लुट्येन्स मीडिया अगर है भी तो उसे सरकार विरोधी मानना जल्दबाज़ी और अतिशयोक्ति होगी क्योंकि इसका शाब्दिक तात्पर्य तो लुट्येन्स के लोगों की बात करने वाला मीडिया समूह हुआ, जहां मोदी भी हैं, राहुल भी हैं और वाम के साथ अन्य घटक भी हैं। खुली आँखों से देखने वाले जो शायद भक्त नहीं हैं, वो अवश्य समझ रहे होंगे कि वास्तव में उपरोक्त प्रचलित समूहों में से कौन सा गुट कितना हावी है। बेशक लुट्येन्स में बैठे तमाम लोग सम्पूर्ण भारत के अंतस तक नहीं पहुंच सकते, लेकिन खुद सोचिए कि हमारे तमाम नेता भी वहीं बैठते है और शायद नीचे से ऊपर आने के क्रम में वे औपनिवेशिक मानसिकता धारण कर लेते हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि अब भी हम सामंती समाज के एक आधुनिक स्वरूप के साथ जी रहे हैं और शायद हिंदुस्तान का युवा वर्ग इसमें बदलाव चाहता भी नहीं है। आज भी चुनाव धर्म-जाति और अनेकों रूढ़ धारणाओं पर ही लड़े जाते हैं। क्या हम लोकतंत्र में किसी व्‍यक्ति की पूजा करते हुए अपने मुल्क की तरक्की के बारे में सोच सकते हैं। कदापि नहीं, क्योंकि दुनिया के जिन लोकतंत्रों ने तरक्की के नए मुकामों को हासिल किया, वहां नए विचारों का सृजन अनवरत रूप से हुआ। वहां कभी खोखलेपन की भक्ति नहीं की गयी, अंधानुकरण करते हुए ‘नीरो’ को अपना देवता नहीं माना गया।

हिंदुस्तान की नियति अब कुछ खास लोग तय करते हैं, जिनमें सरकार के दो चेहरे और उनके पीछे प्रमुख मीडिया के 90 फीसदी सहयोगी। शायद वास्तव में वे लुट्येन्स समूह की मौजूदगी को आज के दौर में चरितार्थ करते हैं औऱ अपनी ‘लुट्येन्सता’ के भाव में देश-काल से परे सोचते हुए आगे निकल जाते हैं। गौर से देखने पर इसके कई उदाहरण आपको मिल जाएंगे।

गोदी मीडिया पर भी चर्चा आवश्यक है। यह समूह उभरा ही इसलिए क्योंकि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का प्रतिनिधित्व करने वाले मीडिया ने अपना कार्य-सिद्धांत बदल दिया और सत्ता का गुणगान करना शुरू कर दिया। सत्ता का गुणगान क्या लोकतंत्र में किया जाना चाहिए? बेशक नहीं! यह उस राजतांत्रिक अवधारणा को प्रतिबिंबित करता है जहां स्वयं के फायदे के लिए राज-दरबारी रूप में लोग राजा/शहंशाह की प्रशंसा में रत रहते थे। मीडिया समूहों द्वारा 21वीं सदीं में दुनिया के इस विशाल लोकतंत्र में ऐसा करना, जनमानस की भलाई को नहीं वरन उनकी स्वार्थसिद्धि को दर्शाता है।

खुद सोचिए, कल आये चुनाव परिणाम में ममता बनर्जी की नंदीग्राम में हार को मीडिया ने अपना टैगलाइन बना लिया, लेकिन उनकी पार्टी की ऐतिहासिक जीत और उस जीत के पीछे ममता बनर्जी के कुशल नेतृत्व और उसके जीवट को दरकिनार कर दिया गया। दूसरा पहलू यह भी है कि इस दौर में जब मौत तांडव कर रही है, लोग अस्पतालों में जगह पाने को भटक रहे हैं, सरकार हर मोर्चे पर पस्त नज़र आ रही है, मीडिया उसकी सराहना में लगा हुआ है। क्या यही उनका वास्तविक कार्य है? क्यों नहीं वो वास्तविक आंकड़ों को सामने लाने के लिए हल्ला बोल रहे हैं?

ऐसे वीभत्स दौर में जब लोग स्वयं एक-दूसरे की मदद के लिए आगे आ रहे हैं (दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू, जामिया के छात्र, गुरुद्वारों से जुड़े बिरादर और अन्य), ऐसे में सरकार के इस महामारी से लड़ने के इंतज़ामात क्या हैं- जैसे सवाल मीडिया सरकार से क्यों नहीं पूछ रहा है? ताली-थाली बजाने से और दिया जलाने से, चुनावों के लिए बहुरूपिया बन जाने से देश की तरक्की नहीं हो सकती। क्या सचमुच मंदिर-मस्जिद हमारा समाधान और भविष्य है या नए विचारों की सृजनस्थली विद्यालय, विश्वविद्यालय और चिकित्सालय और शोध संस्थान, जहां से हमारा मुल्क़ तरक्की के हर पैमाने को छू सकता है?

चुनाव आते-जाते रहेंगे, लेकिन इसके मध्य गौर करने वाली बात यह है कि अगर हम अब भी नहीं संभले तो कहीं देश के साथ ही खेला न हो जाए। सभी राज्यों के सभी विजित-पराजित प्रत्याशियों को हार्दिक शुभकामनाएं।


लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में शोधार्थी हैं


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