आज बीस दिन हो गए। रोज का काफी समय प्रवासी मजदूरों के साथ उनके झुग्गियों के बाहर गुजरता है जिनमें अधिकतम लोग छत्तीसगढ़ के मजदूर हैं। इनको लाने वाले ठेकेदार गायब हैं। हाल खबर लेने वाला कोई नहीं है। नगर निगम की खाना बांटने वाली हरे रंग की गाड़ी इनके काले-नीले तिरपालों से बनी झोपड़ियों की तरफ कभी झांकती भी नहीं। राशन-किरासन की बात तो बेईमानी होगी।
कांग्रेस पार्टी की तरफ से चलने वाली साझी रसोई की पूड़ी सब्जी इन तक हम लोग रोजाना पहुंचाते हैं। यह कहानी मैं अभी दूसरी तरफ घुमा रहा हूं। ग़मो-गुबार की बातों से शायद बहुत लोगों को मतलब नहीं है।
पहली कहानी
दोपहर का कोई दो बजा होगा कि अचानक फोन बजा। दूसरी तरफ से एक महिला ने कहा− बीबीडी के पास के अपार्टमेंट से बोल रहीं हूं। सौ पैकेट राशन पहुंचा दीजिए। बहुत ज़रूरत है।
मैंने पूछा कि क्या आपको ज़रूरत है?
उन्होंने थोड़ा तल्ख़ स्वर में कहा− नहीं। पर जरूरतमंद लोग हैं। आप मदद करेंगे कि नहीं?
तीस मिनट बाद हम एक आलीशान बिल्डिंग के नीचे खड़े थे। फ़ोन करने वाली महिला अपने पति और आइफ़ोन से लैस होकर नीचे आई।
किनको देना है? जैसे ही मैंने यह पूछा, उस महिला ने दूसरी महिला को तंज कसते हुए कहा− बहन जी आप तो कुछ कर नहीं रही हैं। देखिए, आज गार्ड्स और कामवालियों को राशन बंट जाएगा।
असली बात सामने आ गयी। कुछ मिलाकर वह महिला अपना भौकाल बना रही थी। फ्री का आटा, फ्री का घी।
हम कुछ बोलते कि महिला के पति ने चमचमाते आइफोन के कैमरे को उसकी तरफ घुमा दिया। कैमरा घूमा भी नहीं था कि हमारे एक वरिष्ठ साथी ने कहा− एकदम फ्रॉड हो क्या महराज? अगर अपने गार्ड्स को खाना नही दे सकते, काम करने वाली महिलाओं को खाना नहीं दे सकते तो यह फोटो खींचने की हिम्मत कैसे कर रहे हैं?
दूसरी कहानी
लखनऊ मुख्यालय से करीब 15 किलोमीटर दूर। एक शांत सी कालोनी। शांत सी चौड़ी सड़क के किनारे रात को लगभग 12 बजे एक महिला दो बच्चों के साथ चिल्ला-चिल्ला कर कह रही थी- गरीब का कोई नहीं है। दिन भर काम करो, रात को लाइन काट देता है।
बातचीत शुरू हुई तो पता चला कि बिलासपुर के रहने वाले इन लोगों को ठेकेदार छोड़कर चला गया। एक इंजीनियर महोदय ने इन्हें अपने घर के सामने रोक लिया। काली सी प्लास्टिक लगाकर ये मजदूर वहीं रहने लगे। एक दिन भी नहीं बीता था कि सामने पड़े बरसों पुराने ईंटों के ढेर की सफाई में उन्हें लगा दिया और कहा कि खाली पड़े हो काम करो, फ्री में यहां नहीं रह सकते।
दो दिन बाद रात को इंजीनियर साहब उनकी लाइट काटने लगे। फिलहाल तड़के सुबह इंजीनियर साहब पर ‘हल्का बलप्रयोग’ करना पड़ा। अब मामला दुरुस्त हो गया है।
तीसरी कहानी
लखनऊ का विराज खण्ड।अधिकारियों, नेताओं, मीडियाकर्मियों और ठेकेदारों का अड्डा। थोड़ा भदेस भाषा में कहूं तो लूट का ठीहा।
अच्छे लोग भी रहते हैं, पर गिलास अभी खाली है। इसी नज़र से देखिए। यहां भी छत्तीसगढ़ के प्रवासी मजदूर रहते हैं। कल एक ठेकेदार ने पुलिस बुला ली। आरोप था कि मजदूर वहां गंदगी फैला रहे हैं। इन्हें भगाओ।
जिन लोगों ने चुन-चुन कर इमारतें बनायीं अब उनको इन इमारतों का पिछवाड़ा भी मयस्सर नहीं हो रहा है। यह क़िस्सा आपका दिल दहला देगा।
महिला मजदूरों का कहना है कि इन बड़ी-बड़ी इमारतों से लोग शौच करती मजदूर महिलाओं का वीडियो बनाते हैं।
अंतिम कहानी
और अंत में एक मासूम फरिश्ते की कहानी। एक छोटा सा लड़का है, भरत। 12 साल का होगा। रोज लोगों की मदद करता है। हम लोगों के साथ मिलकर लाइन लगवाता है। खाना बांटने में मदद करता है। कभी-कभी खाना खत्म होने पर मुस्कुराहट के साथ कहता है कि कोई बात नहीं, आज दीदी में से खा लूंगा।
रोजाना रात को फेसबुक की दीवार पर सिर मारता हूं। देखता हूं कि आप गमछा चैलेंज दे रहे हैं। साड़ी चैलेंज दे रहे हैं। क्या कहते हैं वो हैशटैग! 20 साल वाला। फोटो से फेसबुक की दीवार रंग देते हैं। कोई सोहर गाता है, कोई ग़ज़ल आज़माइश कर रहा है। कुत्ता-बिलार कुछ न छूटे, सबके साथ किसिम किसिम का पोज़ मारते हैं।
आप सभी अच्छे दोस्त हैं। आगे भी रहेंगे। मजदूरों के पक्ष में बोलते हुए आपकी गर्दन की फूलती नसें मुझे याद हैं। हवा में उछली हर तमतमायी मुट्ठी याद है। आपकी आंखों का गुस्सा याद है।
पर माफ करना दोस्त! देश का मजदूर संकट में है और इस विपदा में आपने अपने हाथों से अपना नक़ाब हटा दिया है।
कवर फोटोः अविनाश