केन्द्रीय राजसत्ता हर खेल कितना वीभत्स तरीके से खेलने लगी है इसका छोटा सा उदाहरण प्रताप भानु मेहता हैं। प्रताप भानु मेहता को कल अशोक विश्वविद्यालय से इस्तीफा दे देना पड़ा। अशोक विश्वविद्यालय दिल्ली एनसीआर स्थित देश के कुछ गिने-चुने निजी विश्वविद्यालयों में एक है जहां अमीर घरानों के बच्चे औसतन कम से कम दस लाख रुपया सालाना फीस देकर पढ़ते हैं। इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक प्रताप भानु मेहता ने अपने इस्तीफे की पुष्टि की है, लेकिन इस्तीफा देने का कारण नहीं बताया है। अखबार ने इस बाबत जब विश्वविद्यालय प्रशासन से पूछा कि क्या मेहता के इस्तीफे के पीछे सरकारी दबाव था तो विश्वविद्यालय ने इस पर चुप्पी साध ली।
प्रशासन की इस चुप्पी के बाद जब अखबार के संवाददाता ने यही सवाल ईमेल करके विश्वविद्यालय की गवर्निंग बॉडी के पांच सदस्यों- वाइस चांसलर मालविका सरकार, चांसलर रुद्रांषु मुखर्जी, बोर्ड ऑफ द ट्रस्टी के चेयरमैन आशीष धवन और फॉउंडर ट्रस्टी विनीत गुप्ता व फॉउंडर प्रमार्थ राज सिन्हा से पूछा तो चांसलर रुद्रांषु मुखर्जी के अलावा किसी ने इसका जवाब नहीं दिया। वैसे चांसलर रुद्रांषु मुखर्जी ने जो जवाब दिया वह भी कम मजेदार नहीं है। मुखर्जी ने कहा कि एक चांसलर के रूप में इनका दायित्व प्रशासनिक काम देखना नहीं है।
प्रताप भानु मेहता मोदी के सत्ता में आने से पहले मनमोहन सिंह सरकार के कटु आलोचक व नरेन्द्र मोदी के समर्थक थे। उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में ही लेख लिखकर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ की थी, लेकिन दादरी में मोहम्मद अखलाक की हत्या के बाद उन्होंने अपने लेख में इसके लिए नरेन्द्र मोदी को वैचारिक रूप से दोषी ठहराया था।
आज से दो साल पहले मैंने प्रताप भानु मेहता पर मीडियाविजिल के लिए एक लेख लिखकर बताया था कि मेहता कैसे एक पब्लिक इंटिलेक्चुअल की भूमिका निभा रहे हैं। प्रताप भानु मेहता को अशोक यूनिवर्सिटी से हटाये जाने के बाद उस लेख को एक बार फिर से पढ़ा जा सकता है क्योंकि वह लेख आज के दिन और प्रासंगिक हो गया है।
प्रताप भानु मेहता और हमारे पब्लिक इंटिलेक्चुअल्स
प्रताप भानु मेहता देश के सबसे बड़े पब्लिक इंटिलेक्चुअल में से एक हैं, हालांकि उनका दूसरा परिचय भी है। वह इतिहासकार रामचन्द्र गुहा के बाद देश के दूसरे बड़े इंटिलेक्चुअल थे जिन्होंने गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को फासिस्ट मानने से इंकार कर दिया था। इसी सिरीज़ में तीसरे इंटिलेक्चुअल ब्राउन यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय हैं, जो मानते थे कि मोदी न फासिस्ट है और न ही उनमें इस तरह के कोई लक्षण हैं। सबसे अंत में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पूर्व महासचिव प्रकाश करात ने कहा था कि मोदी फासिस्ट नहीं हैं, बल्कि ऑथरिटेरियन (तानाशाह) जैसे हैं।
हां, मार्के की बात यह है कि प्रकाश करात ने यह बात मोदी के प्रधानमंत्री बनने के दो साल बाद कही थी, जबकि उन तीनों ने यह बातें तब कही थीं जब मोदी देश के सर्वोच्च पद के लिए हर पल इंच दर इंच आगे बढ़ रहे थे।
अब प्रताप भानु मेहता को यह अहसास हुआ है कि मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद लोकतांत्रिक स्पेस काफी कम हुआ है, हर संस्थान को नुकसान हुआ है मतलब यह कि लोकतंत्र खतरे में है। यह बात उन्होंने पिछले दिनों इंडिया टुडे कॉनक्लेव में खुलकर कही। उसी इंडिया टुडे कॉनक्लेव के उसी मंच से, जहां से थोड़ी देर पहले मोदी यह कहकर निकले थे कि उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत का विदेश में डंका बजने लगा है।
इन तीनों बुद्धिजीवियों ने बार-बार लेख लिखकर कहा था कि मोदी को फासिस्ट कहना गलत होगा। यह सैद्धांतिकी शायद उन लोगों ने इस रूप में गढ़ी थी क्योंकि उनका मानना था कि आर्थिक राष्ट्रवाद सबसे बड़ा मसला है जो कांग्रेस और बीजेपी के अलावा किसी और क्षेत्रीय दल के पास नहीं है। उस समय तक कांग्रेस पार्टी डॉक्टर मनमोहन सिंह के नेतृत्व में अपनी चमक खो चुकी थी, भ्रष्टाचार अपने चरम पर था। ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार आज कम हुआ है। कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी, पी चिदंबरम जैसे नेताओं का अहंकार टीवी पर दिन में बार-बार दिखता था, मनमोहन सिंह की चुप्पी भयावह थी, अन्य कारणों के अलावा राहुल गांधी में आज के दिन वाली राजनीतिक परिपक्वता नहीं दिख रही थी। परिणामस्वरूप देश में बदलाव की बात बहुत गहराई से महसूस की जाने लगी।
इसके लिए एक समानांतर नैरेटिव की जरूरत पड़ी जो तथाकथित रूप से देश का विकास और ‘सबके’ आर्थिक हितों का पोषण कर रहा हो। इसके लिए इन विद्वतजनों ने तथ्यों को गढ़ना शुरू किया। नरेन्द्र मोदी के ऊपर 2002 में गुजरात में दंगा करवाने का खुलेआम आरोप था, हालांकि कोई साक्ष्य मिले नहीं थे। तब तक नरेन्द्र मोदी की छवि एक दंगाई और अल्पसंख्यक विरोधी के रूप में स्थापित हो चुकी थी, लेकिन राजनीति को जानने वाले समझते हैं कि राजनीति परसेप्शन के आधार पर चलती है। इसलिए जब तक उस छवि को एक विकास पुरुष के रूप में नहीं पेश किया जाता तब तक वे कांग्रेस की काट नहीं हो सकते थे।
देश परिवर्तन के लिए तैयार था। 2011 के अन्ना आंदोलन से यह स्थिति बन गई थी कि मनमोहन सिंह की सरकार काफी कमजोर व भ्रष्ट है जिसे बहुसंख्य जनता ने मान भी लिया था। 2012 में मोदी की जीत ने उन्हें कॉरपोरेट व कॉरपोरेट मीडिया की मदद से ‘विकास पुरूष’ बनने का अवसर दिया जिसमें इन विद्वानों ने महती भूमिका निभाई।
नरेन्द्र मोदी को लेकर थोड़ा बहुत शक तब भी देश के लिबरल लोगों में था। इस शुबहे को रामचंद्र गुहा, प्रताप भानु मेहता और आशुतोष वार्ष्णेय जैसे लोगों ने फासिस्ट न होने का सर्टिफिकेट देकर खारिज कर दिया। परिणामस्वरूप जिस नरेन्द्र मोदी की स्वीकृति पढ़े-लिखे जेनुइन लिबरल लोगों के घरों में नहीं थी, वहां भी हो गई। लेकिन बात सिर्फ इतनी भर नहीं है। इस देश का सवर्ण व मध्यम वर्ग पूरी तरह से बीजेपी को आत्मसात करने के लिए तैयार बैठा था, थोड़ी बहुत झिझक उन उदारपंथियों के मन में जरूर थी जो नेहरूवियन विचारधारा की छत्रछाया में पले-बढ़े थे। इन लोगों की वैचारिकी ने उन्हें मोदी को विकास पुरूष स्वीकार करने में मदद पहुंचायी। कॉरपोरेट व कॉरपोरेट मीडिया ने कभी गुजरात की कोई ऐसी कहानी नहीं लिखी जिससे नरेन्द्र मोदी के विकास के दावे को चुनौती दी जा सके।
इसी का परिणाम था कि मोदी सवर्ण मध्यम वर्ग का सितारा तो पहले से थे, इन लोगों के वैचारिक समर्थन से उनका विरोध करने वाला भी कोई नहीं बचा। नरेन्द्र मोदी के सत्ता में आने के बाद कम से कम उन तीनों बुद्धिजीवियों को लगने लगा कि जिस आर्थिक राष्ट्रवाद के आधार पर उन्होंने उनका समर्थन किया था वह उनमें नहीं है। प्रताप भानु मेहता को शायद यह बात सबसे अधिक लगी। अखलाक की हत्या के बाद प्रताप को अहसास हुआ कि आर्थिक राष्ट्रवाद का बीजेपी के पास भले ही कोई मॉडल रहा हो, लेकिन सामाजिक रूप से अल्पसंख्यकों के लिए यह व्यक्ति उपयुक्त नहीं है। उन्होंने 3 अक्टूबर 2015 को इंडियन एक्सप्रेस में अखलाक की हत्या के बाद एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक था: Dadri reminds us how PM Narendra Modi bears responsibility for the poison that is being spread (दादरी हमें याद दिलाता है कि जहर फैलाने के लिए किस तरह प्रधानमंत्री मोदी जिम्मेदार हैं)
कहा जाता है कि प्रताप भानु मेहता के लिखे इस लेख से काफी विचलित थे। इसी लेख के मद्देनजर पीएमओ ने प्रताप भानु मेहता को यह कहते हुए तलब किया कि प्रधानमंत्री मोदी उनसे मिलना चाहते हैं। नियत समय पर प्रताप भानु मेहता 7, रेसकोर्स रोड (तत्कालीन, अब लोक कल्याण मार्ग) पर पहुंचे। वहां पता चला कि प्रधानमंत्री किसी रैली को संबोधित करने चले गए हैं। फिर भी, वहां किसी नौकरशाह ने प्रताप को बताया कि प्रधानमंत्री आपके लिखे हुए लेख से काफी नाराज हैं, आप जब भी कुछ लिखें तो यह ध्यान में रखें।
माना जाता है कि यह प्रताप भानु मेहता के इंटिलेक्चुल कैरियर का टर्निंग प्वाइंट था। उन्होंने फैसला किया कि वह हर हाल में वही लिखेंगे जो उन्हें उचित लगेगा। और यही कारण है कि वह लगातार अपने मन की बात लिखते और बोलते रहे।
इंडिया टुडे कॉनक्लेव में उन्होंने कहाः
एक बात तो साफ़ है कि भारतीय लोकतंत्र ख़तरे में है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि लोकतंत्र बचेगा भी या नहीं। पिछले कुछ साल में जो माहौल बना है उससे बीते 10-15 सालों में जो उम्मीदें जगाई थीं वो सब दांव पर लगा हुआ है। मुझे ऐसा लग रहा है कि हमारे लोकतंत्र के साथ कुछ ऐसा हो रहा है जो लोकतांत्रिक आत्मा को ख़त्म कर रहा है। हम गुस्से से उबलते दिल, छोटे दिमाग और संकीर्ण आत्मा वाले राष्ट्र के तौर पर निर्मित होते जा रहे हैं। लेकिन क्या भारतीय लोकतंत्र में आपने पहली बार यह महसूस नहीं किया है कि ज्ञान के उत्पादन का उद्देश्य सत्य नहीं है। पब्लिक डिस्कोर्स का ऐसा ढांचा बनाया जा रहा है जो सोचने की समझ की ज़रूरत को पूरी तरह ख़त्म करता है। ये झूठ और मिथ्या नहीं है। आप सोचिए नहीं, सवाल मत पूछिए वरना आप एंटी नेशनल हैं, तो सत्य भी गया।
लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। फिर भी, प्रताप भानु मेहता हर हफ्ते इंडियन एक्सप्रेस में कॉलम लिखते हैं और पब्लिक इंटिलेक्चुअल होने का अपना धर्म लगातार निभाते हैं। उन्होंने उस हर वह बात काफी शिद्दत के साथ कही है जैसा वह महसूस करते हैं। और आज तो स्थिति वहां पहुंच गई है जब वह मानने लगे हैं कि पिछला पांच साल भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे खतरनाक रहा है।
(कवर तस्वीर इंडियन एक्स्प्रेस से साभार प्रकाशित है)