नागरिक अधिकार कार्यकर्त्ताओं को जेल में भेजने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर


भारत के सुप्रीम कोर्ट ने 16 मार्च, 2020 को नागरिक अधिकार कार्यकर्त्ता प्रो. आनन्द तेलतुम्बड़े और गौतम नवलखा के एण्टीसिपेटरी बेल पिटीशन को खारिज करते हुए 6 अप्रैल, 2020 को उन्हें पुलिस के समक्ष आत्मसर्पण करने का निर्देश दिया। इस फैसले के खिलाफ दायर किए गए रिव्यू पिटीशन की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में 8 अप्रैल को की गई। इस पिटीशन में कोविड 19 महामारी को देखते हुए यह अपील की गई थी कि इन दोनों की गिरफ्तारी को 7 सप्ताह तक और रोका जाये। इस पिटीशन को भी खारिज कर दिया गया और उन्हें बाम्बे हाईकोर्ट के समक्ष आत्मसमर्पण करने के लिए केवल एक सप्ताह का समय दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने यह भी कहा कि ‘हम स्पष्ट करते हैं कि इस समय का और आगे विस्तार नहीं किया जायेगा।’ इस आदेश में न तो कोविड 19 महामारी और न ही 65 साल से अधिक उम्र को दोनों व्यक्तियों के स्वास्थ्य और वैश्विक स्वास्थ्य संकट के समय में जेलों की अत्यधिक भीड़ को ही संज्ञान में लिया गया। इस आदेश की भाषा यह दर्शाती है कि देश की जनता की वास्तविकताओं के प्रति न्यायालय कितना विवेकशून्य है। जमानत की अर्जी को खारिज करना और महामारी के बीच आत्मसमर्पण का आदेश देना भारतीय न्यायपालिका का ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व फासीवादी राज्य के प्रति अधीनता को दिखाता है। दोनों नागरिक अधिकार कार्यकर्त्ताओं को यूएपीए जैसे कठोर कानून एवं आईपीसी की कई अन्य संगीन धाराओं के तहत आरोपित किया गया है और यह बताया गया है कि वे 1 जनवरी, 2018 को भीमा कोरेगांव (महाराष्ट्र) में हुई ‘हिसां’ में कथित रूप से शामिल रहे हैं। ध्यान देने की बात है कि दोनों में से कोई भी उस दिन भीमा कोरेगांव में उपस्थित नहीं थे और उनका एलगार परिषद द्वारा आयोजित शौर्य दिवस प्रेरणा अभियान से कोई रिश्ता भी नहीं था।

महाराष्ट्र पुलिस द्वारा यूएपीए लगाने और सुप्रीम कोर्ट द्वारा जमानत की अर्जी को खारिज करने की कार्रवाई को वर्तमान शासन की सामन्य नीति के साथ ही देखा जाना चाहिए, जिसके तहत ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व फासीवाद विरोधी किसी भी असहमति की आवाज को दबाया जाता है। भीमा कोरेगांव कार्यक्रम के बाद शिक्षाविदों, कार्यकर्त्ताओं, पत्रकारों, वकीलों, छात्रों एवं ट्रेड यूनियनिस्टों पर निशाना साधना और वहां हिंसा करने वाले संभाजी भिड़े एवं मिलिंद एकबोटे को दोषी नहीं बनाना आरएसएस, बीजेपी और महाराष्ट्र पुलिस जैसे उनके चमचे एवं न्यायपालिका के एजेण्डा को उजागर करता है।

भीमा कोरेगांव का कार्यक्रम, जिसने महाराष्ट्र में आदिवासियों, दलितों मुस्लिमों एवं दूसरे उत्पीड़ित समूहों की व्यापक एकता को दिखाया, आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र स्थापित करने की परियोजना के लिए एक गंभीर चुनौती बना। उसके बाद भीमा कोरेगांव के नाम पर आतंक का माहौल बनाने के लिए भारतीय कानून व्यवस्था और गैर न्यायिक जन विरोधी कानूनों का भरपूर इस्तेमाल किया गया। राज्य द्वारा वैसे नागरिक अधिकार कार्यकर्त्ताओं की गिरफ्तारी की गई जो राजकीय उत्पीड़न के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं।

प्रो. आनन्द तेलतुम्बड़े एक नागरिक अधिकार कार्यकर्त्ता हैं। वे गोवा इंस्टीच्युट ऑफ मेनेजमेंट के एक प्रोफेसर और कमिटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स, महाराष्ट्र के महासचिव हैं। वे लगातार सरकार के जन विरोधी नीतियों के खिलाफ लिखते रहे हैं। भारतीय राज्य के ब्राह्मणवादी चरित्र के ऊपर किये गए उनके काम को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है। इसी तरह गौतम नवलखा इकानॉमिक एंड पलिटिकल वीकली पत्रिका के सलाहकार सम्पादक हैं और उन्होंने भारत की सुरक्षा एवं सरकार की कश्मीर नीति के खिलाफ काफी कुछ लिखा है। वर्तमान राजनीतिक परिस्थित के बारे में उनकी समीक्षा और पीप्लस यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स में किये गए उनके काम मजदूरों के शोषण, आदिवासियों पर हो रही हिंसा, धार्मिक अल्पसंख्यकों पर उत्पीड़न को उजागर करती है, और उसमें भारतीय समाज के गहरे बिखराव की झलक मिलती है। प्रो. आनन्द तेलतुम्बड़े और गौतम नवलखा की तीखी आलोचनाओं ने ही राज्य के गुस्से को सामने लाया है।

सभी जगहों पर असहमति की आवाजों को दबाना अधिनायकवादी सरकारों का पुराना हथकंडा रहा है। भीमा कोरेगांव में गिरफ्तारी की शुरूआत जनवरी 2018 में रिलायंस एनर्जी लिमिटेड के मजदूरों एवं मजदूर नेताओं से हुई। इसके बाद अप्रैल 2018 में कई कार्यकर्त्ताओं के ठिकानों पर पुलिस छापेमारियां हुईं ओर तब अरूण फरेरा, महेश राउत, रोना विल्सन, शोमा सेन, सुधा भारद्वाज, सुधीर धवले, सुरेन्द्र गाडलिंग, वरवरा राव एवं बरनॉन गोन्जाल्वस को जून एवं अगस्त 2018 में गिरफ्तार किया गया। अक्तूबर 2019 में, महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार के बाद अचानक भीमा कोरेगांव मुकदमा को महाराष्ट्र पुलिस से ट्रांसफर कर कुख्यात राष्ट्रीय जांच एजेन्सी को सौंप दिया गया। यह कार्रवाई भाजपा नीत केन्द्र सरकार के दुष्ट इरादों का दर्शाती है।

उक्त 9 कार्यकर्त्ताओं की गिरफ्तारी और जेलबंदी उनके बुनियादी अधिकारों एवं असहमति की आवाजों पर क्रूर हमला है। कोविड 19 महामारी के फैलने के बावजूद उनकी जेलबंदी इस तथ्य का इशारा करता है कि परिस्थितियां चाहे जो भी हो, राजकीय दमन जारी रहेगा। प्रो. आनन्द तेलतुम्बड़े और गौतम नवलखा को गिरफ्तार करने के प्रयास को इसी संदर्भ में देखना चाहिए। आज, बिना किसी चेतावनी एवं तैयारी के पूरे देश में लाकडॉउन को लागू किया जा रहा है। इससे कमजोर आर्थिक साधनों एवं सामाजिक रूप से हाशिये पर रहने वाली जनता की विशाल आबादी के सामने महामारी के संक्रमण एवं भूखमरी का दोहरा भय पैदा हुआ है। ऐसी स्थिति में राज्य की भूमिका अकर्मण्यता एवं अहिष्णुता की रही है। इसी समय भाजपा नीत केन्द्र सरकार और इसकी महाराष्ट्र पुलिस, एनआईए और न्यायपालिका ने ओवरटाइम काम करके प्रो. आनन्द तेलतुम्बड़े और गौतम नवलखा को जेल भेजने और अन्य सभी राजनीतिक बन्दियों को जेल में ही रखने को सुनिश्चित की है। ऐसा ही प्रो. शोभा सेन और कवि वरवरा राव (दोनों काफी उम्रदराज हैं और कई प्रकार की बीमारियों से ग्रस्ति भी हैं) के मामलों में भी देखा जा रहा है। इन दोनों को जेल में कोविड 19 वायरस का संक्रमण हो सकता है, फिर भी उन्हें जमानत नहीं दी गई है या पैराले पर छोड़ा नहीं गया है। दिल्ली विश्वविद्यालय के अंगेजी विभाग के प्रोफेसर जी.एन. साईबाबा 90 प्रतिशत शारीरिक रूप से अपंग हैं। वे कई प्रकार की बीमारियों के भी शिकार हैं। उन्हें भी कोविड 19 के संक्रमण का खतरा है। उन्हें जेल में जरूरी दवायें भी उपलब्ध कराई नहीं जा रही है। ऐसी हालत में उनका जेल में बन्द रहना उनके लिए मौत की सजा के बराबर है। केन्द्र सरकार और महाराष्ट्र पुलिस की इस उदासीनता से जाहिर होता है कि वे असहमति की आवाजों को बन्द करने हेतु सारे प्रयास कर रही है।

इसके अलावा, इस पर ध्यान देना चाहिए कि इस संकट की घड़ी में भाजपा नीत सरकार और राज्य सरकारों ने उन सभी दूसरों पर हमले तेज कर दिये हैं, जो हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के मार्ग में बाधा पैदा कर रहे हैं। मनगढ़त आरोपों के तहत कठोर कानून के तहत डॉ. काफील खान, मीरन हैदर (जामिया मीलिया के एक छात्र), अखिल गोगोई की गिरफ्तारियां और सरजील इमाम और खालिद सैफी की लगातर जेल बन्दी ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व फासीवादी राज्य के गैर जनवादी एवं प्रतिशोधी चरित्र को अच्छी तरह स्पष्ट करता है। जबकि विभिन्न वर्गों, जातियों, समुदायों और संस्कृतियों की व्यापक एकता सीएए विरोधी कार्यक्रमों के जरिये प्रदर्शित हुई है, इन कार्यक्रमों पर पुलिस द्वारा किये गये हमलों ने उनके भगवाकरण को दिखाया है। पुलिस के साथ-साथ नागरिक प्रशासन एवं न्यायपालिका के  भगवाकरण में भी वृद्धि हुई है। खासकर, फरवरी 2020 में दिल्ली के कुछ मुस्लिम इलाकों में किये गए साम्प्रदायिक हमलों में यह बात उभरकर सामने आई है। ज्ञात हो कि इस हमलों में हजारों लोग बेघर हुए हैं जो भोजन एवं अवास की समस्याओं से रूबरू हैं।

राजकीय दमन विरोधी अभियान (सीएएसआर) सभी जनवादी संगठनों और व्यक्तियों को एक साथ आने का आह्वान करता है और प्रो. आनन्द तेलतुम्बड़े और गौतम नवलखा को कोर्ट द्वारा राहत नहीं देने की निन्दा करता है। यह अभियान असहमति और जनवाद की सभी आवाजों के प्रति एकजुटता जाहिर करता है और सभी राजनैतिक बन्दियों की तत्काल रिहाई की मांग करता है। संकट की इस घड़ी में हमारी एकता अत्यावश्यक है और अन्याय के समय में हमें आवाजविहीन बनाने की कोशिश के खिलाफ अपनी चुप्पी तोड़नी भी जरूरी है।

एकजुट होकर मांग करें :

  1. प्रो. आनन्द तेलतुम्बड़े और गौतम नवलखा की गिरफ्तारी को तत्काल स्थगित किया जाये।
  2. खासकर कोविड 19 महामारी को देखते हुए सभी राजनीतिक बन्दियों को पूरे देश की जेलों से तत्काल रिहा किया जाये।
  3. जेलों की भीड़ कम करने के लिए सभी अंडरट्रायल बन्दियों और मामूली आरोपों में सजायाफ्ता बन्दियों को तत्काल रिहा किया जाये।
  4. भीमा कोरेगांव में हिंसा को भड़काने वाले संभाजी भीडे और मिलिंद एकबोटे के खिलाफ कार्रवाई (कोविड 19 की सख्ती के आलोक में) की जाये।
  5. यूएपीए, एनएसए, पीएसए और दूसरे सभी कठोर कानूनों को रद्द किया जाये।

 

कम्पेन अगेंस्ट स्टेट रिप्रेशन

आयोजक टीम : एआईएसएस, एमआईएसएफ, एपीसीआर, बीएएसओ, भीम आर्मी, बिगुल मजदूर दस्ता, बीएससीईएम, सीइएम, सीआरपीपी, सीसीएफ, दिशा, डीआईएसएससी, डीएसयू, आईएसपीएल, आईएमके, कर्नाटक जन शक्ति, केवाईएस, लोकपक्ष, एलएसआई, मजदूर अधिकार संगठन, मजदूर पत्रिका, एनएपीएम, एनबीएस,, एनसीएचआरओ, नवरूज, एनटीयूआई, पीप्लस वाच, रिहाई मंच, समाजवदी जन परिषद, सत्यशेधक संघ, एसएफआई,, यूनाइटेड अंगेस्ट हेट, डब्ल्यूएसएस)

8 अप्रैल 2020


About जनपथ

जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

View all posts by जनपथ →