आखिर करता क्या बेचारा!


(1)

इंटनेशनल कम्यून की तर्ज पर

वो इंटरनेशनल इलीट का हिस्सा था

मगर उसने

तीसरी दुनिया के चौथे दर्जे के देश

भारत में किया रहना स्वीकार

आखिर करता क्या बेचारा!

(2)

दिल्ली में रहते हुए खुर्दबीन से

बस्तर में देखता था विप्लव की आग

जंतर-मंतर पर कभी-कभार देता था तक़रीर   

मगर दिल लगाने के लिए

इंद्रप्रस्थ के सबसे मशहूर अड्डों पर

बिताता था अपनी हर शाम

आखिर करता क्या बेचारा!

(3)

खुद को मानता था 

गणेश शंकर विद्यार्थी का अवतार   

सांप्रदायिकता के खिलाफ हर मोर्चे पर

दिल्ली से लेकर न्यूयॉर्क तक तक

भांजता था आयातित तलवार 

मगर पीता ही था वो

दुनिया की सबसे महंगी शराब

आखिर करता क्या बेचारा!

(4)

गंगा-जमुनी तहज़ीब को बचाने के लिए

उर्दू से हिंदी का शरबत बनाकर  

होठों से नित्य करता था प्यार

राषट्रभाषा के वर्चस्व के खिलाफ भी

उसने छेड़ रखी थी एक महान जंग

मगर अंग्रेजी ही थी उसकी मादरे जबान

आखिर करता क्या बेचारा!

(5)

 सदरी में उसके थी कमाल की सादगी 

बिखरे सफेद बालों में थी सर्वहारा की छाप

हज़ारों का बिल चुकाकर

दाढ़ी में लगवाता था क्रांति का खिजाब

मगर पंच-सितारा से नीचे

नहीं करता था पेशाब

आखिर करता क्या बेचारा!

(6)

कंधों में था उसके संविधान का बेताल

आंखों में उसने जला रखी थी

सेक्युलरिज्म की मशाल

दाएं सीने में था उसके

अभिव्यक्ति की आज़ादी का गोदना                     

मगर इन सबसे 

नहीं था उसका कोई काम

आखिर करता क्या बेचारा!

(7)

 फैज़-फराज़ का था भक्त

शेर-ओ-शायरी में करता सोवियत क्रांति की बात

पत्रकारिता के भले के लिए उसने

लिया था जनवाद का अवतार

मगर भ्रष्ट नेताओं, एनजीओ की सोहबत से

उसे नहीं था इनकार

आखिर करता क्या बेचारा!

(8)

यौन स्वतंत्रता का प्रबल समर्थक

नारीवाद का हर पाठ उसने कर रखा था याद

बिलकिस बानो को देखकर

उसकी आंखों से निकल गए थे आंसू

मगर सरेआम टीवी पर 

एक स्त्री के अपमान के बाद 

उसने बदल ली अपनी जबान 

आखिर करता क्या बेचारा!

पुनश्च  

संदर्भ हर किसी को है ज्ञात  

कवि रहना चाहता है अज्ञात

हिंदुस्तान की बर्बादी के वक्त

मूल्यों से समझौता करने के लिए

इतिहास उसे नहीं करेगा माफ

कुछ भी कर ले वो बेचारा! 


कवि अज्ञात है


About जनपथ

जनपथ हिंदी जगत के शुरुआती ब्लॉगों में है जिसे 2006 में शुरू किया गया था। शुरुआत में निजी ब्लॉग के रूप में इसकी शक्ल थी, जिसे बाद में चुनिंदा लेखों, ख़बरों, संस्मरणों और साक्षात्कारों तक विस्तृत किया गया। अपने दस साल इस ब्लॉग ने 2016 में पूरे किए, लेकिन संयोग से कुछ तकनीकी दिक्कत के चलते इसके डोमेन का नवीनीकरण नहीं हो सका। जनपथ को मौजूदा पता दोबारा 2019 में मिला, जिसके बाद कुछ समानधर्मा लेखकों और पत्रकारों के सुझाव से इसे एक वेबसाइट में तब्दील करने की दिशा में प्रयास किया गया। इसके पीछे सोच वही रही जो बरसों पहले ब्लॉग शुरू करते वक्त थी, कि स्वतंत्र रूप से लिखने वालों के लिए अखबारों में स्पेस कम हो रही है। ऐसी सूरत में जनपथ की कोशिश है कि वैचारिक टिप्पणियों, संस्मरणों, विश्लेषणों, अनूदित लेखों और साक्षात्कारों के माध्यम से एक दबावमुक्त सामुदायिक मंच का निर्माण किया जाए जहां किसी के छपने पर, कुछ भी छपने पर, पाबंदी न हो। शर्त बस एक हैः जो भी छपे, वह जन-हित में हो। व्यापक जन-सरोकारों से प्रेरित हो। व्यावसायिक लालसा से मुक्त हो क्योंकि जनपथ विशुद्ध अव्यावसायिक मंच है और कहीं किसी भी रूप में किसी संस्थान के तौर पर पंजीकृत नहीं है।

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