स्मृति शेष: इतिहास का क्राफ्ट और प्रो. बी.पी. साहू का अवदान


पिछले कुछ साल में हमने बहुत से बुद्धिजीवियों को खो दिया। उनका जाना इतनी शांति के साथ हुआ कि हमारी बौद्धिक दुनिया में छायी हुई चुप्पी पर मानो कोई असर ही नहीं हुआ है। किसी के न रहने के संदर्भ में हम उसके अवदानों पर बात करते हैं। साथ ही हम उनके अवदानों की अग्रिम व्याख्याओं और नये हासिल संदर्भों, तथ्यों और निष्कर्षों के साथ आगे जाने की चुनौतियों के बारे में बात करते हैं।

बौद्धिक जगत में सिद्धांत से व्यवहार और व्यवहार से सिद्धांत की तरफ जाने की जो प्रक्रिया है, उसमें समाज और उसके इतिहास की परतें ही नहीं खुलती हैं। यह एक ऐसे आईने की तरह है जिसमें इंसान अपना इतिहास, वर्तमान और भावी जीवन का अक्स देखने लगता है। भारत में इतिहास लेखन और अध्यापन की परम्परा इस संदर्भ में समृद्ध है। भारत के इतिहासलेखन की इसी तरह की परम्परा को समृद्ध करने वाले इतिहासकार प्रो. भैरबी प्रसाद साहू 3 मार्च, 2022 को हमारे बीच नहीं रहे। आमतौर पर छात्र उन्हें बीपी साहू के नाम से ही जानते थे।

30 मई, 1957 को बेहरामपुर, उड़ीसा में जन्मे बीपी साहू दिल्ली विश्वविद्यालय आए और यहीं से शोध किया। आने वाले दिनों में उन्होंने यहीं पढ़ाना शुरू किया और इतिहास विभाग के अध्यक्ष बने। यहीं से रिटायर होने के कुछ ही समय बाद ही उनका अचानक चला जाना इतिहासलेखन की उन चुनौतियों को छोड़कर जाना भी था जिस पर अभी काम करना बाकी है।

उनका शोध घूमंतू जीवन और समाज पर था। प्रो. डी.एन. झा के निर्देशन में उन्होंने शोध किया। उनका मानना था कि आज के समाज की बनावट और उसकी संस्कृतियां जिसमें उसका खान-पान भी शामिल है, उस पूर्ववर्ती समाज के साथ जुड़़ा हुआ होता है और वह हमारे समय तक आता है। यानी प्रागैतिहास इतिहास का जीवंत पन्ना होता है। प्रो. डी.एन. झा की पुस्तक ‘पवित्र गाय का मिथक’ में यह संदर्भ एक नये रूप में सामने आया।

प्रो. बी.पी. साहू ने भारत के संदर्भ में स्थानीय इतिहासलेखन पर जोर दिया। आमतौर पर भारत के वृहद इतिहासलेखन में जिन संदर्भों और स्रोतों का प्रयोग किया जाता रहा है, उसमें निर्णायक पक्ष राज्य की अवधारणा पर ज्यादा केंद्रित होता है जिसे माना जाता रहा है कि उसका प्रभाव अधिक दूरगामी और व्यापक था लेकिन यदि हम सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विविधताओं की विशिष्टताओं को देखें, स्थिति एकदम ही अलग दिखती है। एक ऐसी ही अवधारणा समाजशास्त्री एम.एन. श्रीनिवास का ‘संस्कृतिकरण’ है जो जातियों के बनने-बिगड़ने के संदर्भ में दी गयी थी। इस अवधारणा में मान लिया गया कि जातियां अपने से ऊपर की जातियों के सापेक्ष अपना पवित्रीकरण और अनुकरण करते हुए अपनी भिन्न श्रेणियां बनाती हैं या ऊपर की जातियों में शामिल होने का प्रयास करती हैं। इस प्रक्रिया में सामाजिक और सांस्कृतिक सम्मिलन और बहिष्करण भी शामिल होता है।

उड़ीसा के समाज का गहरा अध्ययन करते हुए प्रो. बी.पी. साहू ने सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक पक्षों को उजागर किया और ब्राह्मणवाद के ट्राइबलाइजेशन की बात की। जातियों की संरचना के निर्माण, नये राज्यों के उद्भव, भाषाओं के विकास और नये धार्मिक संस्थानों के निर्माण से वे यह दिखाते हैं कि प्राचीन और पूर्ववर्ती मध्यकाल के दौरान जो समाज बनते हुए दिख रहा था वह एकीकृत महान हिंदू साम्राज्य की अवधारणा से अलग है। इस संदर्भ में प्रो. आर.एस. शर्मा की पुस्तक सामंतवाद पर उनकी टिप्पणी गौर करने लायक है। उनका मानना था कि यह पुस्तक आर्थिक संरचना पर काफी जोर देती है जबकि सामंतीकरण की प्रक्रिया में संस्कृति और समाज की बनती हुई इकाइयां छूट गयी हैं। इस संदर्भ में प्रो. सुनील कुमार की पुस्तक ‘दिल्ली सल्तनत’ को याद करना बेवजह नहीं होगा। उन्होंने मध्यकाल पर काम करते हुए धर्म और संस्कृति की भूमिका के निर्वाह पर जोर दिया और नये सिरे से काम किया। इस संदर्भ में प्रो. बी.पी. साहू की पुस्तक ‘द चेजिंग गेजः रीजन्स एण्ड द कन्सट्रक्शन ऑफ अर्ली इंडिया’ और ‘द मेकिंग ऑफ रीजन्स इन इंडियन हिस्टरीः सोसायटी, स्टेट और आइडेंटिटी इन प्रीमॉडर्न इंडिया’ जरूर पढ़ी जानी चाहिए।

इन पुस्तकों के संदर्भ में वह भाषा के बनने की बात प्रमुखता से उठाते हैं। इन भाषाओं का अपना क्षेत्र था और ये नये तरह की सांस्कृतिक और सामाजिक आकांक्षाओं को लेकर आ रहे थे। इन भाषाओं में वही बातें नहीं थीं जो संस्कृत के माध्यम से अभिव्यक्त हो रही थीं। प्राचीन भारत और सामंतवाद का विकास एकरेखीय घटनाएं नहीं हैं जो संस्कृत, पाली जैसी भाषाओं में रचे गये साहित्य और भारत के विशाल राज्यों की अवधारणा वाले राजाओं की प्रशस्तियों में जारी किये गये। निश्चय ही इस पर अभी और काम होना बाकी है।

प्रो. बी.डी. चट्टोपाध्याय, हरमन कुल्के के साथ मिलकर प्रो. बी.पी. साहू ने इस दिशा में काम को आगे बढ़ाया। इस संदर्भ में एक और पुस्तक ‘हिस्टरी ऑफ प्रीकोलोनियल इंडिया’ जिसका संपादन प्रो. बी.पी. साहू ने किया, का उल्लेख बहुत जरूरी है। यह भारत में इतिहास, दर्शन और लेखन को लेकर आ रही समस्याओं और इसे समृद्ध करने की चुनौतियों को चिन्हित करती है।

उन्होंने एक और पुस्तक ‘आयरन एण्ड सोशल चेन्जेज़ इन अर्ली इंडिया’ को संपादित किया। उत्पादन के साधन और उत्पादन संबंधों के बीच के रिश्तों को भारत के संदर्भ में समझने का प्रयास किया गया। इस संदर्भ में रोमिला थापर की पुस्तक ‘अशोक और मौर्यों का पतन’ और प्रो. आर.एस. शर्मा की ‘भारत का प्राचीन इतिहास’ देखा जा सकता है। जैसे-जैसे जनपदों से इतर एक नये क्षेत्र में मौर्य साम्राज्य के बनने और नये सामाजिक संरचनाओं की उभरने का अध्ययन बढ़ता गया वैसे-वैसे लोहे की भूमिका पर सवाल भी बनता गया। आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि तकनीक और समाज के बीच सीधा संबंध है। यह बहस भारत के संदर्भ में सामंतवाद को लेकर भी खूब रही है और आज भी जारी है। यदि हम आज के भारत के संदर्भ में आधुनिक तकनीक और पूंजी की नई अवधारणाओं को भारत के सामाजिक संबंधों को देखें तब हम एक भिन्न स्थिति पाएंगे। धातुओं की उपलब्धता, तकनीक की खोजों और समाज व राज्य की भूमिका एक ऐसी जटिल संरचना को पेश करती है, जिसे ठोस परिस्थियों में विश्लेषित करना जरूरी होता है। इतिहासलेखन में यह किसी समाज को देखने का नजरिया भी पेश करता है और इससे वह प्रभावित भी होता है।

प्रो. बी.पी. साहू इतिहासलेखन और उससे जुड़ी गतिविधियों में सक्रिय रहे। भारतीय इतिहास कांग्रेस में उनकी सक्रियता ने इतिहासलेखन को आगे बढ़ाया। उन्‍होंने इतिहासलेखन को लेकर बनाये जा रहे पूर्वाग्रहों और इतिहासकारों पर किये जा रहे हमले का पुरजोर विरोध किया। उन्होंने इतिहासलेखन को जिस तरह से समृद्ध किया है, नये विचारों और शोध प्रविधियों को विकसित किया उससे आगे काम करने की संभावनाएं खुली हैं। हम जरूर ही इतिहास लेखन की इस विरासत के साथ जुड़ेंगे।

इतिहास न तो खंडहर हैं और न ही उसे तहस-नहस कर खंडहर बनाया जा सकता है। इतिहास एक क्राफ्ट की तरह है। जितनी बार हमारी नौका टूटेगी या तोड़ दी जाएगी, हम उतनी बार उसे बनाएंगे, अपनी जरूरतों के अनुसार, अपनी अभिरुचियों के अनुसार।



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